Top
Begin typing your search above and press return to search.

जाति ही गिनोगे तो जातिवाद से मरोगे

असल में जाति का अपना गणित है जो काल और स्थितियों से निरपेक्ष नहीं है। कई सारी जातियों का धंधा आज है ही नहीं।

जाति ही गिनोगे तो जातिवाद से मरोगे
X

जाति ही गिनोगे तो जातिवाद से मरोगे

—अरविन्द मोहन

असल में जाति का अपना गणित है जो काल और स्थितियों से निरपेक्ष नहीं है। कई सारी जातियों का धंधा आज है ही नहीं। भिसती अब कहां दिखेंगे। खेती खत्म होती जा रही है तो खेतिहर जातियों के पास संख्या के अलावा क्या कुछ बचेगा। जब पशुपालन माडर्न होकर सबका धंधा बन जाएगा तो पशुपालक जातियों के पास संख्या ही बचेगी। सो दलितों के पास, ज्यादातर पिछड़ों के पास संख्या का खेल ही बचा है और वह भी इसलिए कि इस चुनावी लोकतंत्र में उसका एक महत्व है।

इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जो भाजपा कर्नाटक की जातिवार जनगणना में कदम-कदम पर विरोध और दबाव की राजनैतिक लड़ाई में जुटी है वही उत्तर प्रदेश में जाति के नाम के साथ राजनीति करने पर ही नहीं प्रशासनिक मामलों में, खासकर पुलिस एफआईआर में जाति का जिक्र बंद करने का फैसला कर चुकी है। भाजपा ने ओडिसा के मैदान को जीतने में पाइका आंदोलन और खंडायतों को जाति की याद दिलाने का सहारा लिया तो बंगाल के काफी हद तक जाति बिसरा चुके समाज में मातुआ लोगों के सहारे पैर जमाने की कोशिश करती रही है। यही भाजपा जब राजस्थान और मध्य प्रदेश में मजबूती महसूस करती है तो जाति भुला देती है, बिहार में चुनाव होने को हैं तो जाने किस-किस जाति के संगठनों का अधिवेशन और सम्मेलन कराती है। शुद्ध जाति की राजनीति, जिसे कई बार सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म की चादर से ढकने की कोशिश होती है, करने वाले दल बिहार और उत्तर प्रदेश में ही अलग अलग फार्मूले बनाकर बिखरी छोटी जातियों और दलितों को साथ लाने में लगे हैं तो अब भी कोई दल अगड़ों को भी नाराज करना नहीं चाहता। बिहार में राजद भी भूमिहारों को पटाने के लिए राज्य सभा की सीट देती है। खैर।

पर अभी बिहार और कर्नाटक के मामलों को देखकर कुछ चीजें समझने की कोशिश करनी चाहिए। कर्नाटक में दोबारा जातिवार जनगणना शुरू हुई है जो दो सप्ताह चलेगी। एक तो सात करोड़ लोगों का सर्वेक्षण इतने समय में कर पाने पर सवाल उठ रहे हैं तो हर जाति के नेता अपने-अपने लोगों की बैठक करके आवश्यक निर्देश दे रहे हैं। दलितों और आदिवासियों में यह नाराजगी है कि उन्हें एक साथ गिनने की जगह पचासों जातियों में बांटने से उनकी साझा राजनैतिक ताकत बिखर जाएगी। सबसे ताकतवर लिंगायत और वोक्कालिगा जैसी संख्या और प्रभाव में बड़ी जातियों की भी शिकायत है कि राज्य के स्थायी पिछड़ा वर्ग आयोग ने उनके अंदर भी ब्राह्मण ईसाई, वॉक्कालिगा ईसाई और लिंगायत ईसाई ही नहीं 29 अन्य समूहों को इसी तरह अलग गिनने का सुझाव दिया था जो मान लिया गया है। यह सुझाव कंठराज आयोग का था।

भाजपा की शिकायत है कि ऐसा प्रभावी सामाजिक समूहों की ताकत बिखेरने की रणनीति से किया गया है। उधर लिंगायतों को अलग धर्म का बताने का आंदोलन भी जारी है और इसी चक्कर मे एक बड़े कोडलसंगम पीठ के प्रमुख को हटाया भी जा चुका है। उन्होंने लिंगायतों को हिन्दू बताने की 'गलती' की थी। मुख्यमंत्री सिद्धारमैयया पिछड़ा राजनीति करते रहे हैं और उनका दावा है कि सर्वेक्षण जाति के साथ आर्थिक सामाजिक स्थिति की भी है और इससे शिकायतें दूर होंगी।

यह उदाहरण ज्यादा लंबा दिया गया है क्योंकि इसके बगैर जाति और जनगणना के संबंधों को समझा नहीं जा सकता और फिर मौजूदा राजनीति में जाति के खेल को भी नहीं समझा जा सकता। और माना जाता है कि जिन जातियों में चेतना थी और जिनके नेता तभी होशियार थे उन्होंने सौ साल से भी पहले की गिनती के वक्त एकजुटता दिखाने और संख्या बढ़ाने के ही नहीं अपनी जाति को अगड़ा-पिछड़ा या अछूत गिनवाने की चालाकी बरती जिसका लाभ अभी तक मिल रहा है। बल्कि आज उस लाभ को वापस लेना किसी के वश का नहीं है। कहा जाता है कि मण्डल के समय चौधरी चरण सिंह ने अपनी बिरादरी के नेताओं से पूछा था कि जाटों को ओबीसी में शामिल करावा दिया जाए तो उन्होंने विरोध किया। दूसरी ओर तब अन्याय का शिकार हो गए जाट समेत अन्य जातियों में देर से जगी चेतना भी बार-बार जोर मारती है और हर राज्य की सूची में नीचे से ऊपर आने वाली जातियों की संख्या बढ़ी है। एक मांग क्रीमी लेयर की भी उठती है। कई जगह विभिन्न श्रेणियों के अंदर भी पिछड़ा-अति पिछड़ा, दलित-महादलित जैसा विभाजन ही नहीं मुसलमानों में भी अगड़ा-पसमांदा जैसा विभाजन होने लगा है।

बिहार में तो नीतीश कुमार ने चार बड़ी जातियों के अलावा सौ से ज्यादा छोटी जातियों को अति पिछड़ा बनाकर उनके लिए आरक्षण में अलग व्यवस्था कराई। इसका लाभ दिखा। लेकिन अब यह शिकायत आम है कि उनके अंदर भी सूढी, कलवार, तेली और सोनार जैसी जातियों के लोग ही सारा लाभ बटोर रहे हैं जबकि 37 फीसदी संख्या वाले इस समूह के ज्यादातर लोगों की स्थिति दलितों से बदतर है। उत्तर प्रदेश की लड़ाई भी राजभर, गूजर, निषाद, पटेल और मौर्या जैसी सचेत हुई जातियों के नेताओं/पार्टियों की तरफ से भाजपा सरकार पर आ रहे दबाव की है। पर दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इन दोनों राज्यों के अति पिछड़ा समूह प्रभावी पिछड़ा जाति यादवों से उसी तरह डरने लगी है जैसे कभी उनको अगड़ों से लगता था। और मजेदार यह है कि पिता के चलते नेता बने अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव अपने नेतृत्व के आग्रह से ऐसे मोहग्रस्त हैं कि किसी अन्य को पास बैठने नहीं देते। आंध्र में रेड्डियों, कर्नाटक में लिंगायतों और वोक्कालिगाओं, राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों मे जाटों के दबदबे से पिछड़ी जातियों और दलितों को शिकायत है।

असल में जाति का अपना गणित है जो काल और स्थितियों से निरपेक्ष नहीं है। कई सारी जातियों का धंधा आज है ही नहीं। भिसती अब कहां दिखेंगे। खेती खत्म होती जा रही है तो खेतिहर जातियों के पास संख्या के अलावा क्या कुछ बचेगा। जब पशुपालन माडर्न होकर सबका धंधा बन जाएगा तो पशुपालक जातियों के पास संख्या ही बचेगी। सो दलितों के पास, ज्यादातर पिछड़ों के पास संख्या का खेल ही बचा है और वह भी इसलिए कि इस चुनावी लोकतंत्र में उसका एक महत्व है। उससे चुनी सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों पर इस संख्या और समर्थक वोटर समूह का दबाव जरूर रहता है लेकिन उनसे हजार गुना ज्यादा दबाव पैसे का, मीडिया का, सस्ते जनमत का, दिखावे का रहता है। अंग्रेजी का, पुरुष-प्रधानता का, अगड़ा-पिछड़ा इलाके का, दासी और रानी वाली स्थिति की भाषाओं और बोलियों का रहता है। कितना भी पिछड़ा नेता आए प्राम्प्टर से या ट्यूशन से अंग्रेजी बोलना उसकी मजबूरी है, अंबानी-अदानी के लिए प्रोजेक्ट देना उसकी मजबूरी है, धार्मिक कर्मकांड में दिखावा करना मजबूरी है। न करने पर वह टिक ही नहीं सकता। और जाति या अगड़ा-पिछड़ा या हिन्दू-मुसलमान सिर्फ चुनाव जीतने का खेल रह गया है।

वह अंग्रेज नहीं है जो जनगणना से समाज में पैदा बंटवारे का लाभ अपनी सत्ता को जमाने में कर ले। और यह लोक राज भी है-ज्यादा कुछ नहीं तो पांच साल में सत्ता जाने का डर तो रहता ही है। इसलिए यह समझना जरूरी है कि सिर्फ जाति गिनोगे तो जातिवादी रह जाओगे। और फिर अन्य जातियां तुम्हें निपटा देंगी जैसा की राज्यों में अगड़ों के साथ हों चुका है।



Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it