ललित सुरजन की कलम से: 'नक्सली हिंसा : लोकतंत्र पर हमला'
एक समय प्राण, जीवन, कन्हैयालाल जैसे खलनायक होते थे जिन्हें देखकर समझ आ जाता था कि वे क्या करने वाले हैं।

'जब लोकतंत्र पर हमले की बात की जाती है तो इस बारे में भी विचार करना होगा कि आतंकवादियों अथवा नक्सलवादियों द्वारा खुलेआम अंजाम दिए गए हिंसक कृत्यों के परे क्या कहीं वे शक्तियां भी काम कर रहीं हैं जो भीतर ही भीतर पोशीदा तरीके से भारतीय लोकतंत्र को नष्ट करने में लगी हुई हैं? हिन्दी फिल्म के एक संदर्भ से तुलना करने से बात बेहतर समझ आ सकेगी। एक समय प्राण, जीवन, कन्हैयालाल जैसे खलनायक होते थे जिन्हें देखकर समझ आ जाता था कि वे क्या करने वाले हैं। फिर गोविंद निहलानी की फिल्म 'अर्धसत्य' आई जिसमें सदाशिव अमरावपुरकर ने खलनायक के बाह्य व्यक्तित्व को एकदम से बदल दिया। यह बात वृहत्तर फलक पर हम अपने वर्तमान समय में लागू कर सकते हैं जहां मीठी-मीठी बातें और ऊंचे-ऊंचे वायदे तो बहुत हैं, लेकिन हकीकत में कहानी कुछ और ही है।'
(देशबन्धु में 31 मई 2013 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/05/blog-post_30.हटम्ल


