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इतिहास में सिर्फ वोट कटुआ के नाम से ही जाने जाएंगे ओवैसी!

असदुद्दीन ओवैसी की कामयाबी बस इतिहास में इसी तरह दर्ज होगी कि वोट काटने के मामले में वे मायावती, केजरीवाल और प्रशांत किशोर से ऊपर थे

इतिहास में सिर्फ वोट कटुआ के नाम से ही जाने जाएंगे ओवैसी!
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  • शकील अख्तर

भारत के मुस्लिम ने इसका हमेशा विरोध किया है। उसने अपना नेता जिन्ना को नहीं नेहरू को माना था। बीजेपी को अपने सांप्रदायिक नफरत का जहर फैलाने के लिए यह बात सबसे ज्यादा सूट करती है कि भारत का मुस्लिम अपने नेतृत्व के तौर पर सिर्फ मुस्लिम को ही स्वीकार करे। लेकिन भारतीय मुस्लिम ने यह कभी स्वीकार नहीं किया।

असदुद्दीन ओवैसी की कामयाबी बस इतिहास में इसी तरह दर्ज होगी कि वोट काटने के मामले में वे मायावती, केजरीवाल और प्रशांत किशोर से ऊपर थे। 11 नवंबर को बिहार में दूसरे दौर का मतदान होना है और यही फैसला करेगा कि बिहार में किसकी सरकार बनेगी। इसमें सीमांचल की वे 24 सीटें भी हैं जो मुस्लिम बहुल कहलाती हैं और जहां ओवैसी अपनी पूरी जी जान लगाए हुए हैं। मुस्लिम के वोट ज्यादा से ज्यादा काटकर बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए।

पिछली बार 2020 में उनकी पार्टी एआईएमआईएम ने यहां से 5 सीटें जीतकर महागठबंधन की सरकार बनने में सबसे बड़ा रोड़ा अटकाया था। 14 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम के वोट उन्हें मिले थे। जो जाहिर है सीधा महागठबंधन को नुकसान पहुंचाने वाले साबित हुए। वोट कटने के कारण 24 में आधी 12 सीटें एनडीए जीत गया था। जिनमें से 8 बीजेपी। महागठंबधन केवल 7 सीटों पर सिमट गया। और 5 ओवैसी ले गए।

चार जिलों किशनगंज, कटिहार, अररिया और पूर्णिया के इस इलाके को ही सीमांचल कहते हैं। यहां मुस्लिम आबादी करीब 45 प्रतिशत है। किशनगंज में सबसे ज्यादा 67 प्रतिशत। यहीं से कांग्रेस ने पत्रकार एमजे अकबर को चुनाव लड़वा कर लोकसभा पहुंचाया था। जो बाद में बीजेपी में चले गए। और अब वहां से भी बाकी मुस्लिम नेताओं मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन, नजमा हेपतुल्ला की तरह साइड लाइन कर दिए गए हैं।

अब इनकी जगह बीजेपी ओवैसी को ले आई है। और अब चूंकि वह वाजपेयी के समय की तरह दुनिया दिखाने के लिए भी सब वर्गों की बात नहीं करती है तो इसलिए वह अंदर किसी मुस्लिम को लाकर वोट काटने की राजनीति के बदले बाहर से ओवैसी की तरह के लोगों से वोट कटवाती है।

इस बार ओवैसी 25 सीटों पर बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं। जिनमें से 15 सीटें सीमांचल की हैं। मुस्लिमों के जज्बाती सवाल उठाकर वे इस बार फिर 2020 की तरह एनडीए की सरकार बनवाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस बार एक बड़ा फर्क है। पिछली बार नीतीश मुख्यमंत्री बन गए थे। जिन्होंने काफी हद तक बिहार को उत्तर प्रदेश बनने से रोका हुआ था। मगर इस बार बीजेपी खुद अपना मुख्यमंत्री बनाना चाह रही है। नीतीश को अभी तक बीजेपी ने उस तरह मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है जिस तरह महागठबंधन ने तेजस्वी को कर दिया है।

बिहार में बीजेपी का मुख्यमंत्री बनने का मतलब है बुलडोजर की एंट्री। और इस बुलडोजर राजनीति को लाने में सबसे बड़ा योगदान ओवैसी निभा रहे हैं। वे प्रधानमंत्री मोदी के कितने खास हैं वह इससे समझा जा सकता है कि अभी आपरेशन सिंदूर के बाद दुनिया में अपना पक्ष रखने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने जिन सांसदों को विदेश भेजा था उनमें ओवैसी प्रमुख थे।

देश का पक्ष रखना अच्छी बात है मगर सबको मालूम था कि मोदी वहां देश की नहीं अपनी छवि बनाने के लिए यह प्रतिनिधि मंडल भेज रहे हैं। नहीं तो उस पूरी विदेश यात्रा के दौरान भाजपा के एक सांसद निशिकांत दुबे वहां से रोज कैसे विपक्ष के खिलाफ एक बयान जारी करते थे। ट्वीट के माध्यम से। न सरकार और न विदेश गए ओवैसी या कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा इसका विरोध करते थे कि भाई हम यहां देश का पक्ष रखने आए हैं या नेहरू, इन्दिरा का विरोध करने।

और मजेदार बात यह कि अब वही बात प्रधानमंत्री मोदी ने भी कह दी। बिहार में चुनाव प्रचार करते हुए उन्होंने कहा कि आपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान को हुए नुकसान पर यहां हमारे यहां विपक्ष मातम मना रहा था। मतलब ओवैसी जो विदेश में पाकिस्तान के खिलाफ बोल रहे थे वे यहां पर पाकिस्तान के साथ थे?

मोदी जी सबका उपयोग करने में माहिर हैं। अभी आडवानी के 98 साल पूरे होने पर उन्हें गुलदस्ता देने पहुंच गए थे। जहां फोटो में बेबस आडवानी नजर आ रहे हैं। गुजरात दंगों और उसके बाद के बाद आडवानी ही उनके सबसे बड़े समर्थक और रक्षक थे। मगर प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले आडवानी को किनारे लगाया।

ओवैसी पर कोई ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स का छापा नहीं। बाकी विपक्ष के छोटे- छोटे नेता भी इनके प्रकोप से नहीं बचे। इसके बदले ओवैसी मोदी की हर चुनाव वाले राज्य में मदद कर रहे हैं। यूपी में लड़े ही थे। मध्य प्रदेश भी पहुंच गए थे। वे एक सबसे खतरनाक नारा उठा रहे हैं। अपनी कयादत का। मुस्लिम नेतृत्व का। मतलब मुस्लिम का नेता मुस्लिम ही होना चाहिए।

भारत के मुस्लिम ने इसका हमेशा विरोध किया है। उसने अपना नेता जिन्ना को नहीं नेहरू को माना था। बीजेपी को अपने सांप्रदायिक नफरत का जहर फैलाने के लिए यह बात सबसे ज्यादा सूट करती है कि भारत का मुस्लिम अपने नेतृत्व के तौर पर सिर्फ मुस्लिम को ही स्वीकार करे। लेकिन भारतीय मुस्लिम ने यह कभी स्वीकार नहीं किया।

आजादी के आन्दोलन में उसके नेता गांधी और नेहरू थे। आजादी के बाद नेहरू, इन्दिरा, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, अर्जुन सिंह। बीच में उस समय तक जब तक हेमवतीनंदन बहुगुणा भाजपा से मिल नहीं गए थे वे मुस्लिमों के नेता रहे।

सिद्धांत के तौर पर ही यह गलत बात है कि किसी भी धर्म या जाति का नेतृत्व उसी के धर्म या जाति वाला करे। दलित आज मायावती के नेतृत्व में विश्वास करके यह दु:ख झेल रहे हैं। पिछले 11 साल में उन पर जबर्दस्त अत्याचार बढ़े, सरकारी नौकरी नहीं निकाल कर उनका आरक्षण खत्म किया गया। और अब तो विश्वविद्यालय और दूसरे अच्छी पोस्टों पर नाट फाउंड सुटेबल ( एनएफएस) कहकर उनका अपमान भी किया जा रहा है। आप योग्य ही नहीं हो। सोशल मीडिया तो पूरा आरक्षण और आरक्षण प्राप्त वर्ग को गाली देने से भरा हुआ है।

दलित यह समझने लगा है कि अपने नेतृत्व के नाम पर मायावती या पासवान जैसों को चुनकर उसने कुछ भी हासिल नहीं किया है। कांग्रेस के नेता चाहे किसी जाति धर्म के हों दलित के साथ मजबूती से खड़े होते थे। गांधी नेहरू परिवार तो हर कमजोर के साथ हमेशा मजबूती से खड़ा होता रहा है। आज उस पर भाजपा मुस्लिम समर्थक होने का आरोप लगाती है। पहले दलित समर्थक होने का लगाती थी। बहुगुणा की तरह बाबू जगजीवन राम भी बाद में बीजेपी (जनता पार्टी) के साथ चले गए मगर पहले भाजपा को कांग्रेस से सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि उसने जगजीवन राम को बड़ा नेता बना दिया।

कयादत एक जज्बाती ख्वाब है जिससे मुस्लिम को कुछ हासिल नहीं होगा। हां भाजपा के धु्रवीकरण में यह सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाएगा। बिहार के बाद असम, बंगाल, केरल में विधानसभा चुनाव हैं। यह वे तीन राज्य हैं जहां मुस्लिम आबादी सबसे ज्यादा है। असम 34 प्रतिशत, बंगाल 27 प्रतिशत और केरल 26 प्रतिशत।

अगर बिहार में जहां मुस्लिम आबादी लगभग 18 फीसदी है वहां ओवैसी को जरा भी सफलता मिल गई तो वह इन तीनों राज्यों में अपनी कयादत का मुद्दा लेकर जाएंगे। और बीजेपी को मदद पहुंचाएंगे।

2020 के विधानसभा में महागठबंधन केवल 12 हजार वोटों से पीछे रह गया था। एनडीए और महागठबंधन दोनों को लगभग- लगभग 37 प्रतिशत वोट मिले थे। और सीटें भी केवल 12 एनडीए को ज्यादा मिली थीं। एनडीए 125 और महागठबंधन 110। और यह भी ध्यान रखें की 11 सीटों पर जीत-हार का अंतर हजार वोट से कम का था। और 52 सीटों पर पांच हजार से कम वोटों का।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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