Top
Begin typing your search above and press return to search.

ओडिशा के हथकरघे व बुनकरों की आजीविका

हाल ही में मैंने ओडिशा में कुछ बुनकर समुदाय के लोगों से मुलाकात की

ओडिशा के हथकरघे व बुनकरों की आजीविका
X
  • बाबा मायाराम

गांवों में कृषि के साथ कई तरह के छोटे-छोटे रोजगार हुआ करते थे। लकड़ी और लोहे के खेती के औजार बनाना, लकड़ी के घर बनाना, खपरैल व मिट्टी के घर बनाना, मिट्टी व बांस के बर्तन बनाना, तेल व गुड़ बनाने का काम इत्यादि। इन सभी कामों को करने वाले कारीगर काफी हुनरमंद थे और कुछ अब भी हैं। इसमें बहुत से लोगों की आजीविका जुड़ी रहती थी।

हाल ही में मैंने ओडिशा में कुछ बुनकर समुदाय के लोगों से मुलाकात की। उनके काम को देखा, उनकी समस्याएं सुनीं, और उनके काम की चुनौतियों के बारे में जानने की कोशिश की। आज इस साप्ताहिक कॉलम में इस पर ही चर्चा करना चाहूंगा।

हमारे गांवों में कृषि के साथ कई तरह के छोटे-छोटे रोजगार हुआ करते थे। लकड़ी और लोहे के खेती के औजार बनाना, लकड़ी के घर बनाना, खपरैल व मिट्टी के घर बनाना, मिट्टी व बांस के बर्तन बनाना, तेल व गुड़ बनाने का काम इत्यादि। इन सभी कामों को करने वाले कारीगर काफी हुनरमंद थे और कुछ अब भी हैं। इसमें बहुत से लोगों की आजीविका जुड़ी रहती थी।

कुछ समय पहले तक देश में हथकरघे का काम खेती-किसानी के बाद रोजगार का सबसे महत्वपूर्ण हुआ करता था पर कई कारणों से इसमें कमी आई है। लेकिन इसके बावजूद भी यह ऐसा महत्वपूर्ण हुनर व कौशल है, जिसकी बाजार में काफी मांग है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण संबलपुरी साड़ियां हैं, जिनकी बाजार में मांग है। जो लोग हाथ के काम, सफाई, डिजाइन का महत्व समझते हैं, वे हथकरघे से बने कपड़े ही पसंद करते हैं। इसका अनुभव मुझे ओडिशा के बुनकरों से बात करते हुए हुआ।

मैंने यहां बरगढ़ के पास दो गांवों के बुनकरों से बात की। उनके घर गया, और उनकी दुख-सुख की कहानियां सुनीं। उन्होंने बताया कि कुछ साल पहले तक संबलपुरी साड़ियों का बाजार काफी सिमटा हुआ था और यह ओडिशा व छत्तीसगढ़ तक ही सीमित था। लेकिन अब पूरे देश में इसकी मांग है, और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ही इसे पसंद किया जाता है।

कांटापाली गांव, बरगढ़ शहर से 7-8 किलोमीटर दूर है। यहां बुनकरी के अलावा कांसे व पीतल का काम भी होता है। लेकिन यहां मैं संबलपुरी साड़ियां बनाने वाले बुनकरों की बात ही करना चाहूंगा। यहां मैं एक युवा बुनकर घनश्याम मिहिर से मिला। वे हथकरघे पर साड़ी बना रहे थे। उन्होंने बताया कि वे यह काम 10 साल से कर रहे हैं, और उन्होंने यह उनके पिता से सीखा है। इस काम को परिवार के लोग मिलकर करते हैं। उनके परिवार में 5 सदस्य हैं।

इस गांव में करीब 40 से ज्यादा परिवार है। सभी लोग बुनकरी से जुड़े हुए हैं। इसी प्रकार, यहां के मोहन मिहिर का पूरा परिवार इस काम में लगा है। उनके एक बेटे अनंत ने सीमेंट फैक्ट्री में कुछ समय काम किया था, लेकिन उसे वह काम रास नहीं आया। लेकिन जब उन्होंने संबलपुरी साड़ियां बनाने का काम संभाला तो उन्हें यह बहुत अच्छा लगा। उनका छोटा भाई भी इसी काम में जुड़ गया। अब परिवार के सभी 5 सदस्य इस काम में लगे हैं।

इसी प्रकार, मैंने सरकंडा गांव का दौरा किया। यहां के बुनकरों से मिला। यहां दो तरह से काम होता है। एक वे बुनकर हैं, जो सूत खरीदकर खुद साड़ियां बनाते हैं और दूसरे बुनकर वे हैं, जो मजदूरी से साड़ियां बनाते हैं, उन्हें सूत देकर कोई व्यापारी साड़ियां बनवाते हैं। यहां भी बड़ी संख्या में बुनकर हैं और आत्मनिर्भर हैं। यहां से सामाजिक कार्यकर्ता सुरेन्द्र मिहिर बताते हैं कि कुछ समय पहले तक बुनकरों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी, क्योंकि इनका बाजार सीमित था। अब बाजार काफी फैल गया है। संबलपुरी साड़ियों की मांग देश भर में हो गई है, इसलिए बुनकरों की आजीविका भी अच्छी खासी चल रही है।

यहां संबलपुरी साड़ियां बंध तकनीक से बनाई जाती हैं। कारीगर धागों को विशेष पैटर्न में बांधते हैं। यह बांधा, रंग के उस हिस्से में बांध दिया जाता है, जिस पर रंग नहीं लगाना है। उसे बाद में दूसरे रंग से रंगा जाता है। यह जटिल प्रक्रिया है, और यह विशेष सावधानी व हुनर की जरूरत होती है। इस तरह रंगीन साड़ियां बनाई जाती है। रेशम व सूती दोनों तरह की साड़ियां बनाई जाती हैं।

ओडिशा में कई ऐसे गांव हैं, जिसमें हथकरघे पर बुनकरी का काम होता है। सामाजिक कार्यकर्ता व किसान नेता लिंगराज का कहना है कि हमें खेती के साथ इन पारंपरिक हस्तकला को भी बचाना जरूरी है। यह न केवल हमारी पारंपरिक धरोहर है,बल्कि इससे बड़ी आबादी की आजीविका भी जुड़ी हुई है। आज खेती भी संकट में है, इसीलिए इस ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

हम सब जानते हैं कि हथकरघा को गांधी जी ने स्वतंत्रता की लड़ाई से जोड़ा था। आत्मनिर्भर व स्वावलंबी से जोड़ा था। गांधी जी ने चरखा को काफी महत्व दिया था। इस परिप्रेक्ष्य में गांधी जी सोच बारे में प्रासंगिक है। वे गांवों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजी राज के दिनों में भी हथकरघा बुनकरों के कार्य को बहुत क्षति पहुंचाई गई क्योंकि विदेशी सरकार ने अपने कारखानों में बने सामानों की बिक्री करवाने की और स्थानीय दस्तकारों व बुनकरों की तबाही की नीतियां अपनाईं।

इसके पहले भारतीय कारीगरों और दस्तकारों की दुनिया में ख्याति थी। आजादी के बाद भी स्वतंत्र भारत में इनकी अनदेखी की गई। जबकि देश में बुनकरी व दस्तकारी में बहुत बड़ा रोजगार था। गांधीजी कहते थे कि नई तकनीक व उत्पाद का प्रसार केवल मुनाफे के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है। गांधीजी ने सबसे बड़ी कसौटी बताई, वह थी रोजगार की कसौटी। यह सोच आज भी प्रासंगिक हैं।

ग्लोबल वार्मिंग और मौसम बदलाव के इस दौर में एक और बात महत्वपूर्ण है कि किसी भी नए उत्पाद व तकनीक का स्वास्थ्य और पर्यावरण पर क्या असर पड़ रहा है। कारखानों में काम करने वाले मजदूरों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानी आम बात है। मशीनों के उपयोग से पर्यावरण पर भी उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

इस मद्देनजर हमें अपने हस्तकार, हस्तशिल्प और बुनकरों को बचाना और उनके काम को बचाना जरूरी है। देश में हाथ का कार्य, हुनर बचा रहे तभी गरीबी और बेरोजगारी दूर होगी। गांव में लोगों को रोजगार उपलब्ध हो, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पानी की व्यवस्था हो और लोगों को पलायन न करना पड़े। अगर इस दिशा में आगे बढ़ा जाए तो न केवल रोजगार बचेगा बल्कि गांव भी उजड़ने से बचेंगे और देश भी बचेगा।

हमें आज ऐसी सोच की जरूरत है जिसमें गरीब, पिछड़े व सबसे कमजोर तबके के लोगों की स्थिति में सुधार हो। खेती-किसानी का संकट दूर हो और परंपरागत रोजगारों को फिर से खड़ा किया जा सके। लेकिन क्या इस दिशा में आगे बढ़ेंगे?


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it