गुरु तेग बहादुरजी की शहादत ज़ुल्म के सामने मानव अधिकारों का फ़लसफ़ा और व्यवहार
गुरु तेग बहादुर, सिखों के नौवें गुरु हैं, जिन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए हिन्दू ब्राह्मणों के धार्मिक अधिकार की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी

- प्रो. सुखदेव सिंह
गुरु तेग बहादुर, सिखों के नौवें गुरु हैं, जिन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए हिन्दू ब्राह्मणों के धार्मिक अधिकार की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। असल में, उन का लेखन और व्यावहारिक जीवन सिख धर्म के संस्थापक, गुरु नानक के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है, जो कहते हैं कि उच्चतम शक्ति एक ही (एक ओंकार) जो बिना डर (निरभौ) और बिना दुश्मनी (निरवैर) है।
गुरु तेग बहादुर, सिखों के नौवें गुरु हैं, जिन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए हिन्दू ब्राह्मणों के धार्मिक अधिकार की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। असल में, उन का लेखन और व्यावहारिक जीवन सिख धर्म के संस्थापक, गुरु नानक के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है, जो कहते हैं कि उच्चतम शक्ति एक ही (एक ओंकार) जो बिना डर (निरभौ) और बिना दुश्मनी (निरवैर) है। इसलिए, इंसानों को दूसरों को न तो डराना चाहिए और न खुद में डर पालना चाहिये और न ही दुश्मनी पैदा करनी चाहिये। डर का ज़िक्र करते हुए, गुरु तेग बहादुर जी कहते हैं :
भय कहु को देत नहि, नहि भय मानत आन।
कहु नानक सुन रे मना, ज्ञानी ताहि बखान।
गुरु तेग बहादुर ने सिफ़र् दूसरों के लिए ऐसा ज्ञान नहीं लिखा, बल्कि दूसरों को डर और ज़ुल्म से बचाने के लिए निडर होकर आगे बढ़कर एक मिसाल कायम करने के लिए इसका पालन भी किया। जब कश्मीरी ब्राह्मणों का एक समूह गुरु तेग बहादुर के पास उस समय के मुगल शासक औरंगजेब के अधिकारियों द्वारा 'ज़बरदस्ती धर्म बदलनेÓ से बचने के लिए गया, तो गुरु तेग बहादुर ने यह ज़िम्मेदारी ली और उनसे कहा कि वह औरंगजेब के अधिकारियों को बता दें कि अगर तेग बहादुर इस्लाम कबूल कर लेंगे तो वह भी कर लेंगे।
इसके बाद, गुरु तेग बहादुर और उनके साथियों, भाई मति दास, भाई सती दास, भाई गुरदित्ता, भाई दयाल दास और भाई जैता को औरंगजेब के कहने पर आगरा के रास्ते दिल्ली लाया गया और गुरु तेग बहादुर से कहा गया कि वह तो कोई चमत्कार करें, वर्ना उन्हें इस्लाम अपनाना होगा। जब उन्होंने दोनों में से कोई भी बात मानने से मना कर दिया, तो औरंगजेब ने उन में डर पैदा करने के लिए गुरु के साथ आए उनके भक्त सिखों को बेरहमी से शहीद करने का आदेश दिया। भाई मति दास को आरी से दो हिस्सों में काटा गया; भाई दियाला को पानी से भरे एक बड़े बर्तन में ज़िंदा उबाला गया; भाई सती दास को रुई में लपेटकर आग लगा दी गई। लेकिन गुरु बिना किसी डर के शांत रहे, यह समझते हुए कि इंसान के शरीर की शुरुआत और अंत इसी दुनिया में है:
पांच तत्व को तन रचिओ, जान चतुर सुजान।
जिह ते उपजिओ नानका, लीन ताहि में मान।
नवंबर, 1675 में गुरु तेग बहादुर जी का दिल्ली में सिर काट दिया गया; बिना सिर उनके शरीर को एक सिख व्यापारी ने रुई से भरी अपनी गाड़ी पर रुई में लपेट लिया और अपने घर ले गया। वहां उसने अपने घर और गाड़ी को आग लगा कर गुरु के धड़ का अंतिम संस्कार किया, जबकि उनके सिर को भाई जैता, एक और सिख, आनंदपुर साहिब ले गये, जहां दसवें गुरु गोबिंद राय ने गुरु जी के सिर का अंतिम संस्कार किया। गुरु तेग बहादुर की शहादत और 'बिना डरे जियो और दूसरों को भी बिना डरे जीने दोÓ की सोच, इंसानी आज़ादी और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक उदाहरण रहेंगे। साथ ही, मानस शरीर, जो इसी दुनिया में मौजूद तत्वों से बना है, अन्तत: उन्हीं में बदल जायेगा का फ़लसफ़ा हमेशा सार्थक रहेगा।
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल,1621 को अमृतसर में छठे गुरु हरगोबिंद के घर हुआ। 1634 में सिखों और मुगलों के बीच लड़े गए करतारपुर के युद्ध में उनकी ज़बरदस्त बहादुरी और तलवारबाज़ी को देखते हुए, गुरु हरगोबिंद जी ने खुद उनका बचपन का नाम त्याग मल (बलिदान करने में काबिल) से बदलकर तेग बहादुर (बहादुर तलवारबाज़) कर दिया।
उन्होंने पढ़ना, लिखना, हिसाब-किताब, धर्म और संगीत की पढ़ाई की, साथ ही शारीरिक प्रशिक्षण लिया, घुड़सवारी और निशानेबाजी भी सीखी। बचपन में, त्याग मल गुरु हरगोबिंद के मीरी (ताकत) और पीरी (आध्यात्मिकता) के उसूलों से प्रेरित थे और अपनी मां, बीबी नानकी के शांत स्वभाव से भी प्रभावित थे। ग्यारह साल की उम्र में त्याग मल की शादी बीबी गुजरी से हुई। 1644 में गुरु हरगोबिंद के ज्योति ज्योत समाने के बाद, तेग बहादुर अपनी पत्नी गुजरी और माता नानकी के साथ करतारपुर से बकाला जा बसे, जहां से उन्होंने 1656 में तीर्थ यात्रा शुरू की और 1664 में दिल्ली होते हुए बकाला लौटे। दिल्ली में उनकी मुलाकात आठवें गुरु हरकिशन जी से हुई। उसी साल, गुरु हरकिशन जी दुनिया से चले गए। जैसे ही यह खबर फैली, गुरु हरगोबिंद के सबसे बड़े बेटे गुरदित्ता के सबसे बड़े बेटे धीर मल और कई और लोगों ने वारिस होने का दावा किया, लेकिन गुरु तेग बहादुर बेफिक्र और शांत रहे। इस बीच एक अमीर व्यापारी माखन शाह लुबाना - जिसने अपने डूबते जहाज़ को बचाने के लिए गुरु से प्रार्थना की और इस के सच होने पर सोने के 5सौ सिक्के चढ़ाने का संकल्प लिया। जब उस का जहाज सही सलामत वापस पहुंच गया तो वह अपना संकल्प पूरा करने के लिए बकाला पहुंचा।
परन्तु उसने पाया कि बकाला में बहुत सारे गुरु बैठे थे जिन में से हर कोई अपने आप को असली गुरु बता रहा था। ऐसे में वह उन सभी के पास गया, और हर एक को दो सोने के सिक्के भेंट कर दिए, जिन्हें एक को छोड़कर सभी ने चुपचाप स्वीकार कर लिया। परन्तु सब से अलग एक कोने में बैठे तेग बहादुर ने माखन शाह को याद दिलाया कि उसने दो नहीं, बल्कि 5सौ सोने के सिक्के देने का संकल्प किया था। इस पर, माखन शाह ने गुरु के चरणों में सिर झुकाया और खुशी और जोश में चिल्लाया-'गुरु लाधो रे!Ó, जिसका मतलब था कि उन्हें सच्चा गुरु मिल गया था। इस तरह तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु के तौर पर स्थापित हुए।
साज़िशों से बचने के लिए, नवंबर 1665 में, अपनी मां, पत्नी, अपनी पत्नी के भाई कृपाल चंद, दयाल दास, मति दास, सती दास और कुछ अन्य समर्पित अनुयायियों के साथ, वह गुरु नानक के दर्शन को फैलाने के लिए उत्तर और पूर्व में तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े। अलग-अलग जगहों से होते हुए, वह नवंबर 1666 में पटना पहुंचे जहां उनके बेटे और दसवें गुरु गोबिंद का जन्म हुआ।
इसके बाद, गुरु तेग बहादुर, राजा राम सिंह के साथ दक्षिण भारत और असम गए, जहां उन्होंने लगभग ढाई साल बिताए। वह अक्टूबर 1671 में पटना लौटे और वहां से वह कीरतपुर पहुंचे। फिर कीरतपुर से आठ किलोमीटर की दूरी पर, गुरु जी ने शिवालिक की तलहटी में सतलुज नदी के किनारे ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदा और अपना घर बनाया। उन्होंने अपनी मां के नाम पर उस जगह का नाम 'चक नानकीÓ रखा। यहां, गुरु साहिब को इतना कुदरती और दिव्य आनंद मिला कि उन्होंने इसका नाम बदलकर आनंदपुर रख दिया - मतलब 'हमेशा खुशी का शहर।Ó ये वो दिन थे जब पंजाब में औरंगज़ेब के अफ़सर हिंदुओं को इस्लाम अपनाने के लिये मजबूर कर रहे थे। गुरु तेग बहादुर ज़्यादा ताकतवर इंसानों द्वारा कमजोर इंसानों पर हो रहे ज़ुल्म से बहुत परेशान थे और उन्होंने इंसानों को अपना विश्वास खोने के दर्द से आज़ाद करने की कोशिश की। उन्होंने गांव वालों को सबसे बड़ी ताकत पर विश्वास के साथ मुश्किल समय का सामना बिना डरे करने के लिए प्रेरित करने के लिए दस महीने का लंबा दौरा किया। गुरु तेग बहादुर ने 15 रागों में 59 शबद और 57 श्लोक लिखे, जो पवित्र ग्रंथ 'गुरु ग्रंथÓ साहिब में अंकित किये गये हैं। उनकी रचनाएं दुनियावी ज़िंदगी जीते हुए दुनियावी बुराइयों से बचने के रास्ते बताती हैं।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर, गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर)


