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ललित सुरजन की कलम से - परिभाषा और आंकड़ों में उलझी गरीबी

'यह बात विचित्र लगती है कि देश में बड़े स्तर पर हुए उन घोटालों का ढिंढोरा तो बहुत पीटा जाता है जिनका आम जनता के साथ प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है

ललित सुरजन की कलम से - परिभाषा और आंकड़ों में उलझी गरीबी
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'यह बात विचित्र लगती है कि देश में बड़े स्तर पर हुए उन घोटालों का ढिंढोरा तो बहुत पीटा जाता है जिनका आम जनता के साथ प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है, लेकिन जब बात आम आदमी से जुड़े सीधे मसलों याने रोटी, कपड़ा, मकान, पढाई, सेहत जैसे सीधे प्रश्नों की हो वहां भ्रष्टाचार पर परदा डालने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जाती।

ऐसा क्या इसलिए है कि निचले स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार में जनता का एक बड़ा वर्ग भी अक्सर स्वेच्छा से शामिल रहता है और उसे उजागर करने में सामान्य व्यक्ति खतरा महसूस करता है? मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से ही उदाहरण लें तो कितने ही शासकीय कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के प्रकरण हाल के समय में उजागर हुए, लेकिन उनमें से एक पर भी कोई सटीक कार्रवाई पिछले दस साल के दौरान सुनने नहीं मिली।'

(देशबन्धु में 01 अगस्त 2013 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/07/blog-post_31.html


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