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ललित सुरजन की कलम से—विकलांग चेतना का दौर

'सब जानते हैं शास्त्रीजी की मृत्यु ताशकंद में हुई थी। यह भी कोई छुपी बात नहीं है कि शास्त्रीजी को दिल की बीमारी थी।

ललित सुरजन की कलम से—विकलांग चेतना का दौर
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'सब जानते हैं शास्त्रीजी की मृत्यु ताशकंद में हुई थी। यह भी कोई छुपी बात नहीं है कि शास्त्रीजी को दिल की बीमारी थी।

ताशकंद की जनवरी की हाड़ जमा देने वाली ठंड का उनकी सेहत पर क्या असर हुआ होगा यह सिर्फ अनुमान का विषय है, लेकिन जिस सोवियत संघ ने ताशकंद में सुलह वार्ता के लिए लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान दोनों को आमंत्रित किया था, उसकी कोई दिलचस्पी शास्त्रीजी की मृत्यु में होगी, यह कैसे और क्यों माना जाए? अपनी धरती पर किसी मेहमान की मृत्यु सोवियत सरकार के लिए अप्रत्याशित और दु:खद घटना ही रही होगी। दूसरी तरफ शास्त्रीजी की मृत्यु से भारत में किसको लाभ होता, यह भी एक नाहक प्रश्न है। याद रखना चाहिए कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मोरारजी देसाई वरिष्ठतम नेता थे तथा नेहरूजी व शास्त्रीजी दोनों की मृत्यु के बाद वे प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। इस तथ्य को ध्यान में रखेंगे तो अनर्गल आरोप का उत्तर अपने आप मिल जाएगा।'

(देशबन्धु में 15 अक्टूबर 2015 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/10/blog-post_14.हटम्ल

जातिवाद का जहर और दलित उत्पीड़न

हरियाणा में आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कु मार का अंतिम संस्कार इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं हो पाया है, वहीं हरियाणा सरकार के दो मंत्री, मुख्य सचिव, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव जैसे बड़े अधिकारी पूरन कुमार के परिजनों से मुलाकात कर उन्हें अंतिम संस्कार और पोस्टमार्टम के लिए मनाने में जुटे हुए हैं। इस मामले में हरियाणा सरकार ने रोहतक के पुलिस अधीक्षक नरेंद्र बिजारनिया को हटा दिया है। आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार की पत्नी ने उन पर आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया था।

बता दें कि पूरन कुमार का शव 7 अक्टूबर मंगलवार को उनके घर पर मिला था। पुलिस ने इसे आत्महत्या बताया। अपनी मौत से पहले दिवंगत अधिकारी ने एक नोट छोड़ा है, जिसमें वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा जातिगत प्रताड़ना और अपमान के आरोप उन्होंने लगाए। पूरन कुमार ने लिखा कि 2020 में तत्कालीन डीजीपी मनोज यादव ने मेरा उत्पीड़न शुरू किया, हरियाणा कैडर के अन्य अधिकारी आज भी प्रताड़ित कर रहे, तत्कालीन एसीएस गृह राजीव अरोड़ा ने मुझे छुट्टियां नहीं दी। मैं अपने बीमार पिता से मिलने तक नहीं जा सका। वर्षों तक मुझे मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ा। मेरे खिलाफ छद्म नामों से दुर्भावनापूर्ण शिकायतें की गईं। सार्वजनिक रूप से मुझे अपमानित और शर्मिंदा किया गया। अपने उत्पीड़न की एक लंबी फेरहिस्त देते हुए पूरन कुमार ने लिखा कि- मैं और अधिक प्रताड़ना बर्दाश्त नहीं कर सकता, इसीलिए मैंने सब कुछ खत्म करने का निर्णय लिया है।

यकीन करना मुश्किल है कि 21 वीं का चौथाई हिस्सा निकल गया है और भारत में दलित उत्पीड़न खत्म ही नहीं हो रहा है। कहा जाता है कि कमजोर वर्गों को शिक्षा की शक्ति से लैस किया जाए, तो उनकी स्थिति में सुधार आएगा। लेकिन यहां ये तर्क भी नाकाम दिख रहा है।

रायबरेली में गरीब हरिओम वाल्मिकी को पीट-पीट कर मारना, देश के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई पर जूता फेंकना और फिर सोशल मीडिया पर उसे सही ठहराया जाना और एक पुलिस सेवा के एक वरिष्ठ लेकिन दलित अधिकारी का उत्पीड़न के कारण आत्महत्या करना या उससे पहले वैज्ञानिक बनने की चाह रखने वाले छात्र रोहित वेमुला का आत्महत्या करना, तमाम मामले इस बात की गवाही चीख-चीख कर दे रहे हैं कि दलितों की स्थिति में तब तक सुधार नहीं आ सकता, जब तक इस देश से मनुवादी सोच का पूरी तरह खात्मा नहीं हो जाता। लेकिन अभी तो हाल ये है कि मनुस्मृति को ही धर्म बताकर संघ और भाजपा के समर्थकों का बड़ा हिस्सा उसे संविधान में तब्दील करने की तैयारी में है। राहुल गांधी ने इस बारे में संसद से ही देश को चेतावनी दे दी थी कि भाजपा मनुस्मृति को लागू करना चाहती है, संविधान को नहीं।

लेकिन उनकी बात को राजनीति कहकर टालने की कोशिश सरकार कर रही है। हालांकि देश देख रहा है कि राहुल गांधी एक बार फिर सही साबित हो रहे हैं। पूरन कुमार की आत्महत्या मामले में आरोपियों को बचाने की कोशिशें हुईं, लेकिन उनकी पत्नी अमनीत पी. कुमार जो कि खुद 2003 बैच की आईएएस अधिकारी हैं, उन्होंने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई और मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि, 'पुलिस की एफआईआर में नाम हटाए गए और एससी एसटी एक्ट के सेक्शन कमजोर किए गये।' अमनीत कुमार खुद प्रशासन और कानून की बारीकियों से वाकिफ हैं, इसलिए वे समझ गईं कि आरोपियों को बचाने की कैसी चालाकी चल रही है। अगर उनकी जगह आईपीएस अधिकारी की पत्नी साधारण पृष्ठभूमि की होतीं या इस बात को नहीं समझ पाती तो शायद इस मामले में पीड़ित को ही दोषी बताकर मामला दबा दिया जाता।

अब तो विपक्ष ने भी इस पर पुरजोर आवाज़ उठाई है। मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ लिखा, वहीं सोनिया गांधी ने एक कदम आगे बढ़कर अमनीत कुमार को ही चि_ी लिखी और इस संघर्ष में उनके साथ खड़े होने का यकीन दिलाया। आम आदमी पार्टी ने भी इस पर सवाल उठाए हैं कि कैसे आज भी दलितों को मध्ययुगीन प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है। विपक्ष अपना दायित्व निभा रहा है, लेकिन राज्य और केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा को इसमें राजनीति नजर आ रही है। क्या भाजपा यह नहीं जानती कि विपक्ष का काम उसकी गलतियों और कमजोरियों पर ध्यान दिलाना है, बाकी जी हुजूरी का सारा काम मीडिया तो कर ही रहा है, विपक्ष के दल भी अगर ऐसे ही सरकार की चापलूसी करने लगें तो फिर लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म हो जाएगा। क्या भाजपा यही चाहती है कि इस देश में लोकतंत्र और संविधान न रहे।

वैसे भी एनसीआरबी का डेटा बताता है- 2013-2023 के बीच दलितों पर अत्याचार 46 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति पर 91प्रतिशत तक बढ़ा है। 2023 में 57,789 दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 15,368 मामले फिर मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार जैसे भाजपा शासित राज्य है, इसे महज संयोग माना जाए या फिर मनुवादी सोच पर आधारित सरकार और प्रशासन का परिणाम। अपराधी बेखौफ हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि यहां आज भी ब्राह्मण के आगे देवता लगाकर बात करना समाज को अजीब नहीं लगता। बाबा साहेब अंबेडकर से पहले, उनके काल में और आज तक दलितों की स्थिति समाज में जस की तस है। समस्या शिक्षा की कमी नहीं, नसों में जातिवाद के फैले जहर की है, जो दलितों के लिए उच्च स्थान कतई बर्दाश्त नहीं कर पाता है।

नफरत ही खाना, नफरत ही पीना, नफरत रोज बढ़ाना: जय भाजपा!

— शकील अख्तर

अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री की दिल्ली में हुई प्रेस कान्फ्रेंस में केवल पुरुष पत्रकार जाएंगे इस पर मोदी सरकार को कोई आपत्ति नहीं हुई। उल्टा जब नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने इसमें महिला पत्रकारों को नहीं जाने दिए जाने का सवाल उठाया तो विदेश मंत्री एस जयशंकर गोदी मीडिया और भक्तों, ट्रोलों वाला यह बचकाना तर्क देने लगे कि अपने दूतावास में वे किसे बुलाएं किसे नहीं यह उनका अधिकार है।

दलितों के खिलाफ मन में इतना जहर! उन्हें नीचा दिखाने के लिए वे जिन्हें अपना सबसे बड़े नेता मानते हैं उन डॉ. अम्बेडकर को रैलियां निकाल कर अंग्रेजों का गुलाम कहा जा रहा है।

मध्य प्रदेश के ग्वालियर में स्थिति विस्फोटक हो गई है। यहां दिल्ली की तरह एक सामान्य वकील नहीं बल्कि ग्वालियर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे अनिल मिश्रा लगातार डॉ. अम्बेडकर को गालियां दे रहे हैं। उनके खिलाफ पुलिस में एफआईआर भी दर्ज की गई है मगर इसके बावजूद वे न केवल अम्बेडकर के खिलाफ बोल रहे हैं बल्कि उनके समर्थन में बड़ी तादाद में आ गए उनकी विचारधारा के वकील और राजनीतिक लोग भी अब इसे बढ़ाकर संविधान निर्माता के तौर पर उनका नाम हटाकर वी एन राव का नाम लिखने की मांग कर रहे हैं। साथ ही आरक्षण खत्म करने की।

देश में नफरत और विभाजन को कहां तक ले आया गया है यह ग्वालियर में अम्बेडकर के खिलाफ दिए जा रहे बयानों से मालूम पड़ता है। जिन वकीलों ने अम्बेडकर के खिलाफ मुहिम शुरू की है वे अब खुलेआम पुलिस को चैलेंज कर रहे हैं कि अम्बेडकर के खिलाफ बोलने वाले वकील अनिल मिश्रा को गिरफ्तार करके दिखाओ!

राज्य सरकार की हिम्मत नहीं पड़ रही है। प्रशासन ने केवल अभी धारा 144 लगाकर जुलूस प्रदर्शनों पर रोक का इंतजाम किया है। अम्बेडकर देश में हमेशा से दक्षिणपंथियों के निशाने पर रहे हैं। देश में सबसे ज्यादा प्रतिमाएं अम्बेडकर की तोड़ी गई हैं। कारण स्पष्ट है अम्बेडकर ने मनुवाद को सीधे चैलेंज किया था। सौ साल होने वाले हैं जब उन्होंने मनुस्मृति को जलाया था। 1927 में। और इसके बाद संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने संविधान में एससी एसटी के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी।

बीजेपी आरएसएस जो कभी सामाजिक समानता के सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर पाई वह दलित पिछड़े आदिवासियों में पैठ बनाने के लिए तो अम्बेडकर की बात करती है मगर मन से कभी उन्हें स्वीकार नहीं कर पाती। इसलिए संघ ने उस समय संविधान का विरोध किया था। उस समय संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर ने लिखा था: 'हम संविधान को कभी स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। मनुस्मृति ही दुनिया में प्रशंसित है। 1949 में।'

यहां इस विरोधाभास को रेखांकित करना भी जरूरी है कि आज उसी प्रतिक्रियावादी सोच के लोग दावा कर रहे हैं कि संविधान अम्बेडकर ने नहीं वीएन राव ने लिखा था। तो अगर राव ने लिखा था जिसे वे ब्राह्मण होने के कारण स्वीकृति और सम्मान दे रहे हैं तो फिर संघ ने इसका विरोध क्यों किया था?

मूल समस्या अम्बेडकर के दलित होने से है। बीजेपी आरएसएस के लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि कोई दलित इतना विद्वान हो सकता है कि वह संविधान लिखे। आज भी जो सारा आन्दोलन आरक्षण के खिलाफ होता है उसमें यही कहा जाता है कि इसके द्वारा आए हुए लोग अयोग्य होते हैं।

यह झूठ नफरती विचार फैलाए तो हमेशा से जा रहे हैं मगर पहले इसका असर उतना होता नहीं था। मगर अब जब से इनकी सरकार आई है नफरत का असर दिखने लगा है। और अब तो इतना विस्फोटक हो गया है कि अपनी काबिलियत मेहनत से चीफ जस्टिस आफ इंडिया बने बीआर गवई का अपमान करने के लिए उन पर जूता फेंका जाता है। और कोई पछतावा नहीं, माफी नहीं बल्कि उसे उचित ठहराया जाता है। जूते फेंकने वाले के इंटरव्यू धड़ाधड़ हो रहे हैं। मीडिया उन्हें हीरो की तरह पेश कर रहा है। उत्साहित भक्त ट्रोल और धमकियां दे रहे हैं कि दूसरे जजों के साथ ऐसा होगा। सड़क पर होगा।

डर का माहौल है। सुप्रीम कोर्ट के किसी जज, किसी हाई कोर्ट की हिम्मत नहीं पड़ रही कि जूता मारने वाले के खिलाफ कुछ बोल सके। और आप पक्का मानिए अगर वह कोर्ट में चला गया कि बार कौंसिंल ने उसके वकालत करने पर कैसे रोक लगाई है या बार एसोसिएशन ने उसे कैसे निष्कासित किया है तो उसे तुरंत राहत मिल जाएगी। हो सकता है कोई कोर्ट जस्टिस गवई पर ही टिप्पणी करने की गलती उनकी थी।

कुछ भी हो सकता है। जो चाहते थे वह माहौल बना लिया। पहले मुस्लिम के खिलाफ बनाया। मुस्लिम होना ही गुनाह हो गया। उससे जुड़ी हर चीज पर सवाल खड़े कर दिए। खुद प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री स्तर पर। इसके बाद क्या बचता है?

मगर विरोध केवल भारत के मुस्लिम का। भारत के बाहर के मुस्लिम का नहीं। अभी आपने तालिबान सरकार का प्रकरण देखा। इस तालिबान के खिलाफ देश में कितना प्रोपेगंडा चलाया गया। भाजपा से लेकर गोदी मीडिया तक सबने।

उद्देश्य उनका विरोध नहीं था। असली मकसद था उनके बहाने भारत के मुसलमानों को बदनाम करना। किसी भी दाढ़ी वाले को देखते ही खासतौर से नौजवान को उसे तालिबानी कहने लगते थे। मगर अब जब तालिबानी आए तो उन्हें गार्ड आफ आनर दिया गया।

अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री की दिल्ली में हुई प्रेस कान्फ्रेंस में केवल पुरुष पत्रकार जाएंगे इस पर मोदी सरकार को कोई आपत्ति नहीं हुई। उल्टा जब नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने इसमें महिला पत्रकारों को नहीं जाने दिए जाने का सवाल उठाया तो विदेश मंत्री एस जयशंकर गोदी मीडिया और भक्तों, ट्रोलों वाला यह बचकाना तर्क देने लगे कि अपने दूतावास में वे किसे बुलाएं किसे नहीं यह उनका अधिकार है। एकदम गलत।

भारत में भारत के किसी से भेदभाव नहीं होगा का कानून लागू होगा। कल शनिवार को हमने इसके बहुत सारे उदाहरण दिए हैं ट्वीटर फेसबुक पर उन्हें नहीं दोहराएंगे। एक नया उदाहरण। ज्यादातर देशों में जाति का कान्सेप्ट नहीं है तो जातिगत आधार पर भेदभाव का सवाल ही नहीं। लेकिन हमारे यहां एससी एसटी (अत्याचार निवारण) कानून है। अब अगर किसी विदेशी दूतावास के अंदर किसी के साथ जातिगत भेदभाव होता है तो दूतावास इस आधार पर नहीं बच सकता कि यह तो हमारे यहां अंदर हुआ है। करने वाला और पीड़ित दोनों भारतीय होंगे तो करने वाला भारतीय उस देश की आड़ में बच नहीं पाएगा।

बड़ा कानून, प्रिंसिपल लॉ हर जगह लागू होता है। महिला के साथ भारत में कोई भी कहीं भी भेदभाव नहीं कर सकता। और साफ कर दें। क्योंकि खुद उन विदेश मंत्री ने कहा है जो भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) के हैं। सर्वोच्च पद विदेश सचिव रह चुके हैं। सारे कानून मालूम हैं। यह भी कि कोई भी विदेशी जब भारत में है तो उस पर क्रिमिनल और सिविल सभी मामलों में भारतीय कानून लागू होंगे।

एक अनपढ़ दौर आया है कुछ भी बोल दो। नेता बोलते हैं तो वह विदेश मंत्री जयशंकर भी विदेश सेवा से आए हैं, कुछ भी बोल देते हैं। उद्देश्य एक ही है तालिबान को खुश करना। आखिर एकमात्र दोस्त है। कभी ऐसा पाकिस्तान के साथ होता था। भारत से युद्ध में उसके साथ केवल एक ही देश खड़ा होता था। अमेरिका। आज मोदी जी ने हमारी वह हालत कर दी है कि हमारे साथ अभी पाकिस्तान के साथ संघर्ष में केवल एक ही देश था। यही अफगानिस्तान की तालिबान सरकार।

देश हर मोर्चे पर पीछे जा रहा है। बस केवल नफरत में बढ़ रहा है। मुस्लिम से दलित, दलित से पिछड़ा आदिवासी और उसके बाद बचे कितने? जो बचे हैं सब एक दूसरे के खिलाफ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

इतिहास की पुनरावृत्ति, तालिबान से मित्रता

— तुहिन

अफगानिस्तान में प्रगतिशील सरकार और अफगानिस्तान की प्रगतिशील ताकतों को खत्म करने के लिए अस्सी के दशक में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने पाकिस्तान के सहयोग से इस्लामिक कट्टरपंथियों को हथियारबंद करके और भलीभांति प्रशिक्षित कर तालिबान को तैयार किया। तालिबान ने वामपंथी सरकार के पतन के बाद गृह युद्ध में नॉर्दर्न एलायंस को हराकर काबुल में प्रवेश किया।

अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में 26 साल पहले कंधार में भारत के तत्कालीन विदेशमंत्री जसवंत सिंह ने तालिबान के विदेश मंत्री मु_ावकिल से समझौता किया था। उद्देश्य था- आईसी-415 एयर इंडिया फ्लाइट (जिसे पाक और तालिबान समर्थित आतंकवादियों ने अगवा किया था), के मुद्दे को सुलझाना। इस समझौते के आधार पर जैश ए मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर को रिहा किया गया और पाकिस्तान भेजा गया।

उस समय भी भाजपा की सरकार थी। 26 साल बाद इसी भाजपा की सरकार ने तालिबान को औपचारिक मान्यता दी है और हाल ही में दिल्ली में तालिबान के वर्तमान विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी के साथ भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बैठक की और समझौता हुआ।

ये तालिबान कौन है?: अफगानिस्तान में प्रगतिशील सरकार और अफगानिस्तान की प्रगतिशील ताकतों को खत्म करने के लिए अस्सी के दशक में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने पाकिस्तान के सहयोग से इस्लामिक कट्टरपंथियों को हथियारबंद करके और भलीभांति प्रशिक्षित कर तालिबान को तैयार किया। तालिबान ने वामपंथी सरकार के पतन के बाद गृह युद्ध में नॉर्दर्न एलायंस को हराकर काबुल में प्रवेश किया। इसके लिए तालिबान ने नॉर्दर्न एलायंस के नेता 'पंजशीर का शेर' अहमद शाह मसूद सहित कई मुजाहिदीन नेताओं की निर्मम हत्या की। अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद सबसे पहले उन्होंने पांचवे अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह और उनके सलाहकारों को काबुल में संयुक्त राष्ट्र संघ के दूतावास से जबरन निकालकर कुत्ते की तरह मारकर लैंप पोस्ट में लटका दिया। उन्होंने देश में मौजूद संग्रहालयों, अन्य धर्मों से संबंधित तमाम स्मारक मूर्तियों को जिनमें विश्व विख्यात बामियान की बुद्ध मूर्ति (जो यूनेस्को की विश्व विरासत थी), भी शामिल थी, को ध्वस्त कर दिया।

तालिबान ने अपने पहले कार्यकाल में (जब तक तालिबान भस्मासुर नहीं बन गया और उनके जन्मदाता अमरीकी साम्राज्यवाद उनसे नाराज नहीं हो गए) 15 अगस्त 2021 में अमेरिका द्वारा उनको काबुल का शासन सौंपने के बाद दूसरे कार्यकाल में घोर प्रगति विरोधी, मध्य युगीन प्रतिक्रियाशील रूढ़िवादी धार्मिक कानूनों और घोर महिला विरोधी कानूनों को लागू किया। तालिबान ने बहुत क्रूर मध्ययुगीन तरीके से अपने विरोधियों, बड़ी संख्या में महिलाओं, बच्चों को मार डाला और इस तरह से एक प्रगतिशील शिक्षित अफगानिस्तान को पिछड़ेपन ज़हालत और बर्बादी में धकेल दिया। जब तक पाकिस्तान के धार्मिक सैन्य केंद्र से इसकी गलबहियां चलती रही तब तक सब ठीक था। अब अफगान तालिबान द्वारा पैदा किए गए तहरीक-ए-तालिबान, जो पाकिस्तान के अंदर आतंकवादी गतिविधियां कर रहा है उससे पाकिस्तान को परेशानी हो रही है।

इसलिए अब पाकिस्तान के हुक्मरान और अफगानिस्तान के तालिबानी शासकों के संबंधों में खटास आ गई है। दूसरी ओर, चूंकि भारत की मोदी सरकार विदेश नीति के मामले में न केवल अपने पड़ोसी देशों से बल्कि दुनिया के अधिकांश देशों से अलग-थलग पड़ गया है। इसीलिए उसे पाकिस्तान को पटखनी देने के लिए एक सहयोगी की जरूरत है। भले ही वह घोर धार्मिक कट्टरपंथी प्रगति-विरोधी तालिबान शासक ही क्यों न हो।

तालिबान को आतंकवादी जियोनवादी इजरायल और उसके संरक्षक अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा गज़ा को श्मशान बनाने में या मध्य पूर्व के अन्य देशों में और दुनिया भर में उसके आका अमेरिकी शासकों द्वारा इस्लामोफोबिया के नाम पर शोषण, लूट या दमन से कुछ लेना-देना नहीं है। इसलिए उसको भारत के घोर जन-विरोधी और मुस्लिम-विरोधी संघ परिवार या उसके मार्गदर्शन में संचालित भाजपा सरकार से हाथ मिलाने में तो खुशी ही होगी और दूसरी ओर देखिए दुनिया के सबसे बड़े और सबसे पुराने फासीवादी संगठन क्रस्स् को भी कोई समस्या नहीं है। इस्लाम का झंडा फहराकर देश को मध्य युग में ले जाने वाले तालिबान से मित्रता करने में। कारण यह है कि चाहे अफगानिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र बनाकर बर्बाद करने वाले आतंकवादी तालिबान हो या मनुस्मृति आधारित हिंदुराष्ट्र के नाम पर देश को लूटने वाला संघ परिवार हो दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों कॉरपोरेट पूंजीवादी और दुनिया की जनता के दुश्मन नंबर एक अमेरिकी साम्राज्यवाद के अनुगत हैं और घोर प्रगति-विरोधी, समाज-विरोधी और मानवता विरोधी हैं।


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