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भाजपा अध्यक्ष बनाने की राजनीति

नितिन नबीन का भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष बनाना भारतीय राजनीति की एक परिघटना है

भाजपा अध्यक्ष बनाने की राजनीति
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  • अरविन्द मोहन

नितिन नबीन कुछ ज्यादा ही नये लगते हैं। पूरे देश की कौन कहे(वैसे भाजपा अपने को विश्व की सबसे बड़ी पार्टी मानती है) पूरे बिहार के लोग भी उनको नहीं जानते होंगे। यही भाजपा उनको बिहार का अध्यक्ष बनाने का साहस नहीं दिखा सकती थी। वे बहुत निष्ठावान कार्यकर्ता रहे हैं, उनके पिता का भी भाजपा से जुड़ाव था। उनकी असमय मौत से उपजी सहानुभूति के चलते ही उनकी कायस्थ प्रभाव वाली सीट पर हुए उप चुनाव में नितिन नबीन को टिकट मिला।

नितिन नबीन का भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष बनाना भारतीय राजनीति की एक परिघटना है। इस चलते भी उस पर ज्यादा विस्तार से चर्चा हो रही है और यह जरूरी भी है। वे चौथी बार विधायक बने थे, मंत्री भी हैं और एकदम युवा हैं। चाचा और भैया सम्बोधन उनका प्रिय जुमला है और एक चाचा नीतीश कुमार द्वारा उनको सदन में तुम कहकर हड़काए जाने का प्रसंग काफी लोगों को याद आ रहा है। नितिन का चुनाव एक कार्यकर्ता को महत्व देने का प्रमाण है और इसके चलते भाजपा को अलग चाल चरित्र और चेहरे की पार्टी बताना भी जारी है। यह चीज भाजपा के लिए खास है क्योंकि कांग्रेस, राजद, समाजवादी पार्टी, द्रमुक, तेलगु देशम, अकाली, शिव सेना समेत ज्यादातर पार्टियों में नेतृत्व एक परिवार तक सिमट आया है। फिर यह भी हुआ है कि पार्टियां निरंतर एक काकस के घेरे में दिखती हैं- भाजपा बार-बार इस घेरे को तोड़कर नये लोगों को मौका देती है और इनमें योगी आदित्यनाथ जैसे लोग धाकड़ नेता बनकर उभरते हैं तो शिवराज सिंह जैसा धाकड़ भी अनुशासित सिपाही बनकर पार्टी की सेवा करता रहता है। जो नाराज और मुंह फुलाए हैं वे पार्टी का खास नुकसान नहीं कर पाते या उसकी हिम्मत नहीं करते।

बहुत पहले जब भाजपा नई थी और बारी- बारी से अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को अध्यक्ष बनाकर अपना काम आगे बढ़ा रही थी तब किसी बात पर आडवाणी जी और समाजवादी नेता मधु लिमए में बहस छिड़ी। फिर मधु जी ने चुनौती दी कि भाजपा किसी तीसरे को अध्यक्ष बनाकर दिखाए। उनका इशारा भाजपा में बड़े नेताओं की कमी से भी ज्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मंजूरी की तरफ था। आज मधु लिमए होते तो उनको न सिर्फ अपने शब्द वापस लेने पड़ते बल्कि अपने शिष्यों द्वारा एक आंदोलन को छोटे-छोटे दल बनाकर पारिवारिक जागीर बनाने की परिघटना पर शर्म आती। मधु जी खुद भी सोशलिस्ट आंदोलन में कई बार की टूट के केंद्र में रहे थे लेकिन हर बार बड़े सैद्धांतिक सवाल थे-निजी मामला कुछ न था। इस लिहाज से भाजपा और संघ दोनों ही ज्यादा धीरज और लंबी सोच वाले साबित हुए हैं। पार्टियां अध्यक्ष से काफी कु छ पाती हैं लेकिन पार्टी अध्यक्ष उससे ज्यादा कुछ पाता है। उम्मीद करनी चाहिए कि नितिन नबीन को भाजपा और संघ दोनों का पूरा सहयोग मिलेगा। और आज अगर ये दोनों समूह नितिन नबीन जैसे युवा और बिहार से बाहर अनजान चेहरे पर दांव लगाने का साहस करते हैं और सहमति बनाते हैं तो यह खास बात होनी चाहिए।

हम सब जानते हैं कि पिछले लोक सभा चुनाव से पहले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा संघ की जरूरत न रहने वाली टिप्पणी के बाद इन दोनों संगठनों में टकराव की खबरें आ रही थीं और संघ प्रमुख तक के कई बयान सीधे- सीधे धमकी जैसे लगते थे। इस बीच विभिन्न बड़े नामों पर एक पक्ष की सहमति तो दूसरे की असहमति की खबरें या अफवाहें आती रहीं। और इन पर भरोसा करने की वजह थी जेपी नड्डा का अध्यक्ष और मंत्री बने रहना। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा के लिए यह खास स्थिति थी क्योंकि मोदी जी कोई भी फैसला करके मनवाने के लिए जाने जाते थे। इस बार भाजपा को लोक सभा में बहुमत न मिलना भी उनको कमजोर बना रहा था। ये खबरें भी आ रही थी कि अमित शाह बनाम योगी आदित्यनाथ का खामोश टकराव भी शुरू हो गया है। संघ के लिए ये चीजें एक अवसर बन गई थीं। कहना न होगा कि नड्डा को ऐसा बयान देना भारी पड़ा तो मोदी-शाह द्वारा उनको तब न टोकने की चूक उनको भी कमजोर स्थिति में ला रही थी। किसी वरिष्ठ और इस या उस गुट का गिने जाने वाले नेता को अध्यक्ष बनाने की जगह नये नाम और नये व्यक्ति पर सहमति बनाना ज्यादा आसान होता है।

नितिन नबीन कुछ ज्यादा ही नये लगते हैं। पूरे देश की कौन कहे(वैसे भाजपा अपने को विश्व की सबसे बड़ी पार्टी मानती है) पूरे बिहार के लोग भी उनको नहीं जानते होंगे। यही भाजपा उनको बिहार का अध्यक्ष बनाने का साहस नहीं दिखा सकती थी। वे बहुत निष्ठावान कार्यकर्ता रहे हैं, उनके पिता का भी भाजपा से जुड़ाव था। उनकी असमय मौत से उपजी सहानुभूति के चलते ही उनकी कायस्थ प्रभाव वाली सीट पर हुए उप चुनाव में नितिन नबीन को टिकट मिला। पिता चौहत्तर आंदोलन वाले थे और अच्छे विधायक और नेता थे लेकिन मंत्री न बनाए जाने से भाजपा से नाराज थे। वह भी एक कारण बना बेटे को टिकट देने का। इस हिसाब से उनका नेतृत्व कैसा होगा यह अंदाजा लगाना मुश्किल है। स्वतंत्र सोच, बढ़िया वक्ता वाला गुण, मुश्किल स्थिति में समाज और पार्टी के हित में फैसले लेने, अच्छे लोगों की पहचान और मुश्किल फैसले करने की उनकी क्षमता की परख अब शुरू हो रही है। अभी उनके खाते में इनमें से एक भी गुण नहीं है, सिर्फ ईमानदार कार्यकर्ता होना और पिता की सीट पर अपनी बिरादरी के वोटों के बल पर जीतने का गुण बहुत थोड़ा महत्व का है। वे नये हैं और सिन्सियर हैं तो उनके विकसित होने की उम्मीद भी ज्यादा है लेकिन अभी तक का रिकार्ड एक सीमा बताता ही है।

अब भाजपा संसदीय बोर्ड या हाई कमान और संघ के लोगों (जिनकी पूर्व स्वीकृति जरूर ली गई होगी) को ये बातें न मालूम हों ऐसा नहीं है पर नितिन नबीन को अध्यक्ष बनाने के जो लाभ हैं वे इन कमियों पर भारी पड़े होंगे। बिहार में कायस्थ इस बार काफी नाराज थे जो लगभग शत प्रतिशत भाजपा को वोट देते आये थे। पिछली विधान सभा में तीन विधायक कायस्थ थे जबकि इस बार सिर्फ एक को टिकट मिला। बिहार से ज्यादा बड़ा कारण पश्चिम बंगाल का आगामी विधान सभा चुनाव है जहां कायस्थ ज्यादा बड़ी और प्रभावी जाति है। बंगाल चुनाव में भाजपा हिन्दू-मुसलमान साथ हों, उनका धु्रवीकरण हो, नामशूद्र भाजपा के ठोस समर्थक हों, इन तीनों रणनीति पर काम करके भाजपा सफल नहीं हुई है। इस बार भी पंचायत चुनाव में काफी मुसलमान उम्मीदवार देकर भी उसे सफलता नहीं मिली है। इसकी वजह बंगाली समाज में जाति और संप्रदाय की पूछ कम होने और भद्रलोक में भाजपा की पैठ न होना है। मुख्यत: ब्राह्मण, कायस्थ और बैद्य जातियों वाले भद्रलोक में कायस्थों के मन में मुलायमियत लाकर यह घुसपैठ की जा सकती है, यह बात भाजपा की रणनीति का हिस्सा हो सकती है। और अगर भाजपा बंगाल का किला भेदने में इस रणनीति में सफल होती है तो वह बार-बार ऐसा अध्यक्ष लाना चाहेगी। वह क्या कोई भी जीवंत और महत्वाकांक्षी पार्टी ऐसा फैसला करेगी।


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