हिरोशिमा का शांति संदेश
युद्ध में घायल विश्व को हिरोशिमा दिवस पर ऐसी मार्मिक कहानियों को याद करना जरूरी है

- बाबा मायाराम
युद्ध में घायल विश्व को हिरोशिमा दिवस पर ऐसी मार्मिक कहानियों को याद करना जरूरी है, जिससे हमें शांति की प्रेरणा मिलती है। युद्ध में जीत किसी की नहीं होती, इससे विनाश और तबाही ही होती है। इसलिए जरूरत है शांति समर्थक ताकतों को हर संभव प्रयास शांति के लिए करने चाहिए और इस समय इसकी शिद्दत से जरूरत महसूस की जा रही है।
इस समय दुनिया में कई छोटे-बड़े युद्ध हो रहे हैं। पूरा विश्व, युद्ध से घायल हो रहा है। इसे टीवी के पर्दे पर भी दिखाया जा रहा हैं। लोग मारे जा रहे हैं, जिन में बहुत से बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। ऐसे माहौल में शांति की, करूणा की और अहिंसा की खबरें गायब हो जाती हैं। युद्धों के कई दूरगामी, दीर्घकालीन और पीढ़ियों तक असर होते हैं। यहां युद्ध से जुड़ी तीन मार्मिक कहानियों के माध्यम से उसकी विभीषिका व तबाही को समझा जा सकता है।
एक कहानी सडाको की है, जो 'सडाको और कागज के पक्षी' नामक किताब में दज़र् है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अमरीका ने जापान के हिरोशिमा पर बम बरसाए, तब जापानी लड़की सडाको दो साल की थी। लेकिन बाद में वह बीमार हो गई। उसे एटम-बम के असर से बीमारी हो गई। बम गिरने के 9 साल बाद सडाको को खून का कैंसर यानि लुकीमिआ हो गया।
फिर हिरोशिमा दिवस आया। उस दिन को याद करने के लोगों ने दीवारों पर एटम बम में मारे गए लोगों के फोटो चिपकाए। कागज की बनी लालटेन के अंदर मोमबत्तियां जलाईं। सडाको ने अपनी लालटेन पर मृत दादी का नाम लिखा, और उसे नदी में बहाया। ये सब लालटेनें जुगुनियों की तरह टिमटिमा रही थीं।
सडाको का, स्कूल की रिले रेस में दौड़ने के लिए चयन हुआ था। वह बहुत उत्साहित थी। वह उस दिन दौड़ी भी और जीत गई थी। पर इसी दौरान उसका सिर चकराने लगा। कुछ दिन बाद भी स्कूल में वह दौड़ते समय गिर गई। जब अस्पताल में उसका एक्स रे लिया गया तो खून का कैंसर निकला।
इलाज के लिए उसे कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। इस दौरान उसके परिजन व स्कूल के दोस्त मिलने आए। एक दिन उसकी प्रिय मित्र चुज़ूकी आई। उसने उसे अच्छा होने का अनोखा तरीका बताया। उसने एक कागज की चिड़िया बना दी। और कहा कि अगर कोई बीमार व्यक्ति एक हज़ार कागज की चिड़िए मोड़े तो स्वस्थ हो जाता है।
इस तरह कागज की चिड़िया बनाने का सिलसिला शुरू हो गया। सडाको ने कागज की चिड़िया बनाना सीखा। और सभी को कतार में सजाया। जगह कम पड़ी तो उसके एक दोस्त मासाहीरो ने उन्हें छत से लटका दिया। सडाको कई दिनों तक चिड़िया बनाती रही। पर बीमारी शरीर में फैलती रही। वह उसको नजरअंदाज कर कागज़ की चिड़िया बनाने में लगी रही। अब तक वह चार सौ चौसठ चिड़िया बना चुकी थी। अब वह जल्दी थक जाती थी। कुछ और हिम्मत की। उसने 644 चिड़िया बनाई, पर उसमें शक्ति नहीं बची। अब कागज मोड़ने की अवस्था नहीं रही। और वह चिड़ियों को निहारते-निहारते गहरी नींद में सो गई। फिर कभी नहीं उठी और चल बसी।
बाद में उसकी कक्षा के दोस्तो ने शेष 356 चिड़ियाएं बनाई और हजार चिड़ियों के साथ सडाको को दफना दिया गया। उसके बाद सडाको के मित्रो ने उसकी याद में एक स्मारक बनाया। अब शांति दिवस के दिन सडाको के स्मारक पर कागज के पक्षियों की मालाएं पहनाते हैं। उस स्मारक पर लिखा है - यही हमारे आंसू हैं, यही हमारी प्रार्थना है, दुनिया मे शांति हो।
इसी प्रकार, एक और कहानी है 'शिन की तिपहिया साइकिल'। इस कहानी को तातसुहारू कोडामा ने लिखा है। शिन जब तीन साल का था, तो तिपहिया साइकिल चला रहा था, तब हिरोशिमा पर अमेरिका ने बम बरसाए।
शिन को साइकिल बहुत प्रिय थी। उसकी दो बहनें भी थीं- मिचिका और योको। लेकिन कई दिनों बाद उसके फौजी चाचा ने उसे जन्मदिन पर तोहफा दिया, और वह भी तिपहिया साइकिल। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह खुशी के मारे उछलने लगा।
लेकिन उसे क्या पता था कि यह खुशी ज्यादा देर न रह सकी। अचानक एक जोरदार धमाका हुआ और शिन न रहा। उसकी दोनों बहनें भी मर गईं। वह घर ढहने से उसकी लकड़ियों के नीचे दब गया था। लेकिन वह उस समय भी अपनी तिपहिया साइकिल को पकड़े हुए था। वह आग में झुलस गया था, उसकी मां उसे नदी की ओर लेकर दौड़ी। वहां सैकड़ों लोग रोते हुए बिलख रहे थे। शिन ने धीमी आवाज़ में पानी मांगा। पर उसे बचाया न जा सका। उसी रात वह चल बसा। उस समय उसकी उम्र सिर्फ चार साल की ही थी। उसे उसकी प्रिय साइकिल के साथ दफना दिया गया। शिन की कहानी भी दुनिया को शांति का संदेश देती है।
ऐसी ही एक कहानी है 'वफादार हाथी' की। इसे युकियो थुचिया ने लिखा है। यह एक चिड़ियाघर के हाथियों की कहानी है, जिन्हें इसलिए मारा गया कि अगर बम गिरे तो ये जानवर उत्पाद न फैला दें। यह टोक्यो का चिड़ियाघऱ था।
इस चिड़ियाघर में कई जानवर थे, इनमें तीन हाथी भी शामिल थे। यह हाथी दर्शकों को करतब दिखाते थे। इन हाथियों का नाम जॉन, टौंकी, वैनली था। युद्ध में रोज ही बम बरसाए जा रहे थे।
चिड़ियाघर के लोगों ने सोचा कि अगर बम यहां गिरेगा तो जानवर भागेंगे, शहर में उत्पाद मचाएंगे, इसलिए उन्हें मार डाला जाए। पर मारे कैसे, सभी प्रयास करने के बाद उन्हें भूखा रखा गया। एक हाथी तो कुछ दिन बाद मर गया। पर दो बच गए। उनका खाना-पीना बंद कर दिया गया। भूख के मारे उनकी हड्डियां निकल आईँ। यह सब देखकर हाथियों की परवरिश करने वाले महावत से रहा नहीं गया। उसने उन्हें खाना खिलाया, चिड़ियाघर के किसी भी कर्मचारी अधिकारी ने इसका विरोध नहीं किया। क्योंकि सभी इससे दुखी थे।
लेकिन कुछ दिन बाद दोनों हाथी मर गए। महावत रोने लगा और प्रार्थना करने लगा कि युद्ध बंद करो,युद्ध बंद करो। अब उन हाथियों की याद में स्मारक बना है।
शांति पर एक और पुस्तक है- द स्टोरी ऑफ फरडीनैंड। इसे मनरो लीफ ने लिखा है। यह फरडीनैंड नामक एक बैल की कहानी है, जिसे लड़ाई पसंद नहीं है, वह उसका विरोध करता है। उसे फूल बहुत पसंद हैं। घास के मैदान में बैठा-बैठा वह फूलों की खुशबू सूंघता था। दूसरे बैल लड़ते रहते थे, मत्थे से मत्था लड़ाते थे, पर वह फूलों की खुशबू में मगन रहता था। एक बार उसे बैलों की लड़ाई के लिए ले जाया गया, पर वहां भी नहीं लड़ा। बल्कि मैदान में बैठ गया।
शांति का संदेश फैलाने वाली इस किताब को दुनिया भर में पढ़ा जा रहा है। इन सभी पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद व प्रकाशन का श्रेय लेखक व टॉयमेकर अरविंद गुप्ता को जाता है, जो लगातार शांति की पहल में बरसों से लगे हैं। उन्होंने विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने के लिए भी काम किया है। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है।
कुल मिलाकर, युद्ध में घायल विश्व को हिरोशिमा दिवस पर ऐसी मार्मिक कहानियों को याद करना जरूरी है, जिससे हमें शांति की प्रेरणा मिलती है। युद्ध में जीत किसी की नहीं होती, इससे विनाश और तबाही ही होती है। इसलिए जरूरत है शांति समर्थक ताकतों को हर संभव प्रयास शांति के लिए करने चाहिए और इस समय इसकी शिद्दत से जरूरत महसूस की जा रही है।


