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रचनात्मकता की मिसाल है लायब्रेरी

इस पूरी पहल से बच्चे एक-दूसरे से सीख रहे हैं, किताबों की दुनिया से परिचित हो रहे हैं, चित्र बनाना सीख रहे हैं

रचनात्मकता की मिसाल है लायब्रेरी
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  • बाबा मायाराम

इस पूरी पहल से बच्चे एक-दूसरे से सीख रहे हैं, किताबों की दुनिया से परिचित हो रहे हैं, चित्र बनाना सीख रहे हैं, उनमें रंग भर रहे हैं, पढ़ना-लिखना सीख रहे हैं, बच्चों में पढ़ने के प्रति रूचि बढ़ी है और लायब्रेरी के रूप में ऐसा स्थान उपलब्ध हुआ है जहां वे एक साथ बैठ सकते हैं, खेल सकते हैं, कुछ सृजन कर सकते हैं। कभी-कभी किताबों पर भी चर्चा कर सकते हैं। ऐसा स्थान लायब्रेरी के पहले उपलब्ध नहीं था।

मध्यप्रदेश के हरदा शहर में एक सचल पुस्तकालय है, जो गरीब बस्तियों में चलता है। हालांकि यह बहुत छोटी पहल है, पर कई सालों से चल रही है। मैं इसे देखने के लिए दो-तीन बार गया हूं। आज इस लायब्रेरी की कहानी बताना चाहूंगा।

किताबों से मेरा जुड़ाव लायब्रेरी के माध्यम से ही हुआ। हमारे गांव में स्थित स्वयंसेवी संस्था किशोर भारती में भी बहुत ही अच्छी लायब्रेरी थी। वहीं मैंने किताबों को उलटना-पलटना सीखा। वहीं किताबों की दुनिया से जुड़ा। इसके बाद इन्दौर नई दुनिया में जब मैंने काम शुरू किया, तो वहां भी समृद्ध लायब्रेरी थी।

इसके बाद मैंने जब देशबन्धु रायपुर में काम शुरू किया, तब वहां भी बहुत अच्छी लायब्रेरी थी। पुस्तकालय एक ऐसी खिड़की है, जिसमें चारों तरफ से ताजी हवा आती है। देश-दुनिया से जुड़ते हैं। हमारी परिधि भी बड़ी होती जाती है।

एकलव्य संस्था ने भी पुस्तकालय को बढ़ावा दिया है। हमारे कस्बे पिपरिया में भी एकलव्य का एक पुस्तकालय है। एक समय तो इस पुस्तकालय में काफी भीड़ होती थी। इस पुस्तकालय में सिर्फ किताबें ही नहीं है, बल्कि यह एक गतिविधि केन्द्र है। बच्चे यहां आते हैं और अलग-अलग तरह की गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं। विचार व साहित्यिक गोष्ठियां भी होती हैं।

किताबों के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत अच्छी दोस्त होती हैं। और एक ही किताब को दो लोग पढ़ते हैं, बातें करते हैं, तो उनमें भी दोस्ती हो जाती है। किताबों की दुनिया अलग होती है, वे हमें प्रेरणा देती हैं। अच्छा साहित्य हमें जीने की राह भी बताता है।

हरदा की लायब्रेरी का नाम है-चहक। लायब्रेरी के इस मिशन में एक छोटी सी टीम है। जिनमें दो शिक्षिकाएं शोभा वाजपेयी और सुनीता जैन। पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष व सामाजिक कार्यकर्ता हेमंत टाले और हरदा डाइट में पदस्थ व्याख्याता मनोज जैन। शोभा वाजपेयी, अब सेवानिवृत्त शिक्षिका हैं। शोभा वाजपेयी ने लायब्रेरी के इस काम में इंजन का काम किया। जब रेलगाड़ी में इंजन लग जाता है, तो डिब्बे जुड़ते जाते हैं। अब उनकी टीम में बस्तियों के महिलाएं और छात्राएं भी जुड़ गई हैं।

वर्ष 2013 में चहक की शुरूआत हुई। किताबें एकत्र करना शुरू किया। कु छ एकलव्य संस्था से, कुछ दोस्तों से, कुछ अपने घर से किताबें एकत्र कीं और कुछ किताबें खरीदी भी। किताबों की पहचान के लिए उन पर लगाने के लिए 'चहकÓ की सील बनवाई गई , बच्चों के बैठने के लिए दरी खरीदी गई। अब तक यह लायब्रेरी चार बस्तियों में फैल चुकी है।

शोभा वाजपेयी बताती हैं कि 'बाइक पर किताबों का झोला लिए मैं निकलती तो उधर अपनी गाड़ी से हमारी मित्र मंडली इमलीपुरा पहुंचती। कभी दरी पर बैठ कर तो कभी आस-पास से कुर्सी मांग कर तो कभी खड़े-खड़े बाइक से सहारा लेकर ही हम लोग किताबें बांटते। खड़े रहने की स्थिति तब बनती जब उन घरों में कोई नहीं होता या कुछ खास कार्यक्रमों से गहमा-गहमी रहती।

वे आगे बताती हैं कि 'मैं और सुनीता बच्चों को व्यवस्थित कर किताबें बांटते, हेमन्त भाई उनके साथ कुछ खेलकूद या गपशप करते और जैन सर किताबों पर बातचीत, फोटो वगैरह लेने आदि में व्यस्त रहते। एक-दो बार चित्रकला का आयोजन हुआ तो उसके बाद बच्चे हमसे काग़ज़ ले जाते और चित्र बनाकर लाते, इन चित्रों को जमा करना भी साथियों का एक काम हो गया।Ó

यहां सिर्फ स्कूल की तरह सब कुछ शब्दों से ही नहीं सिखाया जाता बल्कि चित्रकला, हाव-भाव के साथ कविता सुनाना, खेल-कूद करवाना और कहानी-कविता का नाट्य रूपांतरण आदि गतिविधियां भी होती हैं। यह लायब्रेरी के साथ गतिविधि केन्द्र भी है।

यह सही है कि बच्चों में किताबों को पढ़ने की रूचि उनकी स्कू ली किताबें पढ़ने तक सीमित हो गई है। किताबें समय मांगती हैं। लेकिन किताबों की दुनिया अलग है। जब बच्चे यहां रंग-बिरंगे चित्रों वाली किताबें पढ़ते हैं। कहानी और कविता पढ़ते हैं, उनके हाव-भाव देखते ही बनते हैं। दिल उछल जाता है। वे कहानी और कविताओं के माध्यम से एक अलग दुनिया की सैर करते दिखते हैं।

लेकिन डिजीटल व सोशल मीडिया एकतरफा है। इसकी सीमाएं हैं, कुछ देशों में इसे सीमित व नियंत्रित इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है, जिससे नई पीढ़ी पर इसका प्रतिकूल असर न हो।

इस छोटे कस्बे में जहां बस्तियों में सार्वजनिक स्थान नहीं है, वहां मिलने-जुलने और विचारों के आदान-प्रदान का मंच है। यहां बैठकर विभिन्न विषयों पर बात करते हैं। देश-दुनिया व ज्ञान-विज्ञान की दुनिया से रू ब रू होते हैं। वे अपने सवालों के जवाब खोजते हैं।

इस पहल में एक नया आयाम तब जुड़ा तब एक और शिक्षिका ने इन बच्चों के लिए नए-नए कपड़े सिलकर देना शुरू कर दिया। और यह भी जन सहयोग से ही। अपने और आस-पास के घरों में जो नए कपड़े हैं और जो इस्तेमाल नहीं में आ रहे हैं, उन्हें एकत्र कर बच्चों के लिए खासकर लड़कियों के लिए कपड़े फ्रॉक, स्कर्ट, टॉप आदि बनवाना और बच्चों में बांटना। वे सालों से ऐसा कर रही हैं, लेकिन अब लायब्रेरी के बच्चों के लिए भी कपड़े सिलकर देती हैं।

आजकल का मकसद कैरियर बनाना हो गया है। बच्चे कैरियर के बारे में सोचते हैं लेकिन इस व्यवस्था में कैरियर बनाना मुश्किल है। बच्चों व युवाओं की सारी शक्ति इसमें ही लग जाती है। कैरियर के चक्कर कांशियस (चेतना) भी खत्म हो जाती है। कैरियर कुछ का बनता है। कई इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं।

फिलट्रेट शिक्षा व्यवस्था सबको सब कुछ नहीं दे सकती है। इसमें कुछ का भाग्य चमक सकता है। हमें शिक्षा के सही मायने समझने होंगे। शिक्षा से दिमाग रोशन होता है। एक अच्छा इंसान बनता है। इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से बच्चे एक-दूसरे से सीख रहे हैं, किताबों की दुनिया से परिचित हो रहे हैं, चित्र बनाना सीख रहे हैं, उनमें रंग भर रहे हैं, पढ़ना-लिखना सीख रहे हैं, बच्चों में पढ़ने के प्रति रूचि बढ़ी है और लायब्रेरी के रूप में ऐसा स्थान उपलब्ध हुआ है जहां वे एक साथ बैठ सकते हैं, खेल सकते हैं, कुछ सृजन कर सकते हैं। कभी-कभी किताबों पर भी चर्चा कर सकते हैं। ऐसा स्थान लायब्रेरी के पहले उपलब्ध नहीं था। यही इस लायब्रेरी की उपयोगिता है। यह सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय पहल भी है।


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