मोदी को उलटा पड़ा वंदे मातरम् पर बहस का दांव
राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम्' की रचना के 150 वर्ष पूरे होने पर सरकार की पहल पर संसद के दोनों सदनों में एक-एक दिन की विशेष बहस का आयोजन हुआ

- अनिल जैन
लोकसभा में बहस के दौरान विपक्ष ने ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से मोदी और उनकी पार्टी को यह भी बताया कि वंदे मातरम् के पहले दो छंदों को राष्ट्रीय गीत बनाने का फैसला किसी एक व्यक्ति ने नहीं बल्कि पांच लोगों की एक समिति ने लिया था जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और मौलाना आजाद शामिल थे।
राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम्' की रचना के 150 वर्ष पूरे होने पर सरकार की पहल पर संसद के दोनों सदनों में एक-एक दिन की विशेष बहस का आयोजन हुआ। सब जानते हैं कि यह गीत हमारे स्वाधीनता संग्राम के दौरान रचा गया था और यह देश भर में, खासकर बंगाल में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष कर रहे सेनानियों के लिए प्रेरणा स्रोत था। आजादी के आंदोलन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के अधिवेशनों में भी यह गीत गाया जाता था और देश आजाद होने के बाद इसे भारत की संविधान सभा ने राष्ट्रीय गीत के रूप में भी मान्यता दी। इसलिए इस पर चर्चा बहस करने-कराने का कोई औचित्य नहीं था। हां, इसके 150 वर्ष पूरे होने पर संसदीय बहस से इतर कोई कार्यक्रम जरूर हो सकता था, लेकिन सरकार का मकसद इस पर बहस के जरिये राजनीतिक लक्ष्य को साधना था, सो उसने तमाम ज्वलंत और जरूरी मुद्दों को दरकिनार कर वंदे मातरम् पर बहस कराई।
देश में पिछले कुछ दिनों से कई तरह के विवादों से घिरे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान के चलते अब तक 45 से ज्यादा बूथ लेवल अधिकारियों यानी बीएलओ सहित 70 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जा चुकी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपये की दुर्दशा के रोज नये रिकॉर्ड बन रहे हैं। दिल्ली सहित समूचा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र प्रदूषण की मार से गैस चैंबर बना हुआ है, जिससे लाखों लोगों के फेफड़े सड़ गए हैं। देश के तमाम हवाई अड्डों पर पांच दिन तक अफरा-तफरी मची रही और लाखों लोग परेशान हुए। गोवा के एक नाइट क्लब में आग लगने से 25 लोग जिंदा जल मरे; लेकिन इन तमाम मुद्दों को नजरअंदाज करते हुए देश की संसद में बहस हुई वंदे मातरम् पर।
दरअसल बिहार विधानसभा चुनाव में मिली भारी-भरकम जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी की निगाहें पश्चिम बंगाल पर है, जहां आगामी मार्च-अप्रैल में विधानसभा का चुनाव होना है। बिहार में चुनाव से पहले भी भाजपा के गठबंधन की सरकार थी और वहां उसे मिली जीत पर कई सवाल हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल का मैदान उसके लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है। उस चुनौती को आसान बनाने के लिए चुनाव आयोग तो अपने काम में जुटा ही है और मोदी भी अपने अभियान जुट गए हैं। इस सिलसिले में उन्होंने शुरुआत संसद से की है और मुद्दा बनाया वंदे मातरम् को।
अपने राजनीतिक फायदे के लिए धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतीकों का इस्तेमाल करने में नरेन्द्र मोदी का कोई सानी नहीं है। चूंकि वंदे मातरम् की रचना बंगाल की धरती पर हुई थी और उसके रचयिता थे बंगाल के कवि-उपन्यासकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय। उनके पांच छंदों वाले इस गीत के पहले दो छंदों को ही भारत के संविधान निर्माताओं ने आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय गीत की मान्यता दी है, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को उम्मीद थी कि वे संसद में बहस के दौरान इस गीत में कांट-छांट करने के लिए विपक्ष की, खास तौर पर कांग्रेस की घेराबंदी करते हुए अपनी पार्टी को देशभक्त और बांग्ला अस्मिता का पहरुआ साबित कर सकेंगे। लोकसभा में बहस की शुरूआत करते हुए मोदी और उनकी पार्टी ने यही करने की भरपूर कोशिश की लेकिन उनका यह दांव पूरी तरह उलटा पड़ गया।
नरेन्द्र मोदी वैसे तो अपने सभी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को अपने से दोयम मानते हैं और ऐसा वे समय-समय पर परोक्ष रूप से जताने की कोशिश भी करते हैं, परन्तु देश के पहले प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू से तो उन्हें सख्त नफरत है, जिसे वे खुलकर व्यक्त करने में कोई कोताही नहीं करते। वंदे मातरम् पर बहस के दौरान भी इतिहास संबंधी अपने अधकचरे ज्ञान का परिचय देते हुए उन्होंने नेहरू और कांग्रेस को निशाना बनाया और खूब अनर्गल आरोप लगाए। उन्हीं की देखा-देखी उनकी पार्टी के दूसरे वक्ताओं ने भी ऐसा ही किया।
दरअसल इतिहास संबंधी किसी भी मुद्दे पर बोलते वक्त मोदी को ऐतिहासिक तथ्यों से कोई मतलब नहीं रहता। चूंकि मीडिया लगभग पूरी तरह उनके ताबे में है, इसलिए उनसे कभी कोई सवाल नहीं करता है। सत्ता के बल पर अनैतिक तरीके से हासिल इस सुविधा का वे भरपूर फायदा उठाते हुए जो मन में आता है, बोल देते हैं। ऐसा ही उनकी पार्टी के दूसरे नेता भी करते हैं। वंदे मातरम् पर बहस के दौरान भी उन्होंने ऐसा ही किया। संभवत: विपक्षी नेताओं को मोदी के ऐसा करने का अंदाजा था, इसलिए वे पूरी तैयारी से सदन में आए थे। विपक्ष की ओर से तरुण गोगोई, प्रियंका गांधी वाड्रा, ए. राजा, महुआ मोइत्रा, अखिलेश यादव, असदउद्दीन ओवैसी आदि वक्ताओं ने ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के जरिये प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के बाकी नेताओं के तथ्यहीन भाषणों के धुर्रे बिखेर दिए।
ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है और इस बार भी जोरदार तरीके से हुआ। अपनी पार्टी को देशभक्ति का अकेला झंडाबरदार साबित करने के चक्कर में मोदी और भाजपा के दूसरे नेता अपने राजनीतिक और वैचारिक पुरखों के पापों का पिटारा खुलवा बैठे। विपक्षी वक्ताओं ने मोदी को याद दिलाया कि देश की आजादी की लड़ाई के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ब्रिटिश हुकूमत के सहयोगी बने हुए थे। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान जिस समय विभिन्न धाराओं के लोग महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के झंडे तले लाठी-गोली खा रहे थे तब आरएसएस और हिंदू महासभा ने अंग्रेजों की फौज में भारतीयों को भर्ती करने का अभियान चला रखा था और डेढ़ लाख भारतीयों को अंग्रेजों की फौज में भर्ती कराया था।
विपक्षी वक्ताओं ने मोदी और उनकी पार्टी को यह भी याद दिलाया कि भारत छोड़ो आंदोलन के समय सावरकर की हिंदू महासभा जिन्नाह की मुस्लिम लीग के साथ तीन प्रांतों- बंगाल, सिंध और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में साझा सरकार का हिस्सा बनी हुई थी। मोदी को यह भी याद दिलाया गया कि आरएसएस ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज मानने से इनकार किया था और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित 'जन गण मन' को ब्रिटिश शासक की स्तुति में लिखा हुआ बताते हुए उसे राष्ट्रगान मानने से इनकार किया था।
दरअसल मोदी और उनकी पार्टी को महात्मा गांधी और नेहरू का इस बात के लिए आभारी होना चाहिए कि उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान या आजादी के बाद भी कभी आरएसएस और हिंदू महासभा के नेताओं को 'गद्दार' या 'देशद्रोही' नहीं कहा। वे चाहते तो ऐसा कर सकते थे और लोग उन पर भरोसा भी कर लेते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो आरएसएस और भाजपा के लिए उस टैग को अपने गले से हटा पाना आज तक मुश्किल होता।
लोकसभा में बहस के दौरान विपक्ष ने ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से मोदी और उनकी पार्टी को यह भी बताया कि वंदे मातरम् के पहले दो छंदों को राष्ट्रीय गीत बनाने का फैसला किसी एक व्यक्ति ने नहीं बल्कि पांच लोगों की एक समिति ने लिया था जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और मौलाना आजाद शामिल थे।
मोदी को यह भी याद दिलाया गया कि ब्रिटिश हुकूमत ने 1936 में वंदे मातरम् का नारा लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया था और यह नारा लगाने वाले को कोड़ों की सजा दी जाती थी। मोदी से पूछा गया कि वे बताएं कि आरएसएस और हिंदू महासभा के कितने लोग वंदे मातरम् का नारा लगाते हुए जेल गए थे और उन्होंने सजा भुगती थी?
पूरी बहस के दौरान स्पीकर ओम बिड़ला की निष्पक्षता का पलड़ा हमेशा की तरह सत्ता पक्ष की तरफ़ ही झुका रहा। प्रधानमंत्री सहित सत्ता पक्ष के हर वक्ता के भाषण को उन्होंने मुग्ध भाव से सुना लेकिन विपक्ष के लगभग हर वक्ता के भाषण के दौरान उन्होंने टोका-टाकी करते हुए उनके भाषण की लय को बिगाड़ने की कोशिश की। इसके बावजूद विपक्षी वक्ता तथ्यों और तर्कों के जरिये सत्ता पक्ष को बगलें झांकने के लिए मजबूर करने में सफल रहे।
कुल मिलाकर आम बोल-चाल की भाषा में कहें तो वंदे मातरम् पर बहस में सरकार को लेने के देने पड़ गए। कहावत है कि मियांजी गए थे नमाज़ अदा करने लेकिन रोज़े गले पड़ गए। प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी ऐसा ही हुआ।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


