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विचार बनकर बने रहते हैं लोग

विनोद चाचाजी दुनिया भर में सम्मानित हुए, उनकी रचनाओं के कई भाषाओं में अनुवाद हुए, फिल्में बनीं, साहित्य उत्सवों में उन्हें आमंत्रित किया जाता रहा, इतनी लोकप्रियता, शोहरत के बावजूद वे जितने सहज बने रहे

विचार बनकर बने रहते हैं लोग
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विनोद चाचाजी दुनिया भर में सम्मानित हुए, उनकी रचनाओं के कई भाषाओं में अनुवाद हुए, फिल्में बनीं, साहित्य उत्सवों में उन्हें आमंत्रित किया जाता रहा, इतनी लोकप्रियता, शोहरत के बावजूद वे जितने सहज बने रहे, उतनी ही सहजता और सरलता सुधा चाची में बनी रही। परंपरागत भारतीय गृहिणी की तरह अपने पति का हर कदम, हर मोड़, हर सुख-दुख में उन्होंने साथ दिया। फिल्म मशाल में दिलीप कुमार और वहीदा रहमान विनोद और सुधा के किरदारों में थे, फिल्मी पर्दे की ये जोड़ी चर्चा में आई तो ललित जी ने हंसते हुए कहा था कि हम तो विनोद और सुधा की इस जोड़ी के प्रशंसक हैं।

वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह।

रबड़ की चप्पल पहनकर मैं पिछड़ गया।

ऐसी असाधारण पंक्तियां और ऐसा ढेर सारा असाधारण गद्य, पद्य, कविताएं, कहानियां, उपन्यास और बाल साहित्य लिखने वाले विनोद भाई अब नहीं रहे। ललित सुरजन (मेरे पिता) उन्हें हमेशा विनोद भाई कहकर ही पुकारते थे। घर में हमेशा उनके लिए यही संबोधन सुना। हालांकि हम जब उनसे मुखातिब होते तो उन्हें चाचाजी कहकर ही संबोधित करते और उनके बच्चे भी ललित जी को चाचाजी कहकर ही पुकारते। उनके न रहने पर बचपन की बहुत सी धुंधली स्मृतियां लौट रही हैं।

विनोद चाचाजी मोटरसाइकिल पर आया करते थे, शायद राजदूत मोटरसाइकिल होती थी उनके पास। आधी बांहों का शर्ट, पतलून और पैरों में वही रबड़ की चप्पल, जिसका जिक्र ऊपर की पंक्ति में है। रबड़ की चप्पल पहनकर पिछड़ने की बात असल में उस साधारण आदमी का दर्द है, जो गांधी के दर्शन में आखिरी पंक्ति का आखिरी व्यक्ति है। कई बार उसे ये चप्पल भी नसीब नहीं होती। ऐसे ही किसी दुखी हताश व्यक्ति के लिए उन्होंने लिखा कि

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

संवेदनशीलता के साथ साधारण व्यक्तियों के मर्म को छूते हुए विनोद चाचाजी अपने हाथ बढ़ाते रहे, कलम चलाते रहे। उनके न रहने पर सोशल मीडिया पर उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलियां दी जा रही हैं, उनकी पंक्तियों को उद्धृत किया जा रहा है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष समेत कई दिग्गजों ने हिन्दी साहित्य में उनके योगदान को याद करते हुए श्रद्धांजलि दी है। यह सब देखकर आश्वस्ति होती है कि हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों, लेखकों की कद्र समाज में अब भी बाकी है। अच्छे साहित्य को पढ़ना, उस पर मनन करना भले कम हो गया हो, या केवल ड्राइंग रूम में सजाने के लिए किताबें खरीदी जाती हों, लेकिन एक कालजयी रचनाकार की दुनिया से विदाई पर अगर उसकी रचनाओं के साथ उसे याद किया जा रहा है, तो यह सही मायनों में कलम की जीत है।

हालांकि कई बार सरकारें, राजनेता अपनी छवि निखारने के लिए लेखकों का इस्तेमाल करते हैं। विनोद चाचाजी के साथ शायद छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद ऐसा ही करने की कोशिश की गई थी। राज्योत्सव के लिए लगे मेले में मुख्यमंत्री अजित जोगी और विनोद कुमार शुक्ल दोनों अपनी नयी किताबों को हस्ताक्षर के साथ पाठकों को देने के लिए उपस्थित थे। मुख्यमंत्री के हाथों से पुस्तक लेने, उन्हें अपनी वफादारी दिखाने और तस्वीर खिंचवाने के लिए तो उनके समर्थकों की लंबी लाइन बनी थी, और विनोद भाई के हाथों से किताब लेने वालों की लाइन छोटी थी। यह देखकर अफसोस हुआ था कि मानव मन की जटिलताओं के महीन से महीन रेशे को पकड़ने वाले विनोद कुमार शुक्ल राजनीति के इस जटिल खेल को क्यों कर न समझ सके। खैर इसमें उनकी नहीं राजनीति की बुराई है।

फिर उसी मोटरसाइकिल की तरफ बढ़ती हूं, जिस पर सवार होकर विनोद चाचाजी घर आया करते थे। खाने की मेज़ पर या चाय पीते-पीते बाबूजी और ललितजी के साथ दुनिया भर के मुद्दों पर चर्चा हुआ करती थी। अमेरिका, ब्रिटेन की राजनीति से लेकर साहित्यिक गतिविधियों पर, एक से बढ़कर एक उम्दा विचार हमें सुनने मिला करते। इन चर्चाओं में प्रभाकर चौबे, हरिशंकर शुक्ल, बच्चू जांजगिरी आदि भी अक्सर हुआ करते थे। खैरागढ़ से अगर रमाकांत श्रीवास्तव आते तब भी ऐसी अनौपचारिक साहित्यिक-वैचारिक गोष्ठियां जम जाया करती थीं। और कई बार ये सब लेखक मित्र एक-दूसरे की रचनाओं के विश्लेषण करते, शीर्षकों पर चर्चा करते जो हास-परिहास करते थे, वह भी इतना स्तरीय होता था कि एक अच्छी हास्य रचना तैयार हो जाए।

अपनी खुशकिस्मती समझती हूं कि अपने पिता और बाबूजी के साथ-साथ इन तमाम लेखकों-विचारकों से भाषा, साहित्य और पत्रकारिता के संस्कार मिले। हर वक्त के अपने तकाजे और जरूरत होती है, लेकिन कुछ चीजों के लिए लगता है कि वक्त बदलना नहीं चाहिए। आज घरों में अमूमन ऐसा माहौल कम हो चुका है या लगभग गायब ही है, जहां मां-बाप और उनके मित्रों के साथ बच्चों को अच्छी बातें सुनने-समझने का मौका मिले। बच्चों के हाथ में मोबाइल है, स्मार्ट फोन ने उनकी नजरों पर डाका डाल दिया है, ऐसी शिकायत तो सुनने मिलती ही है, लेकिन हकीकत ये है कि नासमझ बच्चों की तरह खुद को समझदार कहने वाले अभिभावक भी अपना अधिक से अधिक वक्त स्क्रीन पर बिताने लगे हैं, जिससे बच्चों के साथ उनका संवाद कम हो रहा है और वो बच्चों में उस संवेदनशीलता को संप्रेषित ही नहीं कर पा रहे हैं, जो उन्हें एक बेहतर इंसान और भावी नागरिक बनाए। यहां फिर विनोद चाचाजी का जिक्र करूंगी, जिन्होंने नौकर की कमीज और दीवार में एक खिड़की रहती थी, जैसा गंभीर लेखन किया तो उतनी ही गंभीरता से बच्चों के लिए कविताएं, कहानियां लिखीं। छोटे-छोटे वाक्य, रोजमर्रा में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द, बच्चों के विचार फलक पर उभरते दृश्य, उनकी कल्पनाएं, सबको बखूबी अपने लेखन से बांधा। एक बानगी देखिए

टेढ़ा मेढ़ा नक्शा

टेढ़े मेढ़े द्वीप

टेढ़े मेढ़े समुद्र

टेढ़ी मेढ़ी नदियां

इधर उधर तक फैला

ओर छोर आकाश

टेढ़े मेढ़े होंगे

उसके कोर किनार

टेढ़ा मेढ़ा है सब

चार दिशा दस कोनों के

कहीं कम नहीं अनंत छोटी बच्ची का सब गढ़ा हुआ

कहता था एक बूढ़ा संत

बड़ों की संवादहीनता का शिकार बच्चे अगर विनोद कुमार शुक्ल की बाल रचनाओं को पढ़ें तो लगेगा कि घर का कोई बुजुर्ग उन्हें अपने पास बिठाकर उनके मन की बात सुन रहा है, अपने मन की बात कह रहा है।

विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार से लेकर गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप (मध्य प्रदेश शासन), रज़ा पुरस्कार (मध्य प्रदेश कला परिषद), राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश शासन), हिंदी गौरव सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, उत्तर प्रदेश शासन) के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय साहित्य में उपलब्धि के लिए 2023 का पेन/नाबोकोव पुरस्कार भी मिला। वे भारतीय एशियाई मूल के पहले लेखक थे, जिन्हें इस सम्मान से नवाजा गया था। करीब 28 साल पहले 1997 में जब विनोद जी को दयावती मोदी पुरस्कार मिला था, तब देशबन्धु को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मैं तो हमेशा पुरस्कार से अपनी तरफ से बचने की कोशिश करता हूं। पीछे बैठा होने के बावजूद लोगों की नजर उस तरफ घूम जाती है, तो संतोष होता है। यानी बड़े से बड़े पुरस्कार को भी उन्होंने सहज भाव से ही लिया। उनका कहना था कि ऐसा समाज हो जहां कविता की पुरस्कारों से पहचान बनती हो। जहां कवि की पहचान बाद में हो तो कविता के लिए ऐसा पुरस्कार मान्य होना चाहिए।

विनोद चाचाजी दुनिया भर में सम्मानित हुए, उनकी रचनाओं के कई भाषाओं में अनुवाद हुए, फिल्में बनीं, साहित्य उत्सवों में उन्हें आमंत्रित किया जाता रहा, इतनी लोकप्रियता, शोहरत के बावजूद वे जितने सहज बने रहे, उतनी ही सहजता और सरलता सुधा चाची में बनी रही। परंपरागत भारतीय गृहिणी की तरह अपने पति का हर कदम, हर मोड़, हर सुख-दुख में उन्होंने साथ दिया। फिल्म मशाल में दिलीप कुमार और वहीदा रहमान विनोद और सुधा के किरदारों में थे, फिल्मी पर्दे की ये जोड़ी चर्चा में आई तो ललितजी ने हंसते हुए कहा था कि हम तो विनोद और सुधा की इस जोड़ी के प्रशंसक हैं। 2005 में ललितजी की पहल से चौबे कॉलोनी महिला मंडल ने तेजस्विनी सम्मान का आयोजन किया था। इसमें उन महिलाओं को सम्मानित किया गया, जिन्होंने पर्दे के पीछे रहकर अपने पति या बच्चों को शोहरत की बुलंदी तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। सुधा शुक्ल यानी सुधा चाची को भी यह सम्मान मिला, जिन्होंने विनोद कुमार शुक्ल के लेखन को निर्बाध जारी रखने में अपना अमूल्य योगदान दिया।

कई साल पहले शायद 80 के दशक के आखिरी सालों में विनोद कुमार शुक्ल ने अपने हाथों से एक कविता लिखकर ललित जी को दी थी, जिसे उन्होंने बाकायदा फ्रेम करवा कर अपने दफ्तर में लगा कर रखा और अब तक वह उसी तरह वहां लगी हुई है। नश्वर काया को छोड़कर जाने वालों के बाद ऐसी ही यादें बची रह जाती हैं। विचार की तरह लोग चले जाते हैं, लेकिन विचार बनकर हमेशा हमेशा के लिए यादों में बने भी रहते हैं।


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