बिहार पर भाजपाई जीत का मतलब
भाजपा के स्टार प्रचारक और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी जनसभाओं में अक्सर एक वाक्य कहा करते हैं-बंटोगे तो कटोगे, एक रहोगे तो सेफ रहोगे

- अरविन्द मोहन
नतीजों के गणित से भाजपा भले सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन सीटों का सबसे ज्यादा लाभ जदयू को हुआ और चुनाव पूरी तरह नीतीश कुमार के नाम पर लड़ा गया। लेकिन नतीजे आते ही भाजपा बिहार जीतती लग रही है। सरकार पर उसके दबदबे से लेकर विपक्ष के ध्वस्त होने, जदयू के अंदर उसकी ज्यादा चलने और आगे की राजनीति में पक्ष-विपक्ष में कोई और प्रतिद्वंद्वी न दिखने से भाजपा बम बम है।
भाजपा के स्टार प्रचारक और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी जनसभाओं में अक्सर एक वाक्य कहा करते हैं-बंटोगे तो कटोगे, एक रहोगे तो सेफ रहोगे। यह बात वे हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण कराने और जातियों में बंटे हिन्दू समाज की जातिगत गोलबंदियों को तोड़ने के लिए कहा करते हैं। लेकिन बिहार विधान सभा के 2020 और 2025 के चुनाव के अनुभव पर यह बात ज्यादा अच्छी तरह लागू होती है। एनडीए नामक गठबंधन तब भी चुनाव में था और नीतीश कुमार भी साथ थे लेकिन राजद के नेतृत्व वाला विरोधी महागठबंधन बस किसी तरह हार पाया- अगर बेइमानी वाले आरोप भूल भी जाएं तो पूरे बिहार स्तर पर वोटों का अंतर मात्र कुछ हजार का था। तब स्पष्ट लगता था कि भाजपा बिहार जीतना चाहती है और नीतीश को किनारे बैठा देना चाहती है। उसने नीतीश के खिलाफ मीडिया से लेकर मुंहामुंही अभियान चलाया और शासन में ठीक-ठाक काम करके भी उनकी छवि अवांछित बूढ़े वाली हो गई थी। और इस काम में चिराग पासवान की खुली सेवाएं ली गईं जिन्होंने एनडीए में रहते हुए जदयू के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ लोजपा के उम्मीदवार उतारे थे और बुरी पराजय के बावजूद भाजपा से पुरस्कृत हुए। संयोग ऐसा हुआ कि रिजल्ट ऐसे आये कि नीतीश के बगैर काम नहीं चलने वाला था और फिर उन्होंने जो जो कहा भाजपा ने माना। इस बार एनडीए एक रहा और सेफ रहा। सम्राट चौधरी, दिलीप जायसवाल, संजय जायसवाल और मंगल पांडेय के खिलाफ प्रशांत किशोर के आरोपों के बाद पंगु बन गई भाजपा के लिए नीतीश की आड़ रही, चिराग अनुशासित रहे और एनडीए ने भारी जीत हासिल कर ली।
नतीजों के गणित से भाजपा भले सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन सीटों का सबसे ज्यादा लाभ जदयू को हुआ और चुनाव पूरी तरह नीतीश कुमार के नाम पर लड़ा गया। लेकिन नतीजे आते ही भाजपा बिहार जीतती लग रही है। सरकार पर उसके दबदबे से लेकर विपक्ष के ध्वस्त होने, जदयू के अंदर उसकी ज्यादा चलने और आगे की राजनीति में पक्ष-विपक्ष में कोई और प्रतिद्वंद्वी न दिखने से भाजपा बम बम है। यह चुनाव उसने बिना नेता, बिना कोई नया सामाजिक आधार जोड़े और सिर्फ संसाधनों तथा प्रबंधन के सहारे जीता। और संसाधनों मे कितना उसका अपना फंड था और कितना केंद्र सरकार का यह भी विवाद का मुद्दा हो सकता है। और जिस तरह से उसने चुनाव के पहले दर्जन भर योजनाओं में धन बढ़ाकर लोगों को अपनी तरफ मोड़ा वह शैली भी नीतीश कुमार की न थी। जदयू के अंदर भी भाजपा की तरफ रुझान रखने वाले नेताओं का दबदबा बढ़ा है। चुनाव लड़ा तो गया नीतीश कुमार के नाम पर लेकिन ठीक चुनाव से पहले केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ही नहीं जदयू नेता ललन सिंह ने भी कह दिया कि नेता विधायक दल में चुना जाएगा। मंत्रालयों के बंटवारे में भाजपा कोटे से ज्यादा लोग मंत्री बने और गृह मंत्रालय पहली बार नीतीश कुमार से छिना।
बिहार के नतीजों को लेकर विपक्ष अब देश और प्रदेश में एक नया ही मुद्दा उठाया जा रहा है-धांधली का। वह कहां तक जाएगा, कितना सही गलत है यह इस आलेख का विषय नहीं है। लेकिन जो साफ दिख रहा है वह यही है कि अब बिहार की सरकार ही नहीं राजनीति की पूरी डोर ही भाजपा के हाथ में आ गई है। और सम्राट चौधरी, विजय सिन्हा, मंगल पांडेय जैसों को मंत्री बनाकर भाजपा नेतृत्व ने साफ संकेत दिया है कि उसके लिए मनमानी करना ही सबसे कुशल प्रबंधन है। जिस तरह उसने चुनाव जीता है उसमें यह बात शामिल थी कि प्रबंधन और संसाधन से हम कुछ भी हासिल कर सकते हैं। इस बार न जाति का कार्ड चला न संप्रदाय का। और अगर पुराने फार्मूले की अभ्यस्त राजद या सामाजिक न्याय का नया चैंपियन बनाने में लगी कांग्रेस ने दुलारचंद यादव हत्याकांड के बाद जातिगत धु्रवीकरण करने की कोशिश की तो इस बार उसे भी भाजपा के कुशल रणनीतिकारों ने जंगल राज से जोड़कर यादव राज आने के डर में बदल दिया। यह डर अगड़ों में तो हुआ ही अति पिछड़ा, पिछड़ा(यादव के अलावा), दलितों और मुसलमानों में भी आ गया।
यह नया बिहार है और इसे बनाने का श्रेय भाजपा को दिया जाए न जाए लेकिन इसकी समझ अकेले उसके रणनीतिकारों को थी। बिहार में विकास की बयार बहती हो ऐसा नहीं है पर वह मण्डल-कमंडल की राजनीति से आगे आ चुका है यह कहने में हर्ज नहीं है। और इसकी समझ ज्यादातर राजनैतिक पंडितों को नहीं थी। इसी मामले में प्रशांत किशोर थोड़े अलग हंै लेकिन उनकी चुनावी लड़ाई की कमियों के बारे में बहुत कुछ कहना पड़ेगा। उन्होंने भी नई राजनीति की जमीन बनाने में एक भूमिका निभाई है। भाजपा की खूबी यह है कि सत्ता में होते हुए और संघ जैसे जड़ संगठन के साथ रहते हुए भी उसने मजे से अपने अंदर बदलाव किया। हिन्दुत्व का कार्ड मद्धिम पड़ता गया है और मोदी का मैजिक(जिनमें झूठा स्वर्ग दिखाने का खेल शामिल था) टूटते जाने के साथ उसने शासन और डायरेक्ट डिलीवरी का ऐसा दो आधार अपनाया है कि विपक्ष और उसकी सरकारों को दिक्कत होने लगी है।
मुख्य विपक्षी कांग्रेस समेत सारे विपक्ष को सचमुच बहुत कुछ नहीं सूझ रहा है। और कुछ न हो तो वोट चोरी या ईवीएम का मुद्दा उठाते रहने से उस सवाल का महत्व भी कम हुआ है। बिहार चुनाव के बाद एक बार फिर यही किया जा रहा है। संयोग से बंगाल, केरल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अभी चल रहे गहन मतदाता सर्वेक्षण में दिख रही कमजोरियों और विपक्ष के मजबूत दलों के भी शोर मचाने से यह मुद्दा जिंदा है। पर कांग्रेस और विपक्ष 2024 के लोक सभा चुनाव में मिले बेहतर परिणामों के बाद जिस कदर चुप रहा है और बिखरा है उसमें बिहार चुनाव नरेंद्र मोदी और भाजपा की राजनीति को चमकाएंगे क्योंकि अभी तक कभी हाथ न आया बिहार अब उनके हाथ आ गया है। फिर जिन राज्यों में कांग्रेस या विपक्ष की सरकारें हैं वहां शासन में साल-सवा साल में कुछ नया न कर पाने से भी 2024 में मद्धिम पड़ी मोदी राजनीति को लाभ हुआ है। बिहार के धक्के के बाद विपक्षी कैसे संभलता है और मोदी जी उसका कैसा उपयोग करते हैं इस पर सबकी नजर है। वे बंगाल की तरफ बढ़ने का इशारा लगातार दे रहे हैं। बंगाल में विपक्षी एकता शून्य है लेकिन तृणमूल ने अकेले भाजपा को बाहर रखा है। देखना है कि अब कैसी लड़ाई होती है।


