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गांधी का 'हिंद स्वराज' : उथल-पुथल में उपयोगी?

गांधीजी ने अपने आखिरी वसीयतनामा में साफ लिखा है कि: राज्यशक्ति हमेशा दमनकारी होती है

गांधी का हिंद स्वराज : उथल-पुथल में उपयोगी?
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गांधीजी ने अपने आखिरी वसीयतनामा में साफ लिखा है कि: राज्यशक्ति हमेशा दमनकारी होती है। यदि राज्य, सत्ता के पीछे पागलों की तरह भागेगा, तो एक दिन जनता और राज्य आमने-सामने खड़े होंगे। ऐसी स्थिति में जनता को चाहिए कि वह अपनी संप्रभुता अपने हाथों में रखे, ग्रामस्वराज्य बनाए और सत्ता के अन्यायपूर्ण आदेशों का अहिंसक असहयोग से सामना करे।

हाल ही में मैं दक्षिण कोरिया में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन में शामिल हुई थी। वहां एक कोरियाई प्रोफेसर 'ली' ने अखबार की कतरनों के आधार पर बताया था कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की खबरों ने कैसे कोरिया की स्वतंत्रता के प्रयासों को दिशा दी थी। सेंसरशिप की वजह से तब वे लोग अपने मुद्दों को सीधे नहीं उठा पाते थे, लेकिन भारत के संघर्ष का जिक्र करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आवाज बुलंद करते थे। उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी केवल भारत की आजादी के कारण ही विश्व प्रसिद्ध नहीं हुए, बल्कि इसलिए भी हुए कि उन्होंने आम लोगों को स्वराज का रास्ता दिखाया और अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने का प्रभावी तरीका भी सिखाया।

दुनिया भर में लोकतंत्र के प्रयोगों का इतिहास दो-ढाई सौ सालों का है। इसमें सभी नागरिकों को, बिना किसी भेदभाव के मताधिकार का अधिकार नया प्रयोग है। अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में काले नागरिकों को मताधिकार, कनाडा में आदिवासियों को मताधिकार, स्विटजरलैंड में महिलाओं को मताधिकार का प्रयोग कुल 50-60 साल पुराना ही है। भारत को यह गौरव हासिल है कि हमने 'एक नागरिक-एक वोट' का अधिकार, बग़ैर किसी भेद-भाव के एक साथ सबको दिया। हमारे नागरिकों को इसके लिए अलग से कोई लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी।

आज जिस तरह के जितने राजनीतिक आंदोलन सारी दुनिया में चल रहे हैं, वैसे व उतने पहले कभी एक साथ चले हों, ऐसा नहीं लगता। 20वीं सदी में भी कई दौर आए, जब दुनिया उबल पड़ी थी। सन् 1940-50 के दशक में उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष हुए; 1960 के दशक में छात्रों और नागरिक अधिकारों के आंदोलन उठे; 1990 के आसपास 'सोवियत संघ' के विघटन और दक्षिण अफ्रीका में 'रंगभेद विरोधी आंदोलन' ने इतिहास बदला। 2010 के दशक में अरब देशों में तानाशाही के खिलाफ 'जैस्मिन क्रांति' फैली, लेकिन 2020 के आसपास शुरू हुई लहर कुछ अलग ही है। यह अधिक व्यापक और एक साथ कई देशों में फैल चुकी है। एक अध्ययन के अनुसार इस समय दुनिया के कम-से-कम 20-22 देशों में बड़े और दीर्घकालिक जन-आंदोलन चल रहे हैं।

नेपाल की जनता ने हाल ही में अपनी ही सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। इससे पहले, 2022 में श्रीलंका के राष्ट्रपति भी अपनी ही जनता के दबाव में देश छोड़कर भागे थे। 2024 में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री को भी पद छोड़कर भागना पड़ा और भारत में शरण लेना पड़ा। इसी सप्ताह अपनी ही सरकार के फैसलों का प्रतिवाद करने इंग्लैंड की सड़कों पर लाखों लोग उतरे। रूस और यूक्रेन आपस में लड़ रहे हैं, लेकिन जानने वाले जानते हैं कि वहां भी सरकारों से लोग असहमत हैं और रास्ते पर हैं। फ्रांस और अर्जेंटीना में बड़े पैमाने पर आंदोलन चल रहे हैं। ईरान में महिलाएं आवाज उठा रही हैं। सब तरफ़ जनता व जनता की चुनी सरकारों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। दुनिया में जो हो रहा है वह बताता है कि लोकतंत्र में कुछ नया घट रहा है। यदि गहराई से जांच की जाए तो इन सब पर महात्मा गांधी का प्रभाव दीखता है।

30 जनवरी 1948 को गोडसे द्वारा हत्या से ठीक एक दिन पहले गांधीजी ने एक दस्तावेज लिखा था। आजादी के बाद वे क्या व किस तरह करेंगे, उसका खाका उन्होंने उस दस्तावेज में खींचा था। उन्होंने 4 फरवरी 1948 को वर्धा के 'सेवाग्राम आश्रम' में एक विशेष बैठक बुलाई थी जिसमें वे अपने खास साथियों के साथ उस योजना की पक्की रूपरेखा बनाने वाले थे, लेकिन वह बैठक हो न सकी। कुछ मूर्ख हिंदू आतंकवादियों ने मिलकर एक क्रांतिकारी संभावना का खून कर दिया, पर वह कैसी क्रांतिकारी संभावना जो एक मनुष्य की हत्या के साथ खत्म हो जाए? मूर्ख ऐसी बारीक बातें समझ पाते तो वे भला मूर्ख क्यों कहलाते!

गांधीजी ने अपने आखिरी वसीयतनामा में साफ लिखा है कि: राज्यशक्ति हमेशा दमनकारी होती है। यदि राज्य, सत्ता के पीछे पागलों की तरह भागेगा, तो एक दिन जनता और राज्य आमने-सामने खड़े होंगे। ऐसी स्थिति में जनता को चाहिए कि वह अपनी संप्रभुता अपने हाथों में रखे, ग्रामस्वराज्य बनाए और सत्ता के अन्यायपूर्ण आदेशों का अहिंसक असहयोग से सामना करे। इस सोच की जड़ें 'हिंद स्वराज' (1909) पुस्तिका में मिलती हैं जिसमें गांधीजी ने संसदीय लोकतंत्र को 'वेश्या' तक कहा था, जो कभी एक मालिक, कभी दूसरे मालिक के आधीन रहती है और जनता की सच्ची प्रतिनिधि नहीं होती। उनके अनुसार हर संसद वकीलों, उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के दबाव में ही काम करती है।

पिछले 40-50 वर्षों के आंदोलनों को इस दृष्टि से देखें तो स्पष्ट है कि जनता की ताकत पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। सरकार वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, जनता का विश्वास टूटता है तो अब लोग सड़कों पर उतरकर प्रतिकार करते हैं। कहीं वे घुसपैठियों के खिलाफ खड़े होते हैं तो कहीं लोकतंत्र की रक्षा के लिए कमर कसते हैं। एक बात सब दूर नज़र आती है कि लोकतंत्र अपने मौजूदा स्वरूप में जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं कर पा रहा है। सरकारें उद्योगपतियों और प्रभावशाली तबकों के लिए काम करती हैं।

इसके पीछे एक बड़ा कारण है, अतिकेंद्रित पूंजी का वैश्विक मॉडल! दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सारी दुनिया में फिर एक बार आर्थिक ढांचा ऐसा बनाया गया कि ताकत उन्हीं के हाथों में रहे जो पहले से ताकतवर थे। मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण, विकास, बाज़ार, संविधान, न्यायपालिका, शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक मूल्य और नैतिकता— ये सब उसी एक ढांचे के कल-पुर्जे हैं। गांधीजी ने इसे 'शैतानी सभ्यता' कहा था, जो डर और लालच पर टिकी है, मानवीय मूल्यों पर नहीं। स्वतंत्रता, समानता, मजदूर एकता जैसे आदर्श जरूर बताए गए, लेकिन केंद्रित पूंजी का आधुनिक आर्थिक ढांचा ऐसा है ही नहीं कि वह मनुष्य को ऊंचे आदर्शों की तरफ़ प्रेरित कर सके।

गांधीजी इन सबके बीच एक अपवाद-से दिखाई देते हैं। उन्होंने अपने विचारों और प्रयोगों के माध्यम से न केवल अफ्रीका में, बल्कि यूरोप और एशिया के महाद्वीपों में भी सत्य के प्रयोग किए। यह गांधीजी की सीख ही है जिससे प्रेरित होकर दुनिया के कोने-कोने में लोग सवाल पूछने लगे हैं कि धरती अगर एक घर है तो इस घर में रहने वाली और आगे आने वाली पीढ़ियों का बराबर का अधिकार क्यों नहीं है? अगर शक्तिशाली लोग कमजोरों का हक़ छीनते हैं तो कमजोरों के पास कौन-सा हथियार है जिसके बल पर वे मुकाबला कर सकें? गांधीजी ने अपने सत्याग्रहों द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया कि संपूर्ण एकता, अहिंसा, सत्याग्रह, असहकार आदि ऐसे हथियार हैं जिनसे कैसे भी लाइलाज मर्ज का उपचार किया जा सकता है।

संगठित-सक्रिय नागरिक एक कमजोर भीड़ नहीं, बल्कि जादुई जिन्न है जो एक बार बाहर आ गया तो आसानी से फिर चिराग में वापस नहीं जाएगा। इसलिए दुनिया भर के सत्ताधीश अपनी जनता से सावधान रहते हैं, कानून और संविधान का डंडा सबसे ज्यादा अपने नागरिकों पर चलाते हैं। दूसरी तरफ़, परिवर्तन की चाह रखने वाली जनता को भी अच्छी तरह समझने की जरूरत है कि क्रांति कोई अचानक से घट जाने वाली घटना नहीं, बल्कि एक सतत, संपूर्ण प्रक्रिया है। चार बातों को गांठ बांध लें: एक, नागरिकों को एक होकर शांतिमय आंदोलन दृढ़तापूर्वक चलाना है; दो, आंदोलन की लगाम आंदोलन करने वालों के हाथ में रहे; तीन, आंदोलन के नेताओं पर भी आम जनता का नियंत्रण रहे; चार, आंदोलन का लक्ष्य साफ हो तथा सभी उसी दिशा में अनुशासन के साथ बढ़ें। ये चार बातें चालीस रास्ते खोल देंगी।

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता और गांधीवादी-अर्थशास्त्र की अध्येता हैं।)


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