ललित सुरजन की कलम से - मोदी, हिन्दी और संस्कृत
'भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है कि जो वैदिक संस्कृत थी आगे चलकर उसका स्थान लौकिक संस्कृत ने ले लिया

'भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है कि जो वैदिक संस्कृत थी आगे चलकर उसका स्थान लौकिक संस्कृत ने ले लिया, फिर उसकी जगह पर प्राकृत आ गई तथा इस तरह धीरे-धीरे विभिन्न कारणों से संस्कृत का प्रचलन कम होते चला गया।
यह सच है कि संस्कृत में अनुपम साहित्य रचना हुई, लेकिन क्या यह भी उतना सच नहीं है कि अवधी व ब्रजभाषा में ऐसे क्लासिक ग्रंथ रचे गए जिनकी लोकप्रियता पांच सौ साल बाद भी बरकरार है, भले ही विद्वान इन दोनों को भाषा का दर्जा न देकर हिन्दी की बोली के रूप में शुमार करते हैं और यह जो हिन्दी है इसका प्रारंभिक रूप तो हमें सात सौ साल पहले अमीर खुसरो की रचनाओं में मिलता है।
अब इन सारे तथ्यों को जोड़कर देखें तो समझ में आता है कि अन्य समाजों की तरह हमारे यहां भी भाषा निरंतर परिवर्तित और विकसित होते गई है। इसके पीछे आर्थिक, सामाजिक, व राजनैतिक ये सभी कारण रहे। इस तरह हमें एक ऐसी भाषा मिली जिसका बीज भले ही संस्कृत में रहा हो, लेकिन जिसे पुष्ट करने का काम फारसी व सीमित रूप में अरबी, तुर्की व अन्य ज़बानों ने भी किया।
इस खड़ी बोली हिन्दी की वकालत महात्मा गांधी व जवाहरलाल नेहरू ने की थी और वे इसे हिन्दुस्तानी कहना पसंद करते थे, जिससे एक समग्रता का बोध होता था।'
(देशबन्धु में 12 जून 2014 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/06/blog-post_11.html


