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ललित सुरजन की कलम से - संकीर्ण स्वार्थ की राजनीति

'भारत में अब तक सोलह आम चुनाव हो चुके हैं। इस लंबी अवधि में यह स्वाभाविक होता कि जनतांत्रिक राजनीति धीरे-धीरे कर पुष्ट और परिपक्व होती

ललित सुरजन की कलम से - संकीर्ण स्वार्थ की राजनीति
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'भारत में अब तक सोलह आम चुनाव हो चुके हैं। इस लंबी अवधि में यह स्वाभाविक होता कि जनतांत्रिक राजनीति धीरे-धीरे कर पुष्ट और परिपक्व होती, लेकिन अभी जो दृश्य सामने है उसमें लगता है कि हम सामंतवादी युग की ओर वापिस लौट रहे हैं।

सामंतवाद याने स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता। यह भावना बलवती होती जा रही है कि जिसे एक बार सत्ता मिल गई वह उसका मनमाना उपभोग करे। आज नागरिक महज मतदाता बनकर रह गया है।

उसका दायित्व सिर्फ इतना है कि मन करे तो पांच साल में एक बार जाकर अपना वोट डाल आए और इच्छा न हो तो घर बैठा रहे। इस बीच जिन्हें चुना गया है उनका आचरण कैसा है इस बारे में सोचने-समझने की फुर्सत अब शायद किसी के पास नहीं है।

यह अधिकार तो जनता ने अपने पास रखा है कि वह चाहे तो पांच साल में एक बार सरकार पलट दें, लेकिन क्या इतना काफी है?'

(देशबन्धु में 22 सितंबर 2016 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2016/09/blog-post_22.html


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