कमार आदिवासियों की आजीविका
कुछ समय पहले मुझे छत्तीसगढ़ के राजिम-नवापारा में जाने का मौका मिला

- बाबा मायाराम
कमार, विशेष पिछड़ी जनजाति में से एक हैं। जो अब भी उनकी पारंपरिक जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं। यह आदिवासी गरियाबंद, छुरा और मैनपुर इलाके में पाए जाते हैं। इनका प्रकृति से गहरा जुड़ाव है और उसी पर इनकी आजीविका निर्भर है। जंगलों में कई तरह के कंद, चार, तेंदू, आंवला, महुआ और कई तरह की हरी भाजियां होती हैं। इसके अलावा वे बांस के बर्तन बनाते हैं और बेचते हैं।
कुछ समय पहले मुझे छत्तीसगढ़ के राजिम-नवापारा में जाने का मौका मिला। वहां मैंने सामाजिक कार्यकर्ता रामगुलाम सिन्हा से मुलाकात की। उन्होंने मुझे उनकी प्रेरक संस्था के क्षेत्र घुमाया और उनके काम को दिखाया। वे गरियाबंद के कमार आदिवासियों के बीच में लम्बे समय से काम कर रहे हैं। इस कॉलम में उनके काम की चर्चा करेंगे, जिससे यह समझा जा सके कि अगर किसी इलाके में लगातार काम किया जाए तो सामाजिक बदलाव संभव है।
कमार, विशेष पिछड़ी जनजाति में से एक हैं। जो अब भी उनकी पारंपरिक जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं। यह आदिवासी गरियाबंद, छुरा और मैनपुर इलाके में पाए जाते हैं। इनका प्रकृति से गहरा जुड़ाव है और उसी पर इनकी आजीविका निर्भर है। जंगलों में कई तरह के कंद, चार, तेंदू, आंवला, महुआ और कई तरह की हरी भाजियां होती हैं। इसके अलावा वे बांस के बर्तन बनाते हैं और बेचते हैं।
गरियाबंद, पूर्व में रायपुर जिले का हिस्सा था, अब स्वतंत्र जिला बन गया है। रामगुलाम सिन्हा स्वयं इसी इलाके के एक गांव के रहने वाले हैं। बचपन से उन्होंने इस इलाके को करीब से देखा है और इसी ने उन्हें समाज कार्य के लिए प्रेरित किया है। मैं उनसे 90 के दशक की शुरूआत से परिचित हूं, पर उनके काम को देखने का मौका कुछ समय पहले ही मिला।
गरियाबंद से लगे भिलाई गांव हमने उनके वसुंधरा केन्द्र को देखा, जहां देसी बीजों का संरक्षण व संवर्धन किया जाता है। उनके गुणधर्मों को पहचाना जाता है। प्रेरक संस्था ने यहां देसी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के लिए विशेष प्रयास किए हैं। संस्था के भिलाई गांव स्थित वसुंधरा केन्द्र में 350 देसी धान की किस्मों का संग्रह है। जिसमें लाल चावल, काले चावल और एक हरे चावल की किस्म है। इसके अलावा, इन किस्मों में कम पानी में पकने वाली, ज्यादा पानी में पकनेवाली, लंबी अवधि की माई धान, कम अवधि की हरूना धान इत्यादि शामिल हैं।
इन किस्मों में जवाफूल, विष्णुभोग, बादशाह भोग, सोनामासुरी, पोरासटका, साठिया, लायचा, डाबर, दूबराज, मासुरी इत्यादि है। इनमें कई किस्मों में औषधि गुण भी हैं। सुगंधित किस्में भी हैं।
जो परंपरागत देसी बीज लुप्त हो रहे हैं, यहां उनके संरक्षण और संवर्धन का काम किया जा रहा है। देसी धान की किस्मों में लोहादी, मासूरी, विष्णुभोग, श्यामभोग, लाल चावल, काला चावल जैसी कई विशेष गुणों वाली किस्में शामिल हैं। इसके अलावा, उड़द, मूंग, तिवरा, झुरगा और अरहर जैसी कई अनाजों की किस्में हैं।
इसके अलावा, वे धान की रोपाई मेडागास्कर पद्धति से करते हैं। इस पद्धति में खेतों में पानी भरने की जरूरत नहीं होती और बीज भी कम लगता है। इस पद्धति से फसल का उत्पादन दोगुना लिया जा सकता है, जिसे छत्तीसगढ़ में कुछ किसानों से हासिल कर लिया है। मिश्रित खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। बिना रासायनिक व बिना कीटनाशक की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है और यहां धान की हजारों प्रजातियां हैं। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश से मशहूर कृषि वैज्ञानिक डा. आर.एच. रिछारिया ने 17 हजार से अधिक देसी धान किस्मों को एकत्रित किया था। जिनमें अधिक उत्पादकता देने वाली, सुगंधित व स्वाद में बेजोड़ किस्में शामिल थीं।
डॉ. रिछारिया चावल की किस्मों के विशेषज्ञ थे। वे मानते थे देसी किस्मों को ही देश में धान की खेती की प्रगति का आधार बनाना चाहिए। उन्होंने पता लगाया था कि धान की किस्मों की विविधता का बहुत अमूल्य भंडार है। धान की विविधता जरूरी है क्योंकि विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल किस्मों को चुनकर उगाया जा सके। उनकी यह सोच आज जलवायु बदलाव के दौर में बहुत ही उपयोगी है।
यहां आसपास के गांवों में कमार आदिवासियों के घरों के आसपास जो खाली जगह होती है, प्रेरक संस्था ने उस पर बाड़ी ( किचिन गार्डन) को लगाने के लिए प्रोत्साहित किया है। मुझे उन्होंने कई गांव दिखाए, जहां बाड़ियों में कई तरह की सब्जियों और फलों की खेती की गई थी।
जिनमें बैंगन, मिर्ची, तुरई, करेला, कुम्हड़ा, करेला, बरबटी, डोडका, सेम और टमाटर लगाए थे। इन सबकी उनके पास कई किस्में हैं। इसके अलावा, नींबू, आम, जामुन, कटहल, महुआ और बांस को लगाया गया है।
रामगुलाम सिन्हा बताते हैं कि अब जंगल कम हो रहे हैं, और मौसम बदलाव भी हो रहा है। इस कारण जो कमार आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर रहते थे। वनोपज पर निर्भर रहते थे, उनमें कमी आई है। इसलिए किचिन गार्डन ( बाड़ियों में सब्जियां व अनाज) व मिश्रित जैविक देसी खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे उनकी आजीविका व खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है।
प्रेरक संस्था के सामाजिक कार्यकर्ता रामगुलाम सिन्हा बताते हैं कि हमारा उद्देश्य आदिवासियों के जीवन को बेहतर करना है। यहां कमार आदिवासी हैं, जिन्होंने बैगा आदिवासियों की तरह ही कभी स्थायी खेती नहीं की है, लेकिन बदलते समय में आजीविका के लिए यह जरूरी हो गया है। इसके लिए मिश्रित खेती और बाड़ी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। क्योंकि जंगलों से मिलने वाले खाद्य कंद-मूल, मशरूम और हरी पत्तीदार सब्जियों में कमी आ रही है।
उन्होंने बताया कि विशेष तौर पर कमार आदिवासियों के लिए आजीविका का काम किया गया है। इसके लिए देसी बीजों की खेती को सिखाया जा रहा है। क्योंकि कमार अब तक खेती से थोड़े दूर रहे हैं। उनके भोजन में पोषण हो, इसके लिए पौष्टिक अनाजों की मिश्रित खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिसमें कोदो, मड़िया, अरहर, अमाड़ी, झुरगा, मक्का, ज्वार, बाजरा आदि की खेती की जा रही है।
इसके अलावा, संस्था ने वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक अधिकार दिलवाने में मदद की है। इससे उनकी आजीविका में मदद मिली है। शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया जा रहा है। दृष्टिबाधित व दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा के आवासीय स्कूल भी है। इसके अलावा, एकल महिलाओं की मदद के लिए प्रयास किए गए हैं। स्थायी आजीविका के लिए भी लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। बुजुर्ग व्यक्तियों के लिए सियान सदन भी चल रहा है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि कमार आदिवासियों की जिनकी आजीविका जंगल पर निर्भर थी, मौसम बदलाव के दौर में इसमें दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, तब प्रेरक के काम से उन्हें आजीविका सुनिश्चित की गई है। उनकी थाली में पौष्टिक अनाज शामिल हुए हैं। इससे किसान स्वावलंबी बने हैं और उनकी खेती में लागत बहुत कम हो गई है। उन्हें देसी बीजों से स्वादिष्ट भोजन भी मिल रहा है। जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण भी हो रहा है। यह पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।


