ललित सुरजन की कलम से - राजनीति में वंचित समाज के लिए जगह कहाँ?
'यदि तर्क के लिए मान लिया जाए कि आदिवासी अथवा वंचित समाज के नेताओं में काबिलियत का अभाव है तो सवाल उठता है कि इस स्थिति को सुधारने के लिए उनकी पार्टी ने क्या किया

'यदि तर्क के लिए मान लिया जाए कि आदिवासी अथवा वंचित समाज के नेताओं में काबिलियत का अभाव है तो सवाल उठता है कि इस स्थिति को सुधारने के लिए उनकी पार्टी ने क्या किया। क्या यह दोष उन लोगों का नहीं है जिसके हाथ में देश की राजनीति की बागडोर है?
यहां हम जमुनादेवी और रेशमलाल जांगड़े के उदाहरण ले सकते हैं। एक आदिवासी महिला और एक दलित- इन दोनों ने 1952 में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। जमुना देवी का पिछले साल ही निधन हुआ और उन्हें म.प्र. विधानसभा में विपक्ष के नेता से बड़ा कोई पद नहीं मिल पाया, जबकि श्री जांगडे क़ो लोकसभा के साठ साल होने पर सम्मानित होने का अवसर तो मिला लेकिन वे भी राजनीति में पूरी जिन्दगी बिताने के बाद कोई खास पहचान नहीं बना पाए। कारण साफ है।
इन्हें जानबूझकर आगे बढने से रोका गया। इस आरोप के समर्थन में सबसे बडा प्रमाण बाबू जगजीवन राम के रूप में हमारे सामने है। वे तो हर दृष्टि से एक योग्य और कुशल राजनेता और प्रशासक थे।
आज जिस तरह प्रणब मुखर्जी की खूबियां को गिना-गिना कर उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए सर्वथा उपयुक्त प्रत्याशी माना जा रहा है, तो जगजीवन राम उनसे भी कहीं यादा योग्य थे, लेकिन न कांग्रेस और न जनता दल (जिसमें तब का जनसंघ और आज की भाजपा शामिल थी) ने उन्हें न तो राष्ट्रपति बनाने की सोची, न प्रधानमंत्री पद पर उनकी उम्मीदवारी स्वीकार की।'
(देशबन्धु में 05 जुलाई 2012 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/07/blog-post.html


