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अगर बिहार नहीं जीतते तो क्या दूसरे राज्यों में एसआईआर होता?

एसआईआर ( मतदाता विशेष गहन पुनरीक्षण) से अगर बिहार में सफलता नहीं मिलती तो क्या उसे दूसरे राज्यों में लागू किया जाता

अगर बिहार नहीं जीतते तो क्या दूसरे राज्यों में एसआईआर होता?
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  • शकील अख्तर

जनता के मन में चुनाव प्रक्रिया पर सवाल पैदा न हों इसलिए यह बार-बार बताया जा रहा है कि राहुल गलत सवाल उठा रहे हैं। राहुल विरोधियों को तो खुश होना चाहिए कि राहुल गलत सवाल में फंस गए हैं। मगर वे खुश होने के बदले परेशान हैं कि राहुल यह सवाल क्यों नहीं छोड़ रहे। दरअसल सच्चाई यही है कि वे भी जानते हैं कि ऐसा कोई और कारण नहीं है जो बिहार में भाजपा को इतनी बड़ी जीत दिला सकता।

एसआईआर ( मतदाता विशेष गहन पुनरीक्षण) से अगर बिहार में सफलता नहीं मिलती तो क्या उसे दूसरे राज्यों में लागू किया जाता? 12 राज्यों में जिनमें से तीन बड़े राज्यों जहां भाजपा कभी सरकार नहीं बना पाई बंगाल, केरल, तमिलनाडु में इसे करवाने का मतलब साफ है कि बिहार में एनडीए की जीत का प्रमुख कारण एसआईआर था।

इसकी कामयाबी आप एक दूसरे पैमाने से भी देख सकते हैं। पूरा गोदी मीडिया और बीजेपी समर्थक वर्ग बिहार के चुनाव नतीजों के बाद से ही सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दे रहा है कि कांग्रेस ने एसआईआर का मुद्दा गलत उठाया। इस पर इतना जोर नहीं देना चाहिए था। और अब भी कांग्रेस इसे छोड़ने को तैयार नहीं है। दिल्ली के रामलीला मैदान में इसी मुद्दे पर 14 दिसंबर को एक बड़ी रैली कर रही है।

मीडिया और दूसरे लोग इसे ऐसे कह रहे हैं जैसे वे कांग्रेस के हितैषी हों। जबकि सच्चाई यह है कि वे सब जानते हैं कि बिहार की जीत में एसआईआर का बड़ा रोल रहा। और जिसे नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी बड़े परिप्रेक्ष्य में वोट चोरी कह रहे हैं वह बिहार से पहले हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक लोकसभा और कई जगह बीजेपी की जीत का मुख्य हथियार रही।

वोट चोरी का मतलब पूरी चुनावी प्रक्रिया को अपने कब्जे में ले लेना। अपने मनमाफिक चुनाव परिणाम निकालना। हरियाणा में साफ दिख रहा था बीजेपी हार रही है। बिहार में मुकाबला कांटे का और महागठबंधन की तरफ झुका दिख रहा था। मगर दोनों जगह अविश्वसनीय नतीजे आए।

जनता के मन में चुनाव प्रक्रिया पर सवाल पैदा न हों इसलिए यह बार-बार बताया जा रहा है कि राहुल गलत सवाल उठा रहे हैं। राहुल विरोधियों को तो खुश होना चाहिए कि राहुल गलत सवाल में फंस गए हैं। मगर वे खुश होने के बदले परेशान हैं कि राहुल यह सवाल क्यों नहीं छोड़ रहे।

दरअसल सच्चाई यही है कि वे भी जानते हैं कि ऐसा कोई और कारण नहीं है जो बिहार में भाजपा को इतनी बड़ी जीत दिला सकता। एसआईआर के अलावा जो और भी हैं वे सब इतने वाजिब नहीं हैं कि उन्हें बताया जाए। जीत का एक दूसरा बड़ा कारण डेढ़ करोड़ महिलाओं के खाते में दस-दस हजार रूपया डालना है।

इसे अगर जीत का प्रमुख कारण बताया जाएगा तो यह सवाल जरूर पैदा होगा कि इस तरह तो कोई भी सरकार कभी नहीं हारेगी। उसके पास तो पैसों की कोई कमी होती नहीं है। कोई और सरकार पन्द्रह और बीस हजार भी देगी। मगर समाज के एक वर्ग को और उसकी कीमत पूरे राज्य के लोगों को चुकाना पड़ेगी। बिहार में प्रति व्यक्ति कर्ज 24 हजार से ज्यादा हो गया। और यह बिहार का है। केन्द्र का प्रति व्यक्ति कर्ज लगभग 5 लाख रुपए है। यह बिहार के लोगों पर भी लागू होता है। और रेवड़ियां बांटोगे और कर्ज बढ़ेगा। और उन पर बढ़ेगा जिन्हें इन मुफ्त रेवड़ियों का कोई फायदा नहीं है।

तो यह जीत का कारण मीडिया और भाजपा बता नहीं सकते। जैसे रिश्वत देकर काम करवा के लौटा व्यक्ति यह नहीं बताता कि उसका गलत काम पैसे देकर हुआ है। वह यही बताता है कि काम ही सही था। इसलिए एसआईआर या सरकारी पैसे बांटने को जीत का कारण अगर कोई बताता है तो गोदी मीडिया और बीजेपी समर्थक नवभक्त उसका विरोध करते हैं या नेता अगर बड़ा है राहुल जैसा तो उसे सलाह देते हैं कि इसे नहीं उठाना चाहिए दूसरा मुद्दा उठाना चाहिए।

राहुल ने उठाया तो था। सबसे बड़ा मुद्दा। नौकरी का बेरोजगारी का। और वही चर्चा में था। मगर वह न चले इसलिए तो सरकारी खजाने से दस-दस हजार रुपए बांट दिए गए।

राहुल कांग्रेस महागठबंधन नौकरी देकर तनखा देने की बात कर रही थी। मगर एनडीए ने बिना कुछ किए धरे दस हजार रुपए दे दिए। महागठबंधन के मुद्दे को दबाने के लिए ही। लेकिन फिर भी इस पर पूरा विश्वास नहीं था इसलिए वोट काटने और वोट जोड़ने की एसआईआर तकनीक उपयोग में लाई गई।

लोकतंत्र बहुत खतरनाक मोड़ पर पहुंच गया है। राहुल की आलोचना करना आसान है मगर उनकी तरह लड़ना बहुत मुश्किल। राहुल से कितने सवाल हो रहे हैं। मगर बीजेपी से एक नहीं। वह एक सवाल कि बिहार जीत का कोई एक कारण तो बता दो?

बीस साल से वहां नीतीश के साथ साझी सरकार। 11 साल से केन्द्र में मोदी सरकार। मगर बिहार के लिए क्या किया? कोई रोजगार नौकरी? कोई जवाब नहीं। बस प्रचार माध्यम साथ हैं तो उल्टे राहुल से सवाल। मगर फिर भी राहुल को पथ भ्रमित (विचलित) नहीं कर पाते हैं। राहुल वोट चोरी के अपने मुद्दे पर कायम हैं। इसलिए दिल्ली रामलीला मैदान से एक बड़ी रैली के जरिए वोट चोरी के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन की शुरूआत की जा रही है।

वोट चोरी अगर नहीं रुकेगी तो पूरी चुनावी प्रक्रिया ही इकतरफा हो जाएगी। और फिर कोई चुनाव नहीं जीत सकता। अब एक और सबसे जरूरी पहलू पर जिस पर कोई बात नहीं हो रही है। लोगों को कागजी काम में उलझाना। कोई भी सरकार अपनी जनता को अनावश्यक रूप से परेशान नहीं करती है। मगर प्रधानमंत्री मोदी इस पर विश्वास करते हैं कि जनता को रात-दिन बेकार के कामों उलझाए रखो ताकि वह अपने जरूरी सवालों को भूली रहे।

नोटबंदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पूरा देश इसमें महीनों उलझा रहा। मिला क्या कुछ नहीं। प्रधानमंत्री मोदी ने जो बड़े-बड़े दावे किए कि भ्रष्टाचार, काला धन, आतंकवाद, नकली नोट खत्म हो जाएंगे वह कुछ नहीं हुआ। इसी तरह तीन कृषि कानून लाए थे। किसान परेशान हो गया। साल से ज्यादा सड़क पर बैठा रहा। आन्दोलन किया। कानून वापस ले लिए। कोरोना में ताली-थाली बजवाकर कोरोना भगाने के दावे कर दिए। नागरिकता संशोधन कानून ले आए। ऐसे कामों की बहुत लंबी लिस्ट है जिसमें जनता को उलझाए रखा।

अब एक नया शिगुफा छेड़ा है आधार फिर से बनेगा। जैसे एसआईआर में पहले बिहार के लोग और आज 12 प्रदेशों के लोग परेशान घूम रहे हैं वैसे ही इसके बाद आधार के लिए लोग घूमेंगे। आपको याद है मोबाइल को आधार से जोड़ने की घोषणा की थी। और जब लोगों ने भागदौड़ करके यह काम करवा लिया तो कहा गया कि जरूरी नहीं था। कल को पेन कार्ड आपके बैंक खाते पासपोर्ट किसी को भी या सबको फिर से बनाने की बात कर सकते हैं। उद्देश्य एक ही है। सरकार पर सवाल नहीं उठा पाओ। नौकरी रोजगार भूल जाओ। सरकारी चिकित्सा शिक्षा जो पहले सबको मिलती थी उसकी बात मत करो। गैर जरूरी सरकारी कामों में उलझे रहो।

एसआईआर करवाने वाली जनता तो परेशान है ही। फार्म में 2003 की वोटर लिस्ट से मिलान मांगा है। माता-पिता के वोटर कार्ड का नंबर, दादा-दादी तक का। इस पर सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने और तो कुछ किया नहीं मगर यह जरूर कह दिया कि यह फार्म हम भी नहीं भर सकते हैं। और प्रधानमंत्री मोदी क्या खुद बिना किसी की मदद के यह फार्म भर सकते हैं? और एक इस पूरी कवायद का सबसे दुखद और अमानवीय पहलू! इस काम को जिन सरकारी कर्मचारियों ( बीएलओ) से करवाया जा रहा है उन पर भारी दबाव। जिसे न सह पाने के कारण उनके मरने और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।

इससे पहले इतना ज्यादा शारीरिक और मानसिक दोनों श्रम वाला काम सरकारी कर्मचारियों पर आज तक कभी नहीं लादा गया। यह क्रूरता की हद है। बीएलओ मर रहे हैं। मगर सरकार को कोई मतलब नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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