सिर्फ संत नहीं, विचार के लिए समर्पित थे
देश के प्रख्यात समाजवादी विचारक सच्चिदानंद सिन्हा का दो दिन पहले 19 नवंबर को निधन हो गया

- बाबा मायाराम
सच्चिदा जी की विद्वता, गहन अध्ययन और चिंतन की तो कोई सानी नहीं है। पर उनका जीवन भी उतना ही सरल, आदर्श से परिपूर्ण, ईमानदार और प्रतिबद्ध था। उनके विचार व जीवन में कोई भेद नहीं था। सादगीपूर्ण व कम से कम दैनंदिन जरूरतें और दूसरों की चिंता करना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। सरल, शांत और निश्चल मुस्कान ही उनकी पहचान थी।
देश के प्रख्यात समाजवादी विचारक सच्चिदानंद सिन्हा का दो दिन पहले 19 नवंबर को निधन हो गया। वे 97 वर्ष के थे। उनका जाना एक बड़ी क्षति है। विशेषकर, उन सामाजिक कार्यकर्ताओं व लोगों के लिए जो विकल्प की खोज में हैं। उन्होंने अपना जीवन समाजवादी विचार निर्माण, लेखन और युवाओं के प्रशिक्षण के लिए समर्पित किया। वैकल्पिक दिशा देने में उनका योगदान अमूल्य है और वह सदैव ही याद किया जाता रहेगा।
मेरा उनसे परिचय 80 के दशक से था। इस दौरान कई बार उनसे मिलने और उन्हें सुनने का सौभाग्य मिला है। उनके साथ यात्रा की हैं, कुछ समय साथ गुजारा है। उनकी किताबें पढ़ीं हैं। वे एक ऐसे मौलिक विचारक थे, जिन्होंने न केवल देश-दुनिया के बारे में सोचा, विचारा और लिखा है, बल्कि आदर्शवादी जीवन भी जिया है।
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में उनका जन्म 30 अगस्त 1928 को हुआ। वे छात्र जीवन से ही समाजवादी विचारों की ओर आकृष्ट हो गए थे। महाविद्यालयीन पढ़ाई बीच में ही छोड़कर राजनैतिक कार्यकर्ता बन गए। बम्बई चले गए और वहां मजदूर आंदोलन से जुड़े। उन्होंने मजदूरों की तरह जीवन भी जिया। बम्बई में कई तरह के काम किए, मजदूरी की और रेलवे में खलासी और क्लर्क का काम किया। यहां उनका कई महत्वपूर्ण हस्तियों से परिचय हुआ, साथ मिला। उन्होंने डा. आंबेडकर के चुनाव में जिम्मेदारी भी निभाई।
सच्चिदा जी (सच्चिदानंद सिन्हा) को इसके बाद डॉ.राममनोहर लोहिया ने बुलाया और उनकी पत्रिका मैनकाइंड के संपादक मंडल से जोड़ लिया। इसके बाद सच्चिदा जी कुछ समय मुजफ्फरपुर के पास मणिका गांव में रहे। पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया और फिर दिल्ली चले गए। दिल्ली में करीब 18 साल रहे।
दिल्ली में उसी दौरान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ( जेएनयू) में पढ़ने वाले कुछ युवा भी संपर्क में आए। यह सभी युवा, समाजवादी चिंतक किशन पटनायक व समाजवादी विचारों से जुड़े थे। उनमें से एक सुनील भाई भी थे, जिनके साथ मैंने लम्बे समय तक काम किया है। सुनील भाई ने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ( नर्मदापुरम) जिले में आदिवासियों के बीच काम किया था।
इन दिनों मैं बरगढ़ ओडिशा में हूं, जहां लिंगराज भाई का निवास है। वे किसानों के नेता हैं। और लम्बे समय से पूरावक्ती सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे भी उन दिनों जेएनयू में अध्ययनरत थे। 20 नवंबर को किशन पटनायक की याद में बने समता भवन में सच्चिदानंद सिन्हा को श्रद्धांजलि अर्पित की गई। इस मौके पर लिंगराज भाई ने बताया कि सच्चिदा जी ने अपना पूरा जीवन सार्थक ढंग से जिया।
उन्होंने याद करते हुए कहा कि वे 80 के दशक को याद करते हुए बताते हैं कि दिल्ली में किराये के घर में रहते थे। यह बहुत मामूली घर था, जो छत पर था। सच्चिदा जी के पास कोई सामान नहीं था, स्टोव था, और कुछ बर्तन। स्टोव, मिट्टी तेल से जलता था। उसमें वे खाना पकाते थे। यहां वे बहुत ही सादगी से रहते थे।
वे आगे बताते हैं कि उनका एक ही काम हुआ करता था, पुस्तकालय जाना और पढ़ना और लिखना। इस दौरान उन्होंने कई किताबें लिखीं। वे ऐसे लेखक हैं, जो कई विषयों पर साधिकार लिखते हैं। शायद वे ऐसे अकेले ही ऐसे व्यक्ति होंगे जो इतने विविध विषयों के जानकार हों, उनके विद्वान हों। उनकी करीब दो दर्जन से ज्यादा किताबें हैं। वे हिन्दी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते थे। इन सभी का संग्रह राजकमल से प्रकाशित सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली में हुआ है, जो 8 खंडों में है। इसमें अंग्रेजी से अनूदित किताबें भी शामिल हैं। उन्होंने बताया कि सच्चिदा जी का योगदान विचार निर्माण और कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण में सदैव ही याद किया जाएगा।
लिंगराज भाई ने कहा सच्चिदा जी शारीरिक और मानसिक रूप से अंत तक सक्रिय रहे। देश-दुनिया की समस्याओं से जूझते रहे और वैकल्पिक दृष्टि से उनका विश्लेषण करते रहे। कुछ दिनों पहले ही उन्होंने सच्चिदा जी से मिलने के लिए मनिका गांव जाने की बात बताई थी, लेकिन अब यह संभव नहीं है।
सच्चिदा जी से मेरा परिचय सुनील भाई ने करवाया था। वे सच्चिदा जी से मिलने उनके गांव मणिका जाया करते थे। वहां से लौटकर सुनील भाई हमें सच्चिदा जी के बारे में बताया करते थे। वहां उन्होंने बहुत से पेड़-पौधे लगाए थे। हैंडपंप से पानी खींचकर खुद उनमें पानी देते थे। बौद्धिक कामों के साथ शारीरिक श्रम को भी वे महत्व देते थे। जैसा कि गांधीजी की सोच भी थी। गांधी की तो नई तालीम की सोच उत्पादक कामों से साथ शिक्षा देने से जुड़ी थी।
जब भी सच्चिदा जी मध्यप्रदेश इटारसी के पास केसला आते थे, तब मैं उनसे मिलने जाता था। 90 के दशक में मैंने केसला में ही पूरावक्ती कार्यकर्ता के तौर पर काम किया था, तब भी उनसे मिलना हुआ था। उसके बाद तो कई बार मिला। कार्यकर्ता शिविर और कार्यक्रमों में उनकी मौजूदगी गरिमामय होती थी। वे कार्यकर्ताओं के सवालों के जवाब देते थे। उनकी शंकाओं व दुविधाओं का समाधान करते थे।
सच्चिदा जी की विद्वता, गहन अध्ययन और चिंतन की तो कोई सानी नहीं है। पर उनका जीवन भी उतना ही सरल, आदर्श से परिपूर्ण, ईमानदार और प्रतिबद्ध था। उनके विचार व जीवन में कोई भेद नहीं था। सादगीपूर्ण व कम से कम दैनंदिन जरूरतें और दूसरों की चिंता करना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। सरल, शांत और निश्चल मुस्कान ही उनकी पहचान थी।
बरसों पहले एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने बताया था कि उन्होंने घर की बिजली कटवा दी है। इसका कारण उन्होंने बताया कि आमतौर पर बिजली देर रात को रहती है, वह उनके सोने का समय होता है। यानी बिजली के की उस समय जरूरत नहीं होती। वे उनका काम दिन में ही कर लेते थे। वे सालों तक फोन का भी इस्तेमाल नहीं करते थे।
सच्चिदा जी एक पुस्तक उपभोक्तावादी संस्कृति पर है। वे कहते थे यह संस्कृति चीजों की अंतहीन भूख जगाती है, वह नशे की तरह है। मनुष्य का जीवन भोग के लिए नहीं, विचार के लिए है। इसके अलावा, महानगरीय जीवन में एक और किताब है- जिंदगी सभ्यता के हाशिये पर, यह महानगरीय जीवन की समस्याओं की पड़ताल करती है।
सच्चिदा जी ने मौजूदा व्यवस्था को विषमता व आपस में कटुता बढ़ाने वाली बताया। वे मानते थे कि बुनियादी तौर पर सभी आदमी बराबर हैं, इसलिए समता, बराबरी का समाज होना चाहिए। मनुष्य का स्वार्थ भी एक है, इसलिए सबको मिलकर, मतभेद भुलाकर बेहतर दुनिया को बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए।
वे गांधी, जेपी, लोहिया की परंपरा के वाहक थे। 20 वीं और 21 वीं सदी के पुल थे। आजादी के आंदोलन से लेकर मौजूदा समय का इतिहास उनकी आंखों में पढ़ा जा सकता था। उनमें आर-पार देखने की दूरदृष्टि थी। धारा को मोड़ने व सोचने का माद्दा था। देश-दुनिया को देखने का वैकल्पिक नजरिया था। उनकी सोच में समाजवाद का एक देशज रूप था। एक गहरा आत्मविश्वास था, दुनिया को बदलने का।
वे कहते थे दुनिया को गांधी की ओर लौटना होगा। वे गांधी का प्रसिद्ध कथन याद करते थे कि इस धरती पर सबकी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन किसी के लालच के लिए नहीं। जो आज भी प्रासंगिक है। बहरहाल, सच्चिदानंद सिन्हा के विचार व जीवन दोनों की प्रेरणादायी हैं। क्या हम उनसे कुछ सीखना चाहेंगे?


