बाढ़ की समस्या का मुकाबला कैसे करें?
कई बांध व बड़े जलाशयों में नदियों को मोड़ दिया जाता है, उससे नदी ही मर जाती है। नदियां बांध दी जाती हैं।

— बाबा मायाराम
कई बांध व बड़े जलाशयों में नदियों को मोड़ दिया जाता है, उससे नदी ही मर जाती है। नदियां बांध दी जाती हैं। लोग समझते हैं कि यहां नदी तो है नहीं, क्यों न यहां खेती या इस खाली पड़ी जमीन का कोई और उपयोग किया जाए, तभी जब बारिश ज्यादा होती है तो पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलता। और यही पानी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है इससे बर्बादी होती है। मौसम बदलाव भी एक कारण है।
पिछले दिनों देश के कई कोनों से लगातार बाढ़ से तबाही की खबरें आई हैं। अब यह समस्या स्थायी सी हो गई है। हर साल बाढ़ आती है, तबाही की खबरें आती हैं, लेकिन उसके बारे में पूर्व तैयारी नहीं होती। एक समग्र सोच का अभाव सभी जगह दिखाई देता है। आज बाढ़ पर थोड़ी चर्चा करना उचित होगा, जिससे इसे समग्रता में देख सकें। इसके समाधानों के बारे में सोच सकें।
हम बचपन से देखते आ रहे हैं कि पहले भी बाढ़ आती थी लेकिन वह इतने व्यापक कहर नहीं ढाती थी। इसके लिए पूरी तरह लोग व गांव तैयार रहते थे। बल्कि इसका उन्हें इंतजार रहता था। खेतों को बाढ़ के साथ आई नई मिट्टी मिलती थी, भरपूर पानी लाती थी जिससे प्यासे खेत तर हो जाते थे। पीने के लिये पानी मिल जाता था, भूजल ऊपर आ जाता था, नदी नाले, ताल-तलैया भर जाते थे। समृद्धि आती थी। बाढ़ आती थी, मेहमान की तरह जल्दी ही चली जाती थी। पर यह बाढ़ तबाही मचाती है।
हम सब जानते हैं हमारे जंगल बहुत कम हो गए हैं। इससे भूस्खलन व भूक्षरण ज्यादा हो रहा है। पानी को स्पंज की तरह अपने में समाने वाले जंगल कट गए हैं। जंगलों के कटान के बाद झाड़ियां और चारे जलावन के लिये काट ली जाती हैं। जंगल और पेड़ बारिश के पानी को रोकते हैं। वह पानी को बहुत देर तो नहीं थाम सकते लेकिन पानी के वेग को कम करते हैं। वे स्पीड ब्रेकर का काम करते हैं। लेकिन पेड़ नहीं रहेंगे तो बहुत गति से पानी नदियों में आएगा और इधर-उधर बह जाएगा, और बर्बादी करेगा। और यही हो रहा है।
यह भी देखा जा रहा है कि पहले नदियों के आस-पास बहुत पड़ती जमीन होती थी, नदी-नाले होते थे, लम्बे-लम्बे चारागाह होते थे, दूब और घास होती थी, उनमें पानी थम जाता था। बड़ी नदियों का ज्यादा पानी छोटे- नदी नालों में भर जाता था। लेकिन अब उस जगह पर भी या तो खेती होने लगी है या वह जमीन का उपयोग किसी और कामों के लिए होने लगा है। यानी इसमें कमी आ गई है।
एक और कारण है- लगातार बढ़ता शहरीकरण और विकास कार्य भी इस समस्या को बढ़ा रहे हैं। बहुमंजिला इमारतें, सड़कों राजमार्गों का जाल बन गया है। नदियों के प्राकृतिक प्रवाह अवरुद्ध हो गए हैं। जहां पानी निकलने का रास्ता नहीं रहता है, वहां दलदलीकरण की समस्या हो जाती है। इससे न केवल फसलों को नुकसान होता है बल्कि बीमारियां भी फैलती हैं। जो तटबंध बने हैं, वे टूट-फूट जाते हैं जिससे लोगों को बाढ़ से बाहर निकलने का समय भी नहीं मिलता। इससे जान-माल की हानि होती है।
इसी प्रकार वेटलैंड (जलभूमि) की जमीन पर भी अन्य गतिविधियां होने लगी हैं। इससे पर्यावरणीय और जैव विविधता को खतरा उत्पन्न हो गया है। शहरों में तो यह समस्या बड़ी है। पानी निकलने का रास्ता ही नहीं है। सब जगह पक्के कांक्रीट के मकान, हाईवे और सड़कें हैं। जैसे कुछ सालों पहले मुंबई की बाढ़ का किस्सा सामने आया था। वहां मीठी नदी ही गायब हो गई, और जब पानी आया तो शहर जलमग्न हो गया। ऐसी हालत ज्यादातर शहरों की हो जाती है।
लेकिन बाढ़ के कारण और भी हैं। जैसे बड़े पैमाने पर रेत खनन। रेत पानी को स्पंज की तरह जज्ब करके रखती है। रेत खनन किया जा रहा है। रेत ही नहीं रहेगी तो पानी कैसे रुकेगा, नदी कैसे बहेगी, कैसे बचेगी। अगर रेत रहेगी तो नदी रहेगी। लेकिन जैसे ही बारिश ज्यादा होती है, वेग से पानी बहता है, उसे ठहरने की कोई जगह नहीं रहती।
कई बांध व बड़े जलाशयों में नदियों को मोड़ दिया जाता है, उससे नदी ही मर जाती है। नदियां बांध दी जाती हैं। लोग समझते हैं कि यहां नदी तो है नहीं, क्यों न यहां खेती या इस खाली पड़ी जमीन का कोई और उपयोग किया जाए, तभी जब बारिश ज्यादा होती है तो पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलता। और यही पानी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है इससे बर्बादी होती है।
मौसम बदलाव भी एक कारण है। पहले सावन-भादो में लंबे समय तक झड़ी लगी रहती थी। यह पानी फसलों के लिये और भूजल पुनर्भरण के लिये बहुत उपयोगी होता था। फसलें भी अच्छी होती थी और धरती का पेट भी भरता था। पर अब बड़ी-बड़ी बूंदों वाला पानी बरसता है, जिससे कुछ ही समय में बाढ़ आ जाती है। वर्षा के दिन भी कम हो गए हैं।
बीज बचाओ आंदोलन व चिपको आंदोलन के कार्यकर्ता रहे विजय जडधारी बताते हैं कि आजकल उत्तराखंड की पहचान अतिवृष्टि और तबाही से बन रही है लेकिन यदि 50 -100 साल पहले की बात करें तो यहां इससे भी ज्यादा बारिश होती थी, सावन के महीने को अंधियारा महीना कहते थे, तब सावन के महीना दिन में सूरज के दर्शन नहीं होते थे। न रात में तारे दिखते थे, चौमासा यानी चार महीने बारिश के लिए थे। लेकिन तब कहीं प्राकृतिक आपदाएं नहीं होती थी। बादल फटना शब्द कहीं नहीं था। न भू स्खलन होता था। उच्च हिमालय से इक्का-दुक्का घटनाएं हुई हैं। लेकिन आज चारों ओर तबाही ही तबाही हो रही है और प्रकृति को दोष दे रहे हैं।
उन्होंने बताया कि हिमालय दुनिया की छत है। हिमालय पर हो रही आपदाएं प्राकृतिक नहीं है, यह मानव निर्मित है। हिमालय कोई सामान्य पहाड़ नहीं है, हिमालय और गंगा हमारी सभ्यता व संस्कृति का आधार है इसीलिए हमारे ऋषि मुनियों ने उत्तराखंड हिमालय को देवभूमि कहा है।
इसके अलावा पानी के परम्परागत ढांचों की भी भारी उपेक्षा हुई है। ताल, तलैया, तालाब, खेतों में मेड़ बंधान आदि से भी पानी रुकता है। हर गांव में तालाब थे। आज भी छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तालाब की पानीदार परंपराएं हैं, जिनसे काफी कुछ सीखा जा सकता है। यह तालाब गांव के लोगों ने बनाए और बचाए हैं।
कु छ समय पहले मैं राजस्थान गया था। और वहां कुछ जिलों में घूमा, और देखा कि वहां सैकड़ों साल पुराने तालाब हैं। आज भी स्थानीय लोग उनका पानी पीते हैं। उन्होंने उनकी सार-संभाल की है। और आज भी कर रहे हैं।
लेकिन आज हम इन पर ध्यान न देकर भूजल के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है। हमारी बरसों पुरानी परम्पराओं में ही आज की बाढ़ जैसी समस्या के समाधान के सूत्र छिपे हैं। अगर ऐसे समन्वित विकल्पों पर काम किया जाए तो न केवल बाढ़ जैसी बड़ी समस्या से निजात पा सकते हैं। पर्यावरण, जैव-विविधता और बारिश के पानी का संरक्षण कर सकेंगे। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ना चाहेंगे?


