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बढ़ता उत्पादन, घटता खर्च, पर्यावरण की रक्षा : इन किसानों से हम क्या-क्या सीखें

आखिर कोई तो बात होगी कि इस दलित किसान की खेती को आसपास के कई किसान देखने-समझने आते हैं व सरकारी स्तर पर उन्हें पुरस्कार भी दिया गया है व प्रशिक्षण देने के लिए भी बुलाया जाता है

बढ़ता उत्पादन, घटता खर्च, पर्यावरण की रक्षा : इन किसानों से हम क्या-क्या सीखें
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आज हमारे किसानों के सामने तेजी से बढ़ते खर्च और कर्ज की परेशानी है। रासायनिक खाद से उत्पादकता अपेक्षा के अनुकूल बढ़ नहीं रही है जिसका एक बड़ा कारण यह है कि इसके अत्यधिक उपयोग से पहले ही मिट्टी व पर्यावरण की बहुत क्षति हो चुकी है। कई स्तरों पर खेती व गांव का बिगड़ता पर्यावरण किसानों की इन समस्याओं को और बढ़ा रहा है।

आखिर कोई तो बात होगी कि इस दलित किसान की खेती को आसपास के कई किसान देखने-समझने आते हैं व सरकारी स्तर पर उन्हें पुरस्कार भी दिया गया है व प्रशिक्षण देने के लिए भी बुलाया जाता है। जब यह लेखक टीकमगढ़ जिले (मध्य प्रदेश) के लिधोराताल गांव में बालचंद अहीरवार से बातचीत करने पहुंचा तो यह समझने में देरी नहीं लगी कि इस मेहनती, निष्ठावान किसान की खेती किसानों व अधिकारियों को क्यों आकर्षित कर रही है।

आज हमारे किसानों के सामने तेजी से बढ़ते खर्च और कर्ज की परेशानी है। रासायनिक खाद से उत्पादकता अपेक्षा के अनुकूल बढ़ नहीं रही है जिसका एक बड़ा कारण यह है कि इसके अत्यधिक उपयोग से पहले ही मिट्टी व पर्यावरण की बहुत क्षति हो चुकी है। कई स्तरों पर खेती व गांव का बिगड़ता पर्यावरण किसानों की इन समस्याओं को और बढ़ा रहा है।

बालचंद, उनकी पत्नी गुड्डी और परिवार के अन्य सदस्यों के सहयोग से जो खेती अपने मात्र 2 एकड़ के खेत पर कर रहे हैं, उसकी बड़ी उपलब्धि यह है कि किसान संकट उत्पन्न करने वाली इन सभी समस्याओं का समाधान उनकी खेती में एक साथ नजर आ रहा है। अपने छोटे खेत व उससे जुड़े कार्यों के बल पर ही बालचंद और गुड्डी परिवार को बहुत स्वस्थ खाद्य खिला रहे हैं व अपने दोनों बेटों को शहर के कालेज में पढ़ा रहे हैं।

इनकी मेहनत और रचनात्मकता की प्रशंसा करनी होगी कि मात्र 2 एकड़ के खेत में एक वर्ष में 44 तरह के खाद्य उगाते हैं जिनमें अनाज, दलहन, तिलहन, मसाले, फल, फूल सब्जी सभी कुछ है। बहुत से फलदार व अन्य पेड़ भी हैं। मुख्य फसल गेंहू व मंूगफली है। इसके साथ कुछ स्थान पर वे बहुस्तरीय बगीचा लगते हैं जिसमें जमीन के नीचे, छोटे व बड़े पौधों पर, बांस तथा रस्सी पर बढ़ रही बेलों पर बहुत सी सब्जियां लगाते हैं। वर्ष भर पौष्टिक खाद्य मिलते रहते हैं व बिक्री के लिए भी कुछ न कुछ निकलता रहता है।

यह सभी कार्य प्राकृतिक खेती पद्धति से किए जाते हैं। इसके अन्तर्गत रासायनिक खाद, कीटनाशक दवा व खरपतवारनाशक दवा आदि का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जाता है। इसके स्थान पर अपने ही खेत में गोमूत्र, गोबर व स्थानीय पेड़ों की कड़वी पत्तियों आदि से हानिकारक कीड़ों को दूर रखने वाली दवा तैयार की जाती है। इस तरह बालचंद ने एक एकड़ में खेती का खर्च 6000 रुपए से कम कर 500 रुपए कर लिया है। वह बताते हैं कि हम छोटे किसान हैं, हमें ट्रैक्टर की जरूरत नहीं, हमारा काम तो पावर ट्रिलर से हो जाता है जो मिट्टी के लिए भी अच्छा है। इन तौर-तरीकों से मिट्टी सुधर रही है व उपजाऊपन बढ़ रहा है। बालचंद ने मिट्टी खोदकर दिखाया कि अब इसमें कितने केंचुए आ गए हैं जो निरंतर अपनी प्राकृतिक प्रक्रियाओं से मिट्टी का उपजाऊ और भुरभुरा बनाए रखते हैं।

बालचंद और गुड्डी ने एक कदम आगे चलकर सोचा कि हम अन्य किसानों के लिए भी यह राह क्यों न आसान करें? अत: सृजन संस्था से सहायता प्राप्त कर उन्होंने एक ऐसा प्राकृतिक कृषि केन्द्र अपने खेत पर ही स्थापित किया जिससे वे अपनी जरूरत के अतिरिक्त भी प्राकृतिक खाद व हानिकारक कीड़े दूर रखने की दवा तैयार कर सकते हैं ताकि अन्य पड़ोस के किसान (जो किसी कारण से यह स्वयं तैयार नहीं कर सकते हैं) वे अपेक्षाकृत कम कीमत पर यह उनसे खरीद सकें। इसके अतिरिक्त बालचंद को प्राकृतिक कृषि के प्रशिक्षक के रूप में भी आमंत्रित किया जाता है व इस अवसर का भरपूर उपयोग कर वे प्राकृतिक खेती का संदेश फैलाते हैं।

वे दो संदेश विशेष तौर पर पहुंचाना चाहते हैं। पहली बात तो यह है कि जिस तरह की प्राकृतिक व दर्जनों उपज वाली मिश्रित खेती वे कर रहे हैं, वह बहुत मेहनत और निष्ठा से ही हो सकती है। यदि मेहनत और खेती के प्रतिनिष्ठा नहीं है, वहां सफलता मिलनी कठिन है। साथ में वे समझते हैं कि ऐसी रचनात्मक मेहनत थकाती नहीं है अपितु प्रसन्न रखती है क्योंकि आप निरंतर कुछ बेहतर करने की सोच रहे हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण बात बालचंद व गुड्डी ने यह समझाई कि किसान के लिए नशे से दूर रहना बहुत जरूरी है। उन्होंने बताया कि सारा हिसाब-किताब बिगड़ जाएगा यदि रोज-रोज मेहनत का पैसा शराब, तंबाकू व अन्य तरह के नशे में जाने लगे। अत: बालचंद अपने को हर तरह के नशे से दूर रखते हैं।

इस तरह के अनेक अन्य छोटे किसान भी प्राकृतिक खेती की राह चलते हुए बड़ी उम्मीद जगा रहे हैं। इसी तरह के एक-एक किसान हैं भील आदिवासी किसान मालीराम व उनकी पत्नी दुलकी बाई। जब यह लेखक प्रतापगढ़ जिले (राजस्थान) के उनके गांव कटारों का खेड़ा में गया तो मालीराम जी को अपने पौधों और पेड़ों के बीच में बहुत मस्त पाया। उन्होंने बताया कि वे अपने तीन बीघे के खेत में प्राकृतिक खेती पद्धति से 15 तरह की सब्जियों सहित लगभग 25 तरह की फसल उगाते हैं व इसके अतिरिक्त उनके खेत में अमरूद, पपीते, आंवले, नींबू, कटहल, चंदन आदि के लगभग 200 पेड़ हैं। उनके पास गाय, बैल, बकरियां व मुर्गियां हैं। खेती बैलों से होती है। इन पशु-पक्षियों से पर्याप्त व अच्छी गुणवत्ता की खाद प्राप्त होती है। पूरे खेत का नियोजन इस तरह है कि कुछ भी व्यर्थ न हो। यहां का अवशेष वहां पर संसाधन के रूप में उपयोग हो जाता है। मालीराम अपनी खेती में इतने मग्न हैं कि वह बाहर से आए मित्र को एक-एक क्यारी व पौधा दिखाना चाहते हैं, बताना चाहते हैं कि उन्होंने क्या प्रयोग किया व उसका कितना अच्छा परिणाम उन्हें मिला।

अमेरिकी किसान व दार्शनिक वैंडल बेरी ने लिखा है कि अच्छा किसान वह है जो आराम करते समय भी खेती को बेहतर करने के बारे में सोचता है। मालीराम से बातचीत करते हुए मुझे अनायास ही बैरी के इस कथन की याद आई क्योंकि बैरी के अनुरूप ही किसान मेरे सामने था।

मालीराम ने बताया कि पहले वे भी रासायनिक खाद के जाल में फंस गए थे, पर अपनी गलती का अहसास उन्हें शीघ्र ही हो गया और वे उससे पीछे हट गए। उन्होंने अपने तीन बीघा के खेत को एक-एक बीघा कर तीन वर्षों में प्राकृतिक खाद से उपचारित किया ताकि इसकी मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन लौट सके। फिर उन्होंने अपने भाई को भी प्राकृतिक खेती के लिए कहा व उसने अब यह स्वीकार भी कर लिया है।

शशि प्रजापति निवाड़ी जिले (मध्य प्रदेश) की ऐसी किसान हैं जिन्होंने अपनी खेती सुधारने के साथ-साथ पूरे गांव की खेती सुधारने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके गांव कु दार में पुरनिया तालाब की सफाई कर इसकी मिट्टी-गाद से खेतों का उपजाऊपन बढ़ाया गया। इस पूरे प्रयास से गांववासियों को जोड़ने व इसकी प्रगति का रिकार्ड रखने में शशि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। शशि ने अपने खेत में प्राकृतिक कृषि केन्द्र स्थापित कर गांव के अन्य किसानों को भी प्राकृतिक खाद व हानिकारक कीड़ों को दूर रखने की प्राकृतिक दवा उपलब्ध करवाई। शशि प्रजापति के खेत पर एक प्रदर्शन प्लाट भी आरंभ किया गया जहां कृषि के प्रयोगों का प्रदर्शन किया जाता रहा है। इतना ही नहीं, शशि ने बकरियों व अन्य पशुओं का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया जिससे गांव के पशुओं का इलाज व बीमारी से बचाव के उपाय संबंधी जानकारी गांव में ही उपलब्ध हो सके।

इन तीनों उदाहरणों में एक सामान्य बात यह है कि इन किसानों ने जिस तरह से खर्च कम करते हुए उत्पादन बढ़ाया है उसके साथ मिट्टी व पर्यावरण की रक्षा भी जुड़ी है। जलवायु बदलाव के संकट को कम करने व उसका बेहतर सामना करने की क्षमता (मिटिगेशन एंड एडाप्टेशन) भी उनके प्रयासों से बढ़ी है। अत: यदि जलवायु बदलाव के संकट के समाधान के लिए राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे किसानों को सहायता उपलब्ध होती है, तो ऐसी किसानी का हिसाब-किताब और भी अनुकूल हो जाएगा व किसानों की आजीविका और भी टिकाऊ व मजबूत हो जाएगी।

दूसरी मुख्य बात यह है कि इन तीनों किसानों की सफलता में सृजन संस्था ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। दूसरी ओर इन किसानों ने भी अपनी रचनात्मकता के आधार पर इस सहयोग में उम्मीद से भी बेहतर परिणाम दिए हैं।


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