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ललित सुरजन की कलम से - आम खाने का सुख

'मैं देख रहा हूं कि अब बांजार में लाख ढूंढने पर भी ऐसे फल नहीं मिलते, जो प्राकृतिक रूप से पके हों

ललित सुरजन की कलम से - आम खाने का सुख
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'मैं देख रहा हूं कि अब बांजार में लाख ढूंढने पर भी ऐसे फल नहीं मिलते, जो प्राकृतिक रूप से पके हों। दूसरी तरफ अखबारों में छपने वाले कॉलम पढ़ें तो उनमें निरोग रहने के लिए फल और सलाह ज्यादा से ज्यादा सेवन करने की सलाह दी जाती है।

इन डॉक्टरों और आहार-विशेषज्ञों से कोई पूछे कि हानिकारक रसायनों से युक्त फल या सलाद खाने से कोई भी कैसे निरोग रह सकता है। हम तो देखते हैं कि सम्पन्न किसान (याने जिनका मुख्य व्यवसाय कुछ और है, वरना खेती और सम्पन्नता?) बांजार में बेचने के लिए रसायनों का उपयोग करते हैं और स्वयं अपने उपभोग के लिए जैविक कृषि करते हैं। इधर आर्थिक उदारीकरण के इस युग में यह भी हो रहा है कि फलों का जूस, सॉस, मुरब्बा इत्यादि बनाने वाली कंपनियां किसानों से किराए पर खेत ले लेती हैं और वहां अपने मानकों के अनुसार बीज, खाद, कीटनाशक का प्रयोग करती हैं। उनका सोचना है कि आलू पैदा हो तो हर आलू का वजन, आकार, रंग एकरूप हो; टमाटर हो तो वह भी वैसा ही और पपीता भी वैसा ही।

याने प्रकृति में जो अन्तर्निहित विविधता है, उसे खत्म कर दिया जाए। प्राकृतिक सुन्दरता का तिरस्कार कर अब कृत्रिम लुभावनापन पैदा किया जा रहा है। सब कुछ फेयर एवं लवली होना चाहिए।'

(4 जून 2011 को देशबन्धु में प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/05/blog-post_9793.html


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