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कॉरिडोर में कृष्ण: 'कुंज गलियों' का पर्यटन

15 मई 2025 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को मथुरा के बांके बिहारी मंदिर के आसपास 5 एकड़ भूमि अधिग्रहित करने की अनुमति दी थी

कॉरिडोर में कृष्ण: कुंज गलियों का पर्यटन
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  • निशिता बनर्जी, कृषाणु और पवित्रा सी

ऐसे विवादित और साझा दावों वाली जमीन पर होने वाला यह अवसंरचनात्मक विकास तभी संभव हो पाता है जब शहरी विकास से जुड़ी संस्थाओं और योजनाओं के उद्देश्यों को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। यह विकास किसे चाहिए, इससे कौन विस्थापित होगा? और इसका लाभ किसे मिलेगा? जैसे बुनियादी सवाल पूछे ही नहीं जाते।

15 मई 2025 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को मथुरा के बांके बिहारी मंदिर के आसपास 5 एकड़ भूमि अधिग्रहित करने की अनुमति दी थी, ताकि 'कॉरिडोर विकास परियोजना' को आगे बढ़ाया जा सके। इस 'अवसंरचनात्मक परियोजना' को न्यायोचित ठहराने के लिए 2022 की भगदड़ में हुई मौतों का हवाला दिया गया, जिसका कारण 'अपर्याप्त बुनियादी ढांचा' बताया गया था।

तीर्थयात्रियों के अनुभव को बेहतर बनाने के उद्देश्य से, आजकल कॉरिडोर के रूप में धार्मिक स्थलों पर विकास परियोजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है, जो आधुनिकीकरण और आध्यात्मिकता का मिश्रण प्रस्तुत करती हैं। यह अक्सर स्थापित मानकों, नियमों और आवश्यकताओं को दरकिनार कर केवल हिंदू देवता के साथ एक प्रभुत्वशाली संपर्क रचने की मंशा से किया जाता है। सवाल है कि किस तरह 'पवित्र धार्मिकता' राज्य की शहरी-धार्मिक दृष्टि को वैध ठहराने के लिए इस्तेमाल की जाती है?

'बांके बिहारी कॉरिडोर' (बीबीसी) परियोजना, जिसे 2017 में योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल के दौरान 'ब्रज विकास तीर्थ परिषद' (यूपीबीडीटीपी) द्वारा प्रस्तावित किया गया था, राज्य की पवित्र भौगोलिक कल्पनाओं में आ रहे बदलाव का प्रतीक है। यह परियोजना 'काशी विश्वनाथ कॉरिडोर' की तर्ज पर तैयार की गई है और इसे मोदी सरकार की 'तीर्थ स्थलों का पुनरोद्धार और आध्यात्मिक संवर्धन योजना' (पीआरएएसएचएडी) में शामिल किया गया है।

यह 'कृष्ण सर्किट' का हिस्सा है, जो मथुरा, वृंदावन, गोवर्धन और बरसाना को जोड़ता है। इस परियोजना के तहत नई सरकारी संस्थाओं, योजनाओं और कार्यक्रमों का गठन तथा केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर की कई मौजूदा एजेंसियों की सक्रिय भागीदारी होना है। यह दिखाती है कि शहरी नियोजन और विकास की संस्थागत संरचनाओं को अब एक नई शैली की राज्य-प्रायोजित 'धार्मिक पर्यटन' नीति के तहत पुनर्परिभाषित किया जा रहा है।

कॉरिडोर परियोजना द्वारा किए गए वादे बेहद व्यापक हैं। इस योजना में वृंदावन की ऐतिहासिक 'कुंज गलियों' (जो बांके बिहारी मंदिर के आसपास स्थित हैं और जिन्हें लेकर मान्यता है कि कृष्ण कभी इनमें विचरण करते थे) को चौड़ा करने का प्रस्ताव है। योजना के अनुसार नए संपर्क मार्गों, व्यावसायिक कॉरिडोरों और पार्किंग हब के माध्यम से यमुना तट को मंदिर से जोड़ा जाएगा। कुल रुपए 600 करोड़ रुपयों की लागत से बनने वाली यह परियोजना 'बांके बिहारी मंदिर ट्रस्ट' की जमा राशि से वित्त पोषित की जाएगी। इसके चलते 300 से अधिक इमारतों को हटाया जाएगा, जिससे वर्षों से बसे स्थानीय निवासियों और दुकानदारों पर सीधा असर पड़ेगा।

परियोजना में स्थानीय पारिस्थितिकी को संरक्षित करने के लिए कदम और पारिजात जैसे देशी वृक्षों को शामिल किए जाने की बात कही गई है। हालांकि यह नजरअंदाज करना कठिन है कि प्रस्तावित योजना यमुना के बाढ़ क्षेत्र और तट पर निर्माण को सक्षम बनाती है। इसमें राजमार्गों और अपार्टमेंट परिसरों का एक विशाल नेटवर्क भी शामिल है, जैसे- 'राया हेरिटेज सिटी,' जिसे 'यमुना एक्सप्रेसवे इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी' द्वारा उपजाऊ कृषि भूमि पर विकसित किया जा रहा है।

यह एक पूर्ण स्थानिक पुनर्रचना की ओर इशारा करता है, जो 'स्मार्ट सिटी मिशन' के तहत संचालित हो रही है। यहां सरकार नागरिकों की बुनियादी जरूरतों और दैनिक जीवन की आवश्यकताओं के मुकाबले पुनर्विकास की रणनीतियों, बड़े अवसंरचनात्मक विस्तार और डिजिटल गवर्नेंस को प्राथमिकता देती है। इसके साथ ही जमीन की कीमतों में तेजी से वृद्धि होती है और बड़े शहरों व प्रवासी भारतीयों में देवता के पास दूसरा घर खरीदने की मांग बढ़ती है। इससे शहर में भूमि स्वामित्व का सामाजिक-आर्थिक ढांचा भी बदलता है।

बांके बिहारी मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से पहले कई समूहों और समुदायों की ओर से विरोध सामने आया था। स्थानीय निवासी, सेवायत (पुरोहित), दुकानदार और मथुरा की 'गोस्वामी समुदाय' की महिलाएं योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने खून से पत्र लिखकर वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर के चारों ओर प्रस्तावित कॉरिडोर का विरोध कर चुकी हैं।

यह विरोध मुख्य रूप से मथुरा और वृंदावन की सांस्कृतिक संरचना में किए जा रहे बदलावों के खिलाफ था, जिन्हें श्रद्धालुओं की अनुमानित भीड़ के अनुसार ढालने की योजना है। विशेष रूप से 'गोस्वामी समुदाय' का विरोध काफी तीव्र है, क्योंकि प्रस्तावित योजना के अनुसार मंदिर का स्वामित्व और प्रबंधन उनकी वंशानुगत परंपरा से लेकर ऐसे मंदिर ट्रस्ट को सौंपा जाना है, जो सनातन धर्म से जुड़े पदेन सरकारी अधिकारियों द्वारा संचालित होगा।

वर्ष 2022 में किए गए अध्ययन के दौरान हमने कई दुकानदारों से बात की, जिन्होंने 'बांके बिहारी कॉरिडोर परियोजना' से संभावित विस्थापन को लेकर अपनी चिंता जताई। उनका डर उस समय और गहरा गया जब उन्होंने देश के अन्य हिस्सों में हुए इसी तरह के कॉरिडोर प्रोजेक्ट्स का ज़िक्र किया, जैसे- 'काशी विश्वनाथ कॉरिडोर' जहां 300 से अधिक मकानों को तोड़ा गया था। उनकी मुख्य चिंता दस्तावेज़ों की अनिश्चितता को लेकर थी।

कई दुकानदारों ने आजीविका पर मंडराते खतरे की ओर इशारा करते हुए कहा, 'जिनके पास कागज़ात होंगे, उनको मुआवज़ा मिलेगा।' दरअसल अक्सर दुकान के मालिक और दुकान चलाने वाले अलग-अलग लोग होते हैं। एक अन्य दुकानदार ने कहा, 'यहां लोगों की पुश्तैनी ज़मीनें हैं, कहां से लाएंगे कागज़ात?' यह मथुरा और वृंदावन जैसे ऐतिहासिक शहरों में दस्तावेज़ों की कमी और ज़मीनी हक़ीक़त को उजागर करता है।

प्रदर्शनकारियों और न्यायालय के निर्णय के बीच का टकराव राज्य की एक महत्वपूर्ण मंशा को उजागर करता है। यह बाध्य करता है कि धार्मिक अवसंरचना का निर्माण और एक ऐसी नगरीय कल्पना संभव हो सके जो सवर्ण हिंदू आधुनिकता और सौंदर्यशास्त्र से संचालित होती है। परियोजना के दस्तावेज़ में जिस 'निर्बाध अनुभव' की बात की गई है, वही वह तरीका है जिससे श्रद्धालुओं को 'बांके बिहारी कॉरिडोर' का अनुभव कराया जाना है। जहां वर्तमान में मौजूद संकरी गलियों, घरों, दुकानों और पारंपरिक व असंगठित आजीविका, जैसे- रेहड़ी-पटरी वाले, दुकानदार, व्यापारी, कारीगर, विधवाएं और भिक्षुकों की दुनिया को हटाकर एक 'निर्बाध सौंदर्य अनुभव' में बदला जाना है।

इसका अर्थ है चौड़ी गलियों, एक्सप्रेसवे, मोटर वाहनों के लिए बने विस्तृत रास्तों, नए पार्किंग स्थलों, ग्रीनफील्ड एक्सप्रेसवे और बाढ़ क्षेत्र पर बने नदी तटों का निर्माण। ये सभी तत्व मिलकर एक नई राजनीतिक दिशा को जन्म देते हैं जहां वृंदावन को केवल एक भावनात्मक, जीवंत भू-दृश्य के रूप में नहीं, बल्कि एक साफ-सुथरी, उपभोग योग्य जगह के रूप में रूपांतरित किया जा रहा है।

ऐसे विवादित और साझा दावों वाली जमीन पर होने वाला यह अवसंरचनात्मक विकास तभी संभव हो पाता है जब शहरी विकास से जुड़ी संस्थाओं और योजनाओं के उद्देश्यों को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। यह विकास किसे चाहिए, इससे कौन विस्थापित होगा? और इसका लाभ किसे मिलेगा? जैसे बुनियादी सवाल पूछे ही नहीं जाते। इस पूरी प्रक्रिया में अंतिम प्रहार उस दिशा में होता है जहां एक धार्मिक, औद्योगिक तंत्र खड़ा करने की कोशिश की जाती है, जिसके तहत इन स्थलों के इतिहास और स्मृतियों को मिटाया और नए सिरे से लिखा जाता है।

( निशिता नोएडा स्थित एक क्षेत्रीय ओटीटी प्लेटफॉर्म में शोधकर्ता हैं। कृषाणु दिल्ली के 'पीपुल्स रिसोर्स सेंटर' में शहरी शासन और गतिशीलता के मुद्दों पर काम कर रहे हैं। पवित्रा बेंगलुरु में स्वतंत्र शोधकर्ता और लेखिका हैं।)


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