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मुंबई ट्रेन धमाके : हाईकोर्ट ने खोली जांच की पोल

11 जुलाई, 2006 को शाम 6.23 से 6.29 के बीच मुंबई की उपनगरीय ट्रेन नेटवर्क में हुए सात सिलसिलेवार बम धमाकों में 187 की मौत हो गई थी और 824 लोग घायल हुए थे। रेल यात्री एक आसान लक्ष्य थे जिनके खिलाफ यह भयानक अपराध किया गया था

मुंबई ट्रेन धमाके : हाईकोर्ट ने खोली जांच की पोल
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- जगदीश रत्तनानी

एक बड़ी तस्वीर जो उभरती है वह असफल प्रशासन की है जो मजबूत आंतरिक और बाहरी जांच के अभाव में ढलान पर तेजी से फिसल रहा है, आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अंधा समर्थन कर रहा है जबकि असली आतंकवादी खुले में घूम रहे हैं और जो गलतियों को स्वीकार करने और सुधारने से इनकार कर रहा है। इससे भी बदतर, यह एक धर्मनिरपेक्ष गिरावट है। हम किसी एक पार्टी या सरकार को दोष नहीं दे सकते।

11जुलाई, 2006 को शाम 6.23 से 6.29 के बीच मुंबई की उपनगरीय ट्रेन नेटवर्क में हुए सात सिलसिलेवार बम धमाकों में 187 की मौत हो गई थी और 824 लोग घायल हुए थे। रेल यात्री एक आसान लक्ष्य थे जिनके खिलाफ यह भयानक अपराध किया गया था। भारत के व्यवसायिक केंद्र मुंबई में लोकल ट्रेनें शहर के उत्तर-दक्षिण गलियारे में एक दिन में 60 लाख से अधिक आम लोगों को ले जाती हैं। इन विस्फोटों ने शहर और देश को हिलाकर रख दिया था लेकिन एक अलग तरह का झटका 19 साल बाद लगा जब 21 जुलाई, 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट की एक डिवीजन बेंच ने फैसला सुनाया कि मामला प्रभावी ढंग से हल नहीं हुआ है और 'असली खतरा बड़े पैमाने पर बना हुआ है'। उच्च न्यायालय ने मामले के सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया। इनमें से पांच को निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी। अदालत ने अपने फैसले में मामले की गलत जांच के लिए पुलिस के खिलाफ कठोर टिप्पणियां की हैं।

जस्टिस अनिल किलोर और जस्टिस श्याम चांडक की खंडपीठ ने 667 पन्नों के फैसले की शुरुआत इन शब्दों से की- 'अपराध के वास्तविक अपराधी को दंडित करना आपराधिक गतिविधियों को रोकने, कानून के शासन को बनाए रखने और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में एक ठोस और आवश्यक कदम है। लेकिन आरोपियों को कटघरे में पेश कर किसी मामले को सुलझाने का झूठा आभास पैदा करना समाधान की भ्रामक भावना पैदा करता है। यह जनता के विश्वास को कम करता है और समाज को झूठा आश्वस्त करता है जबकि वास्तव में असली खतरा बड़े पैमाने पर बना हुआ है।'

वास्तव में न्यायाधीशों ने दर्ज किया कि अपराधी अभी भी खुलेआम घूम रहे हैं। हम नहीं जानते कि अपराध किसने किया। कुछ निर्दोषों को यातनाएं दी गईं और हत्यारों के रूप में पेश किया गया लेकिन विस्तार से बनायी गयी कहानी जांच में खरी नहीं उतरी।

बॉम्बे हाईकोर्ट की तीखी टिप्पणी न केवल जांच एजेंसियों के लिए शर्म और बदनामी की बात है बल्कि उसने ऐसे महत्वपूर्ण सवाल भी उठाए जो इस तरह के एक सुनियोजित, समन्वित एवं जघन्य अपराध की तह तक जाने के लिए जांच की गुणवत्ता या एजेंसियों और उनके नेतृत्व की क्षमता से परे है। उन्होंने पूरे जांच नेटवर्क की अखंडता पर सवाल उठाए जिसने कानून के लंबे हाथ का इस्तेमाल किया और उन आरोपों को दबाया जो ठोस रूप से खारिज कर दिए जाते हैं। हालांकि यह ज्ञात है कि पुलिस प्रणाली परिपूर्ण नहीं है और विशेष रूप से संवेदनशील जांच के मामलों में कानून की उचित प्रक्रिया और बारीकियां खिंच जाती हैं। इस बात को देखते हुए उच्च न्यायालय द्वारा दर्ज की गई टिप्पणियों में कानून के इस प्रकार के थोक उल्लंघन ने इस मामले में राज्य और उसकी एजेंसियों को एक नए धरातल पर खड़ा कर दिया है।

इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के बारे में राज्य की काफी स्वाभाविक और स्पष्ट प्रतिक्रिया रही है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तो इस हद तक इस फैसले पर रोक लगाने की मांग की कि यह फैसला वर्तमान में महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) के तहत अभियोजित अन्य मामलों की सुनवाई कर रही निचली अदालतों के समक्ष मिसाल के रूप में काम नहीं करेगा। उच्चतम न्यायालय के जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस एनके सिंह ने अपने आदेश में कहा कि बरी होने के बाद पहले ही रिहा किए जा चुके लोगों को जेल में डालने का सवाल ही नहीं उठता। हालांकि, न्यायाधीशों ने फैसला सुनाया कि 'कानून के सवाल पर विद्वान सॉलिसिटर जनरल द्वारा की गई प्रस्तुतियों को ध्यान में रखते हुए हम यह मानने के इच्छुक हैं कि विवादित निर्णय को किसी अन्य लंबित कार्रवाई में एक मिसाल के रूप में नहीं माना जाएगा इसलिए उस सीमा तक विवादित निर्णय के संचालन पर रोक रहेगी।

सुप्रीम कोर्ट को इस मामले पर विचार करने में कुछ समय लगेगा। इस दौरान इस बात के लिए पर्याप्त समय है कि उच्च न्यायालय के फैसले से कुछ सबक लिए जाएं जिसमें आंखें खोलने के लिए पर्याप्त सामग्री है। यदि जनता को यह विश्वास दिलाना है कि आतंकवादियों को सजा मिलेगी तो इसके लिए प्रशासनिक तंत्र के शीर्ष अधिकारियों के बीच आंतरिक आत्म-मंथन शुरू होना चाहिए और अभियानों की कुछ समीक्षा होनी चाहिए। इस मामले से पता चलता है कि किसी भी अपराध को हल करने में यातना के उपयोग सहित जांच के पुराने तरीके मदद नहीं करते हैं लेकिन वास्तव में उनका उपयोग जांच की पसंदीदा रेखा को आगे बढ़ाने के लिए किया जाता है क्योंकि असली अपराधी पहुंच से बाहर हैं।

बॉम्बे उच्च न्यायालय के शब्दों की गूंज जबरदस्त है। एक जगह जस्टिस ने कहा: आरोपी से कबूलनामे के लिए अपनाई गई पुलिस की बर्बरता और यातना के इस विस्तृत विवरण (फैसले के पिछले पैरा में वर्णित) को पढ़ना और कल्पना करना मुश्किल है; और अगर इसे सच और सही माना जाता है तो यह निश्चित रूप से अमानवीय, बर्बर और कठोर तरीकों को दर्शाता है। शिकायत में जिस तरह की यातना का जिक्र किया गया है, वह किसी की भी अंतरात्मा को झकझोर देगी। वर्णन से पता चलता है कि बताई गई घटनाएं अस्पष्ट व सामान्य नहीं बल्कि विवरण अर्थात तारीख, स्थान, अधिकारियों के नाम और यातना की प्रकृति के साथ हैं। अदालत ने फैसले में कहा कि, 'बर्बर और अमानवीय यातना' के इस विवरण की पुष्टि रिकॉर्ड पर मौजूद चिकित्सकीय साक्ष्यों से भी होती है। अन्य स्थानों पर अदालत ने पाया कि इकबालिया बयानों से अपराध के महत्वपूर्ण पहलुओं का खुलासा नहीं होता है, जैसे-1. बमों को किन कंटेनरों में पैक किया गया था 2. बमों में कैसे विस्फोट किया गया था 3. बमों को ट्रिगर करने के लिए किस उपकरण का इस्तेमाल किया गया था 4. डिवाइस कैसे सटीक रूप से सक्रिय हो गया और सबसे महत्वपूर्ण बात; 5. माहिम और बांद्रा स्टेशनों पर विस्फोट करने वाले बम किसने लगाए?

एक बड़ी तस्वीर जो उभरती है वह असफल प्रशासन की है जो मजबूत आंतरिक और बाहरी जांच के अभाव में ढलान पर तेजी से फिसल रहा है, आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अंधा समर्थन कर रहा है जबकि असली आतंकवादी खुले में घूम रहे हैं और जो गलतियों को स्वीकार करने और सुधारने से इनकार कर रहा है। इससे भी बदतर, यह एक धर्मनिरपेक्ष गिरावट है। हम किसी एक पार्टी या सरकार को दोष नहीं दे सकते- सभी एक ही नाव में सवार हैं और इस पतन में साझेदार हैं। धमाकों के बाद से महाराष्ट्र में विभिन्न दलों और सरकारों के तहत कुल 10 सरकारें रही हैं जिनमें दो बार केंद्रीय शासन भी शामिल है।

आखिरी बात, शॉर्टकट काम नहीं करते हैं। वे न्याय के लिए काम नहीं करते हैं। वे देश के लिए अहितकारी हैं। यह संदेश पुलिस बल को नीचे से ऊपर तक भेजा जाना चाहिए। इसके साथ ही उचित प्रक्रिया का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। जिस तरह कुछ वर्गों ने बरी किए जाने के खिलाफ आवाज उठाई है, उसी तरह जांच में गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ भी आवाज उठानी होगी। हमें वास्तविक दोषियों को खोजने के लिए कार्य करना चाहिए तथा उन सभी को दंडित करना चाहिए जिन्होंने मानदंडों का उल्लंघन किया है और हमें इस स्थिति तक पहुंचाया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट:द बिलियन प्रेस)


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