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जी राम जी या रोजगार गारंटी को जै राम जी

दुनिया भर की आर्थिक नीतियों और विकास पर नजर रखने वालों की यह चिंता मनरेगा के शुरुआती परिणामों और क्रांतिकारी स्वरूप को लेकर है

जी राम जी या रोजगार गारंटी को जै राम जी
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दुनिया भर की आर्थिक नीतियों और विकास पर नजर रखने वालों की यह चिंता मनरेगा के शुरुआती परिणामों और क्रांतिकारी स्वरूप को लेकर है। यूपीए सरकार द्वारा शुरू इस योजना को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले काफी कुछ कह चुके हैं लेकिन इसके लाभ को देखकर उन्होंने भी सत्ता में आने पर इसे हटाने की हिम्मत नहीं की। और जब करोना के लक्षण दिखते ही एक बार में राष्ट्रव्यापी लाकड़ाउन का जैसा गलत फैसला हो गया तब मनरेगा ने जिस तरह समाज के सबसे कमजोर समूह की मदद की उसे देखकर वे भी प्रभावित हुए और मनरेगा का बजट बढ़ा ही।

मात्र दो दिन के हंगामे या चर्चा के बाद जो बिल पास हो चुका है और जिस पर राष्ट्रपति के भी दस्तखत हो चुके हैं उसको लेकर अभी भी विपक्ष और 'षडयंत्रकारियों' को कोसना भी इस बात का प्रमाण हो सकता है कि सरकार ने मनरेगा के स्वरूप में जो बदलाव किए हैं उनके पीछे प्रशासनिक और वित्तीय मसलों के साथ राजनैतिक मसले भी जुड़े हुए हैं। और अगर यह बिल पेश करने वाले मंत्री शिवराज सिंह चौहान अभी भी इस पर राजनैतिक बयान दे रहे हैं तो यह भाजपा द्वारा अपनी चलाने और उसका राजनैतिक लाभ लेने का ही प्रमाण है। यह सही है कि संख्या-बल में हारा विपक्ष तो इस योजना से गांधी का नाम हटाने को मुख्य मुद्दा बना रहा है लेकिन दुनिया भर के प्रमुख अर्थशास्त्रियों समेत देश के बौद्धिक जमात में भी इसे लेकर बेचैनी जाहिर हो रही है, मनरेगा लाने के पीछे मुख्य शक्ति रहीं सोनिया गांधी और लगभग पूरा विपक्ष इसके खिलाफ ताल ठोंक रहा है तो एनडीए के घटक दलों से ही नहीं भाजपा के अंदर से भी कुछ असहमति के स्वर सुनाई दे रहे हैं। जोजेफ़ स्टिगलिट, थामस पिकेटी, जेम्स गालब्रेथ, इजाबेले फेरारेस, डेरिक हैमिल्टन, मारिआना मझाकूटो, इमरान वेलोडिया, रैंडल व्रे और पवलिना चेरनेवा जैसे ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्रियों ने साझा बयान जारी करके मनरेगा के स्वरूप में हुए बदलावों पर आपत्ति जताई है।

दुनिया भर की आर्थिक नीतियों और विकास पर नजर रखने वालों की यह चिंता मनरेगा के शुरुआती परिणामों और क्रांतिकारी स्वरूप को लेकर है। यूपीए सरकार द्वारा शुरू इस योजना को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले काफी कुछ कह चुके हैं लेकिन इसके लाभ को देखकर उन्होंने भी सत्ता में आने पर इसे हटाने की हिम्मत नहीं की। और जब करोना के लक्षण दिखते ही एक बार में राष्ट्रव्यापी लाकड़ाउन का जैसा गलत फैसला हो गया तब मनरेगा ने जिस तरह समाज के सबसे कमजोर समूह की मदद की उसे देखकर वे भी प्रभावित हुए और मनरेगा का बजट बढ़ा ही। इधर फिर से मनरेगा उपेक्षित होने लगा था और उसकी गलतियों और कमियों पर तो ध्यान नहीं ही दिया जा रहा था, उसमें घोटाले बढ़े थे और किसी मामले में दोषियों को सजा देने का काम नहीं हुआ। मजदूरी देने में भी बहुत देरी होने से उसका असली मकसद ही खत्म हो रहा था। लंबे अनुभव से कुछ बदलावों की जरूरत मानी जा रही थी। नए कानून में रोजगार के दिनों की संख्या सौ से बढ़ाकर सवा सौ और खेती के समय दो महीने मनरेगा के काम बंद रखने जैसे दो बदलावों को आप इस श्रेणी में रखना चाहें तो रख सकते हैं लेकिन जैसा कानून बना है उसमें तो पूरी योजना ही हाशिये पर आ जाएगी, फिर ये सुधार किस काम के होंगे।

बीस साल पहले जब महाराष्ट्र के छोटे अनुभव को आधार बनाकर देश भर के लिए रोजगार गारंटी का कानून बना तो दुनिया का ध्यान उसकी तरफ लगा हालांकि तब भारत विश्व गुरु होने का दावा नहीं करता था। लंबी सार्वजनिक और संसदीय चर्चा के बाद यह कानून बना था। संसदीय समिति तो भाजपा के नेता कल्याण सिंह की अगुवाई वाली थी और इसमें भी सर्वसम्मति बनी थी। तब भी इसके खर्च और लाभ को लेकर इसका विरोध करने वाले थे लेकिन मुख्यत: यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी के अड़े रहने से यह कानून बना। इसके बाद ही शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और सूचना का अधिकार जैसे अधिकार आधारित कानून बने। जब पाँच करोड़ सबसे गरीब परिवारों को 200 करोड़ कार्यदिवस का रोजगार दिया गया तो दुनिया भर में इसकी धूम मची क्योंकि इस पैमाने पर गरीबों को सीधी मदद और गाँव तथा पिछड़े इलाके में उपयोगी सामाजिक परिसंपत्तियों के निर्माण की ऐसी कोई योजना तब तक विश्व में कहीं भी नहीं चल रही थी। रोजगार की गारंटी का पक्ष तो विलक्षण था ही, इसमें आधे से ज्यादा कामगार महिलाएं थी, दलितों और आदिवासियों का अनुपात चालीस फीसदी था। कुंआ, तालाब, सड़क, फलदार पेड़, छोटे बांध जैसी परिसंपतियों का निर्माण और जीर्णोद्धार गांवों की सहमति से हुआ तो उसका लाभ उनको लगातार हुआ। प्रशासनिक खर्च पांच फीसदी से भी कम था। रोजगार और परिसंपत्तियों के निर्माण के साथ तीसरा और सबसे बड़ा लाभ यह हुआ की ग्रामीण क्षेत्र में औसत दिहाड़ी मजदूरी बढ़ गई। सैकड़ों अध्ययनों से इनके लाभ ही जाहिर हुए। कुछ कमजोरियां भी दिखीं और कुछ नए सुझाव भी आये जिनहे लागू करना मुश्किल न था। खर्च भी हर अनुमान से नीचे रहा -जीडीपी के एक फीसदी से कम।

जब तक सोनिया गांधी ने अलग से वीडियो जारी करके अपने इस प्रिय कानून को बचाने के लिए संघर्ष की घोषणा नहीं की तब तक कांग्रेस और विपक्ष के विरोध का मुख्य मुद्दा इस योजना से महात्मा गांधी का नाम हटाने और अंग्रेजी-हिन्दी के लंबे और ऊटपटांग नाम से बनाए गए 'जी राम जीÓ ही बनता दिख रहा था। वे इसके सामाजिक, आर्थिक और अन्य पक्षों को भूल से गए लगते थे। भाजपा के गांधी विरोध और राम जी प्रेम की राजनीति अनजानी नहीं है। लेकिन बिल के स्वरूप के बदलाव से पीछे ज्यादा बड़े कारण है। राज्यों से बिना चर्चा उन्हें ही रोजगार का गारंटर बनाया गया है लेकिन पैसा देना न देना केंद्र के विवेक पर निर्भर कर दिया गया है। इससे ज्यादा परेशानी का सवाल धन और खर्च का है जिसमें पहले राज्यों का हिस्सा दस फीसदी था तो अब चालीस फीसदी हो गया है। इस योजना की जरूरत सबसे ज्यादा गरीब राज्यों को है लेकिन संसाधन जुटाने के बोझ में उनको कोई रियायत नहीं मिली है। अब अगर वे चालीस फीसदी खर्च के डर से आगे नहीं बढ़ेंगे तो केंद्र वैसे ही हाथ धोकर किनारे खड़ा हो जाएगा। केंद्र के विवेक के और भी विषय हैं तो राज्यों पर जिम्मेवारियों के सारे बोझ हैं। रोजगार देना, बेरोजगारी भत्ता देना, देर से मुगतां पर क्षतिपूर्ति देना और पर्याप्त फंड का इंतजाम जैसे सारे बोझ राज्यों के सिर मध दी गए हैं और उनसे कोई चर्चा नहीं हुई है।

अब भाजपा शासित राज्यों में तो ज्यादा नाराजगी नहीं दिखती लेकिन विपक्ष शासित राज्य पहले से परेशान हैं। पश्चिम बंगाल को तो पिछले तीन साल से मनरेगा के लिए ही कोई धन नहीं मिला है। कांग्रेस और विपक्ष शासित राज्यों की तरफ से उलटी प्रतिक्रिया आने लगी है तो एनडीए शासित राज्यों से भी असहमति के स्वर सुनाई दे रहे हैं। खुद भाजपा के कई लोग ने प्रावधानों को लेकर सशंकित हैं। पर बिहार चुनाव जीतने के बाद सरकार जिस मूड में आ गई है उसमे ऐसी असहमतियों की कोई परवाह नहीं दिखती। श्रम कानूनों को हटाकर विवादास्पद संहिताऐं लाना, निजी क्षेत्र के लिए एटमी क्षेत्र खोलना, बीमा क्षेत्र में शत प्रतिशत विदेशी पूंजी को अनुमति देना, विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत आने, आनलाइन गेमिंग कानून में बदलाव और प्रस्तावित बीज कानू वगैरह यही बताते हैं कि सरकार एकदम मनमानी पर आ गई है।


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