Top
Begin typing your search above and press return to search.

क्या नक्सलवाद का यह समाधान आधा-अधूरा है

देश के अंदर किसी भी व्यक्ति या संगठन की ताकत शासन और व्यवस्था को चुनौती देने वाली नहीं होनी चाहिए

क्या नक्सलवाद का यह समाधान आधा-अधूरा है
X
  • अरविन्द मोहन

देश के अंदर किसी भी व्यक्ति या संगठन की ताकत शासन और व्यवस्था को चुनौती देने वाली नहीं होनी चाहिए। और अगर किसी इलाके में वीरप्पन का तो कहीं किसी नक्सल समूह या संविधान में आस्था न रखने वाले अलगाववादी समूह का 'राज' चलता रहा है तो वह या तो शासन की कमजोरी थी या उसकी तरफ से ढील का उदाहरण। कई बार लोकतान्त्रिक शासन में इस तरह के ढील की भी जरूरत होती है और समय तथा अवसर देखकर उस नाराजगी को संभाल लिया जाता है। लेकिन साठ के दशक के अंत से कम्युनिष्ट आंदोलन का एक समूह हथियारबंद क्रांति करके सत्ता छीनने और कम्युनिष्ट राज कायम करने के सपने के साथ निरंतर सक्रिय है।

आम तौर पर आलोचना का शिकार बनने वाला गृह मंत्रालय अगर नक्सल समस्या को निपटाने की अपनी ताजा मुहिम के चलते तारीफ पा रहा है तो वह और उसके निर्देश पर काम करने वाली सुरक्षा एजेंसियों के लोगों को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। अभी गृह मंत्रालय द्वारा तय डेडलाइन आने में पाँच-छह महीने का वक्त है और नक्सल प्रभाव वाले इलाकों में उल्लेखनीय कमी आ गई है। नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 18 से घटकर 11 होना इस कमी को ढंग से नहीं बताता क्योंकि अब उन 11 जिलों में भी उनका दम काफी कम रहा गया है और उनका कैडर मैदान छोड़ने की ऊहापोह वाली अवस्था में है या मारा गया है। सरकार ने सख्ती के बाद सरेंडर का सही विकल्प रखा तो शीर्ष नेतृत्व समेत बड़ी संख्या में हथियारबंद कैडर ने आत्मसमर्पण किया। यह अनुमान है कि हाल में मारे गए या समर्पण वाले नेताओं के अलग होने के बाद भाकपा (माओवादी) के पॉलित ब्यूरो के सिर्फ तीन ही सदस्य बच गए हैं जिनमें एक उम्र और बीमारी के चलते निष्क्रिय हैं। केन्द्रीय समिति के भी आठ या नौ सदस्य ही सक्रिय हैं। कभी पॉलिट ब्यूरो में एक दर्जन से ज्यादा सदस्य थे और सेंट्रल कमेटी में 40 से 45.

देश के अंदर किसी भी व्यक्ति या संगठन की ताकत शासन और व्यवस्था को चुनौती देने वाली नहीं होनी चाहिए। और अगर किसी इलाके में वीरप्पन का तो कहीं किसी नक्सल समूह या संविधान में आस्था न रखने वाले अलगाववादी समूह का 'राज' चलता रहा है तो वह या तो शासन की कमजोरी थी या उसकी तरफ से ढील का उदाहरण। कई बार लोकतान्त्रिक शासन में इस तरह के ढील की भी जरूरत होती है और समय तथा अवसर देखकर उस नाराजगी को संभाल लिया जाता है। लेकिन साठ के दशक के अंत से कम्युनिष्ट आंदोलन का एक समूह हथियारबंद क्रांति करके सत्ता छीनने और कम्युनिष्ट राज कायम करने के सपने के साथ निरंतर सक्रिय है। इसमें भी टूट-फुट हुई और बिखराव आया लेकिन नेपाल से लेकर दक्षिण तक के आदिवासी और वन प्रदेशों वाली पट्टी से बने दंडकारण्य (काल्पनिक) वाले इलाके में नक्सली समूह जमे रहे हैं। बिहार, बंगाल, असम, ऑडिसा, छतीसगढ़, आंध्र, महाराष्ट्र के साथ ही पूर्वोत्तर और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाके इनके प्रभाव में थे। यहां की दरिद्रता और लूट उनके लिए आधार बनाने का काम करते हैं तो गहरे गहने जंगल और फौज-सेना की आवाजाही के लिए मुश्किल भौगोलिक बनावट हथियारबंद दस्तों के छुपने और काम करने का।

अब यहां ज्यादा विस्तार से चर्चा का मतलब नहीं है कि हिंसा के सहारे राज्य सत्ता हासिल करने का जो सपना हमारे नक्सली समूह देखते और दिखाते रहे हैं वह एक असंभव ही स्थिति है। भारत जैसे विशाल और विविधताओं भरे समाज में इस तरह से सत्ता हासिल करना मुश्किल है। इससे भी बड़ी बात यह है की वे जिस विकास और स्वर्ग की कल्पना करते रहे हैं उसका भी रूप दुनिया ने देखा और विदा किया है। समाज और मनुष्य जाति के बुनियादी स्वभाव से भी इस तरह की क्रांति का रास्ता मुश्किल है। और फिर जिस विकास की वे कल्पना करते रहे हैं वह खुद से समानता पर आधारित नहीं है। पार्टी संगठन से लेकर शासन का स्वरूप और कारपोरेट विकास के माडल में एक निश्चित श्रेणीबद्धता है और उसके बगैर काम नहीं चलता। फिर हमारे नक्सली समूहों को गाँव में या जंगल के इलाके में मुश्किल से अपना गुजर करने वाले 'जमींदार; और 'महाजन' तो वर्ग शत्रु दिखते थे लेकिन शहरी अमीर और कारपोरेट घरानों की पूंजी और ताकत दिखाई नहीं देती थी। बल्कि की जंगली इलाकों में यह भी सुना गया कि बड़े कारपोरेट हाउस वाले अपने वहां के प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए कंपनियों से नियमित रकम दे करके उनको काम करने देते थे और इस प्रकार उसी पूंजी से समाजवादी क्रांति करने का सपना देखते थे।

और इन सब 'गलतियों' या दिग्भ्रम के बावजूद वे किस तरह बड़ी संख्या में लड़के=लड़कियों को अपने रास्ते को अपनाने के लिए राजी करते थे, इतना जोखिम उठाने को प्रेरित करते थे और एक के मरने पर अनेक के खड़ा हो जाने का चमत्कार करते थे यह जानना मुश्किल नहीं है। इसका एक कारण तो देश और समाज में गरीबी और बदहाली के स्थायी ठिकाने बनना है जो इलाका से लेकर सामाजिक समूहों में दिखाता है। जाति के सवाल को ऊपर न करने वाले नक्सली समूहों में ज्यादातर कैडर दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों से आता था क्योंकि वे पीढ़ी दर पीढ़ी दरिद्रता और अपमान का जीवन जीते आये हैं। दूसरा कारण स्थापित दलों और सरकारों का रवैया रहा है जिनके लिए समाज के ऐसे समूह सिर्फ वोट के समय याद आते हैं। सारी नीतियां और कार्यक्रमों का झुकाव शहरों और पैसेवालों की तरफ रहा है। और कई बार न्यस्त स्वार्थ, लोकतंत्र या मानवाधिकार के नाम पर कुछ ढील बरती जाती रही है। इस बार वह नहीं दिख रहा है। इसलिए गिनाने लायक सफलता दिखती है।

पर नीतियों और कार्यक्रमों के मामले में कोई फरक आया नहीं दिखाता। जिन पिछड़े इलाकों में नक्सली जमे रहे हैं वहां के विकास के लिए खास कार्यक्रम देने और चलाने की जगह इस पूरे इलाके को बड़ी बड़ी कंपनियों को सौंपने का काम हो रहा है। जिस भूपति के सरेंडर को सरकार या हम सब एक बड़ी घटना मान रहे हैं उन्हें उसे गढ़चिरोली इलाके में जम रही लायड स्टील कंपनी अपना ब्रांड अंबेसडर बना रही है। कंपनी ने हिंसा का मार्ग छोड़ने वाले नक्सलियों को काम देने की घोषणा भी की है। थोड़े से नक्सलियों का इस किस्म का पुनर्वास क्या सारी समस्याएं खत्म कर देगा। इन घोर जंगली इलाकों में बाजार की लूट और कमाई के असीमित स्रोत हैं और सरकार वहां के निवासियों और आदिवासियों के व्यापक पुनर्वास की जगह बड़ी बड़ी कंपनियों को वहां पहुंचाने में लगी है। यह काम पूर्व की सरकारों ने भी किया है लेकिन आज यह ज्यादा तेजी से होने लगा है। जाहिर तौर पर वहां काम करना है तो इन्ही आदिवासियों और गरीब लोगों से कराना होगा लेकिन सरकार के मौजूदा तरीकों से मालिक कोई और हो जाएगा। छोटी जोत या वन क्षेत्र की मिल्कियत आदिवासियों को सौंपने के अपने खतरे हैं लेकिन एक लंबे समय तक या खास विकास होने तक जमीन की बिक्री पर रोक जैसी शर्तों के साथ उनको मालिक और मजदूर दोनों बनाने की नीति ही स्थायी समाधान देगी। इसके बगैर आज की सफलता आधी अधूरी ही रहेगी और जरा सी ढील होते ही नए भूपति, नए किशन जी, नए बासवराजू पैदा होने को तैयार ही बैठे हैं।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it