गांधीजी की लंगोटी : सादगी से स्वराज तक
भारतीय समाज में पगड़ी सम्मान का प्रतीक मानी जाती थी और नंगे सिर रहना शोक का चिह्न, किंतु गांधीजी ने यह दिखाया कि असली गरिमा वस्त्रों में नहीं, बल्कि सादगी और विनम्रता में है

- अरुण कुमार डनायक
भारतीय समाज में पगड़ी सम्मान का प्रतीक मानी जाती थी और नंगे सिर रहना शोक का चिह्न, किंतु गांधीजी ने यह दिखाया कि असली गरिमा वस्त्रों में नहीं, बल्कि सादगी और विनम्रता में है। गांधीजी के लिए वस्त्र परिवर्तन सुविधा नहीं, निर्धन जनता से एकात्मता का संकल्प था। वे कहते थे 'भारत के करोड़ों किसानों की पोशाक तो लंगोटी ही है, वे इससे अधिक कुछ पहनते ही नहीं हैं।' गांधीजी को विश्वास था कि जिस कार्य को वे स्वयं न कर सकें, उसकी सलाह वे दूसरों को भी नहीं दे सकते।
22 सितम्बर 1921, मदुरै—यह दिन गांधीजी के जीवन और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक अनूठा मोड़ था। इसी दिन उन्होंने टोपी, कुर्ता और धोती त्यागकर सिर मुड़वा लिया और केवल लंगोटी पहनने का निश्चय किया। बुनकरों की सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा 'करोड़ों लोग इतने गरीब हैं कि छोड़े हुए विदेशी कपड़ों की जगह खादी खरीद ही नहीं सकते। उन्हें मैं सलाह देता हूं कि घुटनों तक की एक लंगोटी से ही संतोष करें।' उसी क्षण उन्होंने घोषणा की कि आगे से वे टोपी और सदरी भी नहीं पहनेंगे और केवल लंगोटी तथा आवश्यकता पड़ने पर शरीर ढकने के लिए एक चादर से काम चलाएंगे।
गांधीजी का यह निर्णय आकस्मिक नहीं था। इसके पीछे वर्षों की साधना, अनुभव और जनता के साथ आत्मीय एकता की भावना थी। दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते समय मोहनदास करमचंद गांधी आधुनिक सभ्यता के प्रतीक सूट-बूट पहनते थे, लेकिन अदालत में पगड़ी पहनकर जाना चाहते थे। 1893 में डरबन की अदालत में जब उनसे पगड़ी उतारने का आदेश दिया गया तो उन्होंने इंकार कर दिया-यह उनके आत्मसम्मान की पहली उद्घोषणा थी।
भारत लौटकर उन्होंने धोती, कुर्ता और पगड़ी वाली काठियावाड़ी वेशभूषा धारण की। चंपारण आंदोलन में भी वे इन्हीं वस्त्रों में नज़र आए। धीरे-धीरे उनका जीवन और अधिक सादा होता गया। 31 अगस्त 1920 को उन्होंने हाथ से काते सूत के वस्त्र पहनने की प्रतिज्ञा ली और पगड़ी त्यागकर टोपी धारण की। यही टोपी आगे चलकर 'गांधी टोपी' के नाम से प्रसिद्ध हुई, यहां तक कि ब्रिटिश सरकार ने अपने कर्मचारियों को इसे पहनकर दफ़्तर आने पर प्रतिबंध लगा दिया और शॉ वैलेस एंड कंपनी ने तो एक कर्मचारी कुशालकर को, जवाब देने का अवसर दिए बिना ही,गांधी टोपी पहनने का साहस दिखाने के कारण बर्खास्त कर दिया।
भारतीय समाज में पगड़ी सम्मान का प्रतीक मानी जाती थी और नंगे सिर रहना शोक का चिह्न, किंतु गांधीजी ने यह दिखाया कि असली गरिमा वस्त्रों में नहीं, बल्कि सादगी और विनम्रता में है। गांधीजी के लिए वस्त्र परिवर्तन सुविधा नहीं, निर्धन जनता से एकात्मता का संकल्प था। वे कहते थे 'भारत के करोड़ों किसानों की पोशाक तो लंगोटी ही है, वे इससे अधिक कुछ पहनते ही नहीं हैं।' गांधीजी को विश्वास था कि जिस कार्य को वे स्वयं न कर सकें, उसकी सलाह वे दूसरों को भी नहीं दे सकते।
1921 में दो अक्टूबर को नवजीवन में प्रकाशित लेख में उन्होंने स्वीकार किया कि खुलना के अकालग्रस्त लोग अन्न के बिना मर रहे थे और उसी समय विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के उनके अभियान पर कटाक्ष किए गए। उस क्षण उनके भीतर गहरा द्वंद्व उठा और बारिसाल में उन्होंने वस्त्र त्यागने का निर्णय लगभग ले ही लिया था। मौलाना मुहम्मद अली की वाल्टेयर में गिरफ्तारी के समय भी उनके मन में वस्त्र त्याग का विचार आया, किंतु उन्होंने सोचा कि उस समय ऐसा कदम भावुकता या दिखावे का प्रतीक लगेगा। इसलिए उन्होंने धैर्य रखा और उचित क्षण की प्रतीक्षा की।
मौलाना की गिरफ्तारी पर 22 सितम्बर 1921 को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा 'विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कीजिए, चाहे लंगोटी में ही क्यों न गुज़ारा करना पड़े।' मद्रास यात्रा के दौरान भी आलोचना हुई- लोगों का कहना था कि विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करना व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि न तो पर्याप्त मात्रा में खादी उपलब्ध है और न ही निर्धन जनता के पास इतना धन है कि वह अपेक्षाकृत महंगी खादी खरीद सके। गांधीजी ने गहन विचार के बाद निश्चय किया कि यदि वे स्वयं वस्त्र त्याग का आदर्श प्रस्तुत करें तो ही यह आंदोलन सशक्त होगा। यही वह क्षण था जब उन्होंने अपने मित्र राजाजी के सामने लंगोटी धारण करने का संकल्प लिया। अपना पहनावा बदलने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि जब तक अमीर-गरीब सभी को पर्याप्त स्वदेशी वस्त्र उपलब्ध नहीं हो जाते, तब तक वे केवल एक छोटा-सा कपड़े का टुकड़ा पहनेंगे। आरंभ में यह संकल्प 31 अक्टूबर तक सीमित था, किंतु बाद में उन्होंने इसे आजीवन स्वीकार कर लिया।
1931 में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए जब वे लंदन गए, तो वहां की ठिठुरती सर्दी में भी वे केवल लंगोटी और चादर में पहुंचे। ब्रिटिश नेता विंस्टन चर्चिल ने कटाक्ष किया 'भारत का भविष्य एक आधे नग्न फकीर के हाथों में है।' परंतु गांधीजी अप्रभावित रहे। सबसे उल्लेखनीय क्षण तब आया जब वे बकिंघम पैलेस में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम से मिलने पहुंचे। पत्रकारों ने उनसे पूछा 'आप इतने कम कपड़ों में सम्राट के सामने कैसे पहुँच गए?' गांधीजी ने मुस्कराकर उत्तर दिया 'राजा ने तो इतना सब पहन रखा था कि हम दोनों की पोशाक मिलकर पूरी हो गई।' इस उत्तर में विनोद भी था और निर्भीक आत्मबल भी।
गांधीजी की लंगोटी केवल वस्त्र का टुकड़ा नहीं थी, स्वदेशी आंदोलन की सजीव व्याख्या थी। यह भारत की निर्धन जनता के साथ उनकी आत्मीयता और न्यूनतम आवश्यकताओं में जीवनयापन का आदर्श थी। टोपी और सदरी त्यागने का उनका संकल्प व्यक्तिगत था, इसे उन्होंने किसी अन्य कार्यकर्ता या साथी पर लागू नहीं किया था तथापि उनके आचरण से मौलाना आज़ाद और अली बंधु जैसे नेता भी वस्त्रों में सादगी अपनाने लगे। देशभर में स्वदेशी की लहर फैल गई। स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब सभी खादी पहनकर उनकी सभाओं में पहुंचने लगे। विवाह-समारोहों में नवदम्पत्ति खादी के वस्त्र पहनकर फेरे लेने लगे। गांधीजी की लंगोटी ने यह संदेश दिया कि भारत की स्वतंत्रता विलासिता से नहीं, बल्कि त्याग और आत्मबल से आएगी।
गांधीजी की यह यात्रा केवल बाहरी परिधान की नहीं, बल्कि आत्मा के शोधन और समाज के साथ आत्मीयता की यात्रा थी। आधुनिक सभ्यता के प्रतीक सूट से लेकर सादगी और स्वदेशी के प्रतीक लंगोटी तक पहुंचकर उन्होंने दिखाया कि नेतृत्व केवल विचारों से नहीं, बल्कि जीवन की प्रत्येक क्रिया से प्रकट होता है।
ब्रिटिश सम्राट के सामने लंगोटी में खड़े होकर वे संसार से यही कह रहे थे कि असली गरिमा वस्त्रों में नहीं, बल्कि आत्मबल में है। यही उनकी अमर विरासत है। गांधीजी की लंगोटी आज भी हमें स्मरण कराती है कि सादगी ही सबसे बड़ी शक्ति है और स्वदेशी ही स्वराज का पहला कदम।
(लेखक गांधी विचारों के अध्येता व समाजसेवी हैं)


