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समाचार मीडिया और गांधी

गांधी पाठकों से प्राप्त होने वाले पत्रों को न केवल समाचार पत्र में स्थान देते वरन पाठकों के पत्रों के आधार पर समाचार पत्र में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिए आलेख भी लिखते थे।

समाचार मीडिया और गांधी
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— राजेश बहुगुणा

गांधी पाठकों से प्राप्त होने वाले पत्रों को न केवल समाचार पत्र में स्थान देते वरन पाठकों के पत्रों के आधार पर समाचार पत्र में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिए आलेख भी लिखते थे। गांधी ने समाचार पत्र के सामाजिक क्लब बनाने का सुझाव दिया जिसमें एक समाचार पत्र से ही समाज के अनेक लोगों को समाचार पढ़ने में कोई आर्थिक बोझ नहीं हो सकता था। इसी तरह पढ़े-लिखे पाठकों को भी गांधी सामाजिक रूप से जिम्मेदार बनाते हुए यह सुझाव भी देते हैं कि वे निरक्षर लोगों को समाचार पढ़कर सुनायें और उन्हें जागरूक करें। आजादी की लड़ाई के दौरान जब कुछ अखबार साम्प्रदायिक तनाव बिगाड़ने की कोशिश कर रहे थे, उस समय गांधी पाठकों को यह भी चेतावनी देते हैं कि हिन्दू और मुसलमानों के खिलाफ जो कुछ लोग कहें उसे बिना जांचें हरगिज न माने।

समाचार पत्रों के माध्यम से ही गांधी सफल जन नेता के रूप में उभरे थे। दक्षिण अफ्रीका में समाचार पत्रों में प्रवासी भारतीयों के पक्ष में आवाज उठाने की कार्यवाही गांधी निरन्तर करते थे। समाचार पत्रों में पत्र लिखने के दौरान ही गांधी को भारतीयों की आवाज रखने के लिए अपने समाचार पत्र की जरूरत महसूस हुई जिसका परिणाम 'इंडियन ओपिनियन' समाचार पत्र था। दक्षिण अफ्रीका के आन्दोलन में इंडियन ओपिनियन समाचार पत्र की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका थी कि महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा और अपनी दूसरी पुस्तक 'दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास' दोनों ही में इंडियन ओपिनियन पर एक अध्याय लिखा। उन्होंने स्वीकार किया है कि इस अखबार के द्वारा मुझे मनुष्य के रंग-बिरंगे स्वभाव का बहुत ज्ञान मिला। संपादक और ग्राहकके बीच निकट का और स्वच्छ सम्बन्धं स्थापित करने की ही धारणा होने से मेरे पास हृदय खोलकर रख देने वाले पत्रों का ढेर लग जाता था । उसमें तीखे, कड़वे, मीठे यों भांति-भांति के पत्र मेरे नाम आते थे। उन्हें पढ़ना, उन पर विचार करना, उनमें से विचारों का सार लेकर उत्तर देना यह सब मेरे लिए शिक्षा का उत्तम साधन बन गया था। मुझे ऐसा अनुभव हुआ मानो इसके द्वारा मैं समाज में चल रही चर्चाओं और विचारों को सुन रहा होऊं। मैं संपादक के दायित्व को भली-भांति समझने लगा और मुझे समाज के लोगों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ, उसके कारण भविष्य में होने वाली लड़ाई संभव हो सकी, वह सुशोभित हुई और उसे शक्ति प्राप्त हुई।

दक्षिण अफ्रीका में अल्पसंख्यक भारतीयों के हितों के लिए दक्षिण अफ्रीका की उपनिवेशी रंगभेदी सरकार के खिलाफ गांधी ब्रिटिश सरकार के न्याय पर भरोसा कर रहे थे। भारत में इसी ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध गांधी की सीधी लड़ाई थी। प्रेस पर नियंत्रण का अनुभव गांधी को दक्षिण अफ्रीका में नहीं हुआ था। भारत में दक्षिण अफ्रीका की तुलना में अधिक शिक्षित एवं जागरूक भारतीयों को ध्यान में रखते हुये प्रेस पर नियंत्रण 18वीं सदी के अंत में ही प्रारम्भ हो गये थे किन्तु 1835 में मेटकॉफ ने भारतीय प्रेस को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद प्रेस पर सरकारी नियंत्रण भारतीय समाज के राजनैतिक जागरण के साथ बढ़ता ही गया। वायसराय कर्जन के बंगाल के विभाजन के निर्णय के खिलाफ व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन की परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने भारत में प्रेस पर नियंत्रण के कानूनों को कठोरता से लागू किया था।

भारत आने पर कुछ वर्षों तक गांधी ब्रिटिश सरकार से न्यायोचित व्यवहार की ही आशा कर रहे थे, लेकिन पंजाब में रॉलेट एक्ट और जलियांवाला बाग हत्याकांड ने ब्रिटिश सरकार के प्रति गांधी का दृष्टिकोण पूरी तरह बदल दिया। जनता को जागरूक करने में समाचार पत्रों की भूमिका दक्षिण अफ्रीका में ही अनुभव करते हुये गांधी ने भारत आने के कुछ वर्षों के भीतर ही 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' समाचार पत्र निकालना प्रारंभ किया कुलीन वर्ग में सीमित कांग्रेस के दरवाजे उन्होंने आम जनता के लिये खोल दिये। इसी भारतीय जनता को जागरूक करने में गांधी के सम्पूर्ण भारत में दौरे एवं भाषणों का असर तो था ही, लेकिन 'यंग इंडिया' एवं 'नवजीवन' ने भी बड़ी भूमिका निभायी थी।

अपने जीवन में चार समाचार पत्रों 'इंडियन ओपीनियन' यंग इण्डिया नवजीवन और हरिजन के संचालन एवं सम्पादन के दौरान गांधी ने सैकड़ों आलेख लिखे हैं। समाचार पत्रों के साथ उनके पचास वर्ष से भी अधिक के संबंध के दौरान लिखे गये इन आलेखों के माध्यम से गांधी ने मीडिया के प्रत्येक पक्ष पर न केवल अपने विचार रखे हैं, वरन इन वर्षों में समाचार पत्र के स्वामी, सम्पादक या पत्रकार के रूप में सत्ता एवं जनता के साथ उनके कार्य व्यवहार से समाचार मीडिया पर उनकी दृष्टि भी पाठकों को स्पष्ट हो जाती है।

गांधी के लिए समाचार पत्र सदैव आम जनता को शिक्षित करने और आम जनता अथवा पत्र के पाठकों के हित व दृष्टिकोण को सत्ता और सत्ता से जुड़े अन्य संस्थान के सामने रखना रहा। इसलिये गांधी जनता को सामाजिक, राजनीतिक एवं शैक्षणिक सभी स्तरों पर बेहतर एवं जागरूक करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील दिखते हैं। गांधी की यह स्पष्ट राय है कि अखबारों के माध्यम से ही शासन को जनता के अभिमत का पता चलता है और यदि समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लागू की जाती है तो फिर शासन केवल अपने अधीनस्थों की सूचना पर ही निर्भर रह जाएगा और वास्तविक जानकारी से अपरिचित रहेगा जो स्वयं शासन के लिए ही हितकर नहीं है। समाचार पत्रों की विश्वसनीयता के लिए गांधी स्पष्ट थे कि समाचार पत्र में सच्ची और विश्वसनीय खबरों को ही स्थान मिलना चाहिए। एक जगह उन्होंने यह भी कहा कि यदि खबर जिसे समाचार पत्र आवश्यकता पड़नेे पर स्वयं सिद्ध नहीं कर सकते लेकिन उनके अखबार में छपती है तो वह वास्तव में अपराध ही करते हैं। समाचार पत्र अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब ही बनाये रख सकता है जबकि किसी अन्य संस्था से प्राप्त होने वाली राशि पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हो इसलिए गांधी अखबारों को चलाने के लिए आय के स्त्रोत के रूप में विज्ञापनों का सहारा लेना उचित नहीं मानते। गांधी के अनुसार समाचार पत्र अपने पाठकों के नियमित ग्राहक शुल्क पर ही चलाया जाना चाहिए और यह समाचार पत्र के पाठकों की जिम्मेदारी है कि यदि वे अपने समाचार पत्र को पसंद करते हैं तो उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रखने के लिए नियमित रूप से ग्राहक शुल्क प्रदान करें।

गांधी को समाचार पत्रों पर सरकार की ओर से नियंत्रण का अनुभव भारत आकर ही हुआ था। भारत में समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिए मुम्बई में आयोजित एक विशाल सार्वजनिक सभा में गांधी ने प्रगतिशील राज्य के लिए स्वतंत्र सार्वजनिक पत्र की आवश्यकता स्पष्ट करते हुए अपने भाषण में कहा कि-'एक स्वस्थ और प्रगतिशील राज्य के लिए स्वतंत्र सार्वजनिक पत्रों का होना पहली आवश्यक शर्त है और यह बात सभ्य लोगों के उचित राजनीतिक और नैतिक विकास के लिए जरूरी है; एवं सार्वजनिक जीवन के समस्त क्षेत्रों में स्वतन्त्रता का प्रवेश और उसका कायम रखा जाना लोगों के उत्थान, और सन्तोष तथा सरकार और लोगों के पारस्परिक विश्वास की अचूक गारंटी है।'

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गांधी इतने उच्चतम स्तर तक रखना चाहते हैं कि उनके अनुसार- 'भाषण स्वातंर्त्य का मतलब तो यही है कि हमारे वचन कितने ही कठोर और चोट पहुंचाने वाले क्यों न हो, फिर भी उस स्वतन्त्रता पर आक्रमण न किया जाये।'

समाचार पत्रों की तरह ही गांधी सम्पादक पद को भी आजीविका के लिए नहीं बल्कि लोकसेवा के लिये मान्य करते हैं। गांधी सम्पादक को यह भी सलाह देते हैं कि विरोधी पक्ष को भी अखबार में स्थान दिया जाए। गांधी समाचार पत्र को लोकप्रिय बनाये रखने के लिये स्थानीय समाचारों को भी अखबार में रखने की सलाह देते हैं। गांधी विश्वसनीय खबरों को ही समाचार पत्र में स्थान देने के लिए जोर देते हैं और यदि खबर के कारण कतिपय पक्ष से निंदा अथवा शासन पक्ष से रोष की स्थिति भी हो तो सम्पादक को निर्भीक रहने की सलाह देते हैं। पत्रकारों की विषम स्थिति से भी गांधी अपरिचित नहीं हैं। एक जगह गांधी ने पत्रकारों की विषम स्थिति के संबंध में लिखा है कि-

'पत्रकार का जीवन कभी सुख-चैन का जीवन नहीं होता। उस पर वे जिम्मेदारियां होती है जिनका शायद जनता को समुचित खयाल भी नहीं होता। एक तरफ तो उसे अपने मालिकों को खुदा रखना पड़ता है और दूसरी ओर लोकमत का प्रतिनिधित्व करना होता है। ऐसा करने में उसे बड़ा त्याग करना पड़ सकता है। उसको अक्सर परस्पर विरोधी स्वाथों से निबटना पड़ता है और उसके सामने जो मामले आते हैं उन पर जनता के दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि अपने दृष्किोण से भी विचार करना पड़ता है और जब उसके अपने ही शुद्ध अन्त:करण से मान्य विचार किसी खास मामले में लोकमत के विपरीत होते हैं तब स्थिति बड़ी नाजुक हो जाती है।'

यह स्थिति आज भी समाचार मीडिया में अनुभव की जा सकती है। गांधी के साथ अनेक घटनाएं हुईं जिनमें पत्रकारों के द्वारा गांधी के कहे को उनकी भावना के अनुरूप प्रकाशित नहीं किया गया और गांधी को इसके लिए सफाई देना पड़ी। उस समय भी गांधी पत्रकारिता के गिरते स्तर से चिंतित थे और उनके अनुसार भारत में जिसे कोई दूसरा काम नहीं मिलता और थोड़ा भी पढ़ना लिखना जानता है, वह अखबार नवीसी करने लगता है। इसे आज भी अनुभव किया जा सकता है। गांधी देशी भाषा के समाचार पत्र एवं पत्रकारिता के सदैव पक्षधर रहे क्योंकि देशी भाषा को समझने वाले भारतीयों की संख्या अंग्रेजी समझने वालों की तुलना में बहुत अधिक थी और अखबार का उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना ही रहता है। गांधी के अनुसार पत्रकार की समाज में भूमिका जनता को सही दिशा की ओर ले जाना है हालांकि गांधी कतिपय पत्रकारों द्वारा पीत पत्रकारिता के अन्तर्गत झूठी शिकायतों के सहारे पैसा वसूलने की घटनाओं से भी परिचित थे। ऐसी पत्रकारिता से इससे बचने का एक ही उपाय गांधी बताते हैं कि ऐसे असत्य लेखों की कोई चिन्ता ही न की जाए। आजादी के समय बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव में पत्रकारों एवं समाचार पत्रों द्वारा असत्य खबरों के माध्यम से साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने को लेकर भी गांधी बहुत चिंतित रहे ।

गांधी पाठकों से प्राप्त होने वाले पत्रों को न केवल समाचार पत्र में स्थान देते वरन पाठकों के पत्रों के आधार पर समाचार पत्र में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिए आलेख भी लिखते थे। गांधी ने समाचार पत्र के सामाजिक क्लब बनाने का सुझाव दिया जिसमें एक समाचार पत्र से ही समाज के अनेक लोगों को समाचार पढ़ने में कोई आर्थिक बोझ नहीं हो सकता था। इसी तरह पढ़े-लिखे पाठकों को भी गांधी सामाजिक रूप से जिम्मेदार बनाते हुए यह सुझाव भी देते हैं कि वे निरक्षर लोगों को समाचार पढ़कर सुनायें और उन्हें जागरूक करें। आजादी की लड़ाई के दौरान जब कुछ अखबार साम्प्रदायिक तनाव बिगाड़ने की कोशिश कर रहे थे, उस समय गांधी पाठकों को यह भी चेतावनी देते हैं कि हिन्दू और मुसलमानों के खिलाफ जो कुछ लोग कहें उसे बिना जांचें हरगिज न माने। प्रेस की स्वतंत्रता बरकरार रखने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रेस का नियंत्रण किये जाने की स्थिति पर गांधी पाठकों को चलता-फिरता समाचार पत्र बनकर समाचार एक दूसरे को सुनाने की सलाह देते हैं। आजादी के बाद भी अखबार में साम्प्रदायिक सदभाव को बिगाड़ने वाली असत्य घटनाओं के प्रकाशन से चिंतित होकर गांधी पाठकों से यह अपील करते हैं कि-

'आज़ादी के जमाने में तो यह पब्लिक का फर्ज हो जाता है कि गन्दे अखबारों को न पढ़ें, उनकों फेंक दें। जब उन्हें कोई लेगा नहीं तो वे अपने-आप ठीक रास्ते पर चलने लगेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो अखबार अपना सच्चा धर्म का पालन करेंगे।'



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