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लालू का समय जंगल राज नहीं गरीब का जागृति काल था

बिहार में सुशासन की पोल खुल गई है। जिस दौर को जंगल राज कह रहे थे उसमें कभी इस तरह चुनाव के बीच में नेताओं की हत्या नहीं हुई थी

लालू का समय जंगल राज नहीं गरीब का जागृति काल था
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  • शकील अख्तर

दरअसल लालू के शासन ने गरीबों में आत्मविश्वास, स्वाभिमान का भाव भरा था। खटिया पर बैठने लगे थे। सामंतों से बेगार के लिए मना करने लगे थे। लालू-राबड़ी का दौर सामाजिक रूप से भारी उथल-पुथल का दौर रहा। गरीब ने सिर उठाया। और यही ताकतवर समुदाय को बर्दाश्त नहीं हुआ। जंगल राज वह नहीं था वह सामाजिक जागृति का काल था। असली जंगल राज तो लोग अब देख रहे हैं।

बिहार में सुशासन की पोल खुल गई है। जिस दौर को जंगल राज कह रहे थे उसमें कभी इस तरह चुनाव के बीच में नेताओं की हत्या नहीं हुई थी। मोकामा में दुलारचंद यादव की हत्या ने चुनाव का पूरा नरेटिव ( कहानी ) बदल दिया। हत्या में नामजद आरोपी और कुख्यात माफिया जिसे गोदी मीडिया छोटे सरकार कह रही थी अनंत सिंह को गिरफ्तार करना पड़ा। गिरफ्तारी से कुछ समय पहले ही वह कह रहा था ऐसी सौ एफआईआर मेरे खिलाफ हैं, मैं (गाली देकर) परवाह नहीं करता।

मगर चुनाव आयोग केन्द्र सरकार और राज्य सरकार सबकी समझ में आ गया कि यह चुनाव प्रचार के बीच में हुई हत्या उन पर भारी पड़ने वाली है। डेमेज कंट्रोल के लिए उन्हें अनंत सिंह को रातोंरात गिरफ्तार करना पड़ा। दुलार चंद यादव की हत्या अकेली नहीं थी। इसी दौरान आरा में बाप-बेटे प्रमोद कुशवाहा और प्रियांशु कुशवाहा की गोली मारकर हत्या की गई। इससे एक दिन पहले पुलिस दरोगा अनिरुद्ध कुमार की गला रेतकर हत्या की गई। महागठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने कहा कि एनसीआरबी के आंकड़ों के हिसाब से बिहार अपराध में शीर्ष पर है। उन्होंने बड़ी घोषणा करते हुए कहा कि हम 18 नवंबर को शपथ लेंगे। और 26 नवंबर से 26 जनवरी के बीच जाति धर्म की परवाह के बिना सब अपराधियों को जेल भेज दिया जाएगा। बिहार से अपराधियों का खात्मा हो जाएगा।

याद रहे चुनाव के इस घटनाक्रम से पहले राजधानी पटना में एक बड़े व्यवसायी गोपाल खेमका की हत्या कर दी गई थी। इस तरह की घटनाएं बिहार में लगातार हो रही हैं। मगर प्रधानमंत्री मोदी वहां प्रचार में कह रहे हैं कि जनता को जंगलराज और सुशासन में से चुनाव करना है।

कौन सा सुशासन? जहां सत्ताधारी पार्टी का उम्मीदवार दूसरी पार्टी के उम्मीदवार के मजबूत समर्थक नेता की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है! वह सुशासन है कि ऐसे लोगों को टिकट दिया जाता है। और गिरफ्तारी के बाद भी यह नहीं कहा जाता कि अब वह हमारा उम्मीदवार नहीं है। उम्मीदवारी वापस ली जाती है। नीतीश कुमार को एनडीए को यह घोषणा करना चाहिए। जंगल राज एक नरेटिव ( कहानी ) है। जब-जब कमजोर वर्ग की सरकार आती है इस तरह का प्रचार किया जाता है। सीधे सामाजिक ताकतों के हितों पर चोट पहुंचती है। लालू प्रसाद यादव से पहले कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने पर तो उन्हें गालियां दी गईं। मां को भी। और पिता को तो मारा पीटा गया।

अभी जब प्रधानमंत्री मोदी चुनाव प्रचार में कर्पूरी ठाकुर के गांव गए तो कांग्रेस ने पूछा कि जब कर्पूरी ठाकुर ने ओबीसी के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी तो उनके और परिवार के खिलाफ घृणा और अपमान से भरे नारे किसने लगाए थे? उनकी सरकार किसने गिराई थी? सब तो नहीं लिख सकते। मगर कुछ बता रहे हैं कि उस समय मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के लिए सामाजिक प्रभुत्व वाले लोग क्या कहते थे-

कर्पूरी कर्पूरा

छोड़ गद्दी पकड़ उस्तरा!

पेशे से वे उस समुदाय से आते थे जो हजामत बनाने का काम करते थे। उनके पिता से गांव के लोग बेटे के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी जबर्दस्ती यह काम करवाते रहे। एक बहुत दर्दनाक घटना है। जब पिता को खबर मिली कि बेटा मुख्यमंत्री बन गया है तो वे मिठाई बांटने लगे। लेकिन सामंतों को यह बिल्कुल पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा कि घर आओ बाल बनाओ।

खुशी के मौके पर जाने में थोड़ी देर हो गई तो मारा-पीटा गया कि औकात भूल गए। और जब पिछड़ों के आरक्षण की घोषणा की तो नारे लगाए-

आरक्षण कहां से आई

कर्पूरी की मां बियाई!

यथास्थितिवादियों के लिए ऐसे मुख्यमंत्री ऐसी सरकारें हमेशा से व्यंग्य हिकारत की पात्र रही हैं। मायावती जो आज यथास्थितिवादियों के साथ जा खड़ी हुईं हैं उन्हें तो क्या-क्या नहीं कहा गया। वे सामाजिक रूप से कर्पूरी ठाकुर की जाति से भी नीचे आती थीं। मगर सबसे ज्यादा तकलीफ इन्हें लालू के मुख्यमंत्री बनने से हुई। क्योंकि वे ऐसे समुदाय से आते थे जिनकी संख्या भी बिहार में अच्छी खासी थी। और जो सामाजिक रूप से भी कर्पूरी ठाकुर और मायावती की तरह दबे कुचले नहीं थे।

उन्हीं की सरकार को बदनाम करने के लिए जंगल राज का मुहावरा गढ़ा गया। सामाजिक ताकत जिन के हाथों में होती है वे पुलिस, प्रशासन, मीडिया, न्याय व्यवस्था सब जगह अपनी पैठ रखते हैं। नरेटिव वहीं से बनता है। चाहे जिसे चोर बना दें, चाहे जिसे साहूकार! अभी भी चोरी के साथ- जातिगत शब्द का प्रयोग किया जाता है ना! केवल उन्हें दबाने, अपमानित करने के लिए।

अभी गिरफ्तार अनंत सिंह जो गोदी मीडिया को दिन भर इंटरव्यू देकर चाहे जो बोल रहे थे उसने भी इस अपमानजनक भाषा चोरी- का प्रयोग किया। मीडिया को कोई आपत्ति नहीं हुई। और उसे क्या होती जो आज मायावती की ही नहीं हो रही है। जिन्हें दलितों ने सबसे ज्यादा समर्थन दिया। वे खामोश बैठी रहती हैं। या जब मौका मिलता है तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के खिलाफ बोलना शुरू कर देती हैं। बीजेपी सरकारों की तारीफ कर देती हैं। यह भूल जाती हैं कि बीजेपी की मध्यप्रदेश सरकार कानून व्यवस्था के नाम पर ग्वालियर हाई कोर्ट में डा. आम्बेडकर की प्रतिमा नहीं लगने दे रही हंै और जो इसका विरोध करते हुए आम्बेडकर को अंग्रेजों का गुलाम तक कह रहे हैं उनके खिलाफ एफआईआर होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। वे यह भी कह रहे हैं संविधान लिखने का झूठा श्रेय आम्बेडकर को दिया जाया है। वे कोई एक और नाम ढूंढ कर लाए हैं बीएन राव जो सवर्ण हैं कहते हैं -यह तो वही लिख सकते थे। और उस बात को फिर केन्द्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर भी कहते हैं। आम्बेडकर को जबर्दस्ती संविधान लिखने का श्रेय दिया गया। शब्द देखिए। जबर्दस्ती! यही नरेटिव होता है। यह भी चल जाएगा।

जंगल राज पटना हाई कोर्ट की एक मौखिक टिप्पणी है। और यह सीधे लालू के खिलाफ कभी नहीं थी। बल्कि जैसे आज दिल्ली और एनसीआर में भयानक प्रदूषण है। अभी बरसात में गुड़गांव की सड़कों पर जो पानी भरा था। वैसे ही 1997 में लालू यादव के इस्तीफे के बाद राबड़ी के शासन के दौरान मानसून के समय भारी बारिश से पटना में भरे पानी पर यह हाईकोर्ट की यह मौखिक टिप्पणी थी।

याद रहे किसी राजनीतिक मुकदमे या आपराधिक मामले में यह टिप्पणी नहीं आई थी। देश भर में इस तरह के जाने कितने मामले होते रहते हैं उसी तरह के मामले में थी। राज्य सरकार के बारे में बिल्कुल नहीं थी। पटना नगर निगम को कहा गया था। इसलिए 1997 में यह टिप्पणी आई और इसके बाद 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में लालू-राबड़ी फिर जीते।

मगर इस शब्द को बीजेपी नीतीश ने पकड़ लिया। और अभी इस चुनाव तक ऐसे उपयोग करते हैं जैसे लालू के खिलाफ कहा गया हो। यही गरीबों के खिलाफ सामाजिक ताकतों का नरेटिव है। मीडिया ने इसे आगे बढ़ाया।

दरअसल लालू के शासन ने गरीबों में आत्मविश्वास, स्वाभिमान का भाव भरा था। खटिया पर बैठने लगे थे। सामंतों से बेगार के लिए मना करने लगे थे। लालू-राबड़ी का दौर सामाजिक रूप से भारी उथल-पुथल का दौर रहा। गरीब ने सिर उठाया। और यही ताकतवर समुदाय को बर्दाश्त नहीं हुआ। जंगल राज वह नहीं था वह सामाजिक जागृति का काल था। असली जंगल राज तो लोग अब देख रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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