ललित सुरजन की कलम से - पत्रकारिता की मिशनरी परंपरा और पतन
मुझे दो मुख्य कारण समझ में आते हैं जिन्होंने 1975 के आसपास, शायद कुछ पहले से, पत्रकारिता को प्रभावित करना प्रारंभ किया

मुझे दो मुख्य कारण समझ में आते हैं जिन्होंने 1975 के आसपास, शायद कुछ पहले से, पत्रकारिता को प्रभावित करना प्रारंभ किया। एक तो मुद्रण तकनीकी में हो रहे विकास के चलते अखबारों की पूंजीगत लागत व आवश्यकता निरंतर बढऩे लगी थी जिसने छोटे और मझोले अखबारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।
दूसरे, इसी दरम्यान नवपूंजीवादी ताकतें मजबूत होने लगीं थीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा कायम होने लगा था, और वे विभिन्न देशों की आंतरिक राजनीति में अधिक खुलकर हस्तक्षेप करने लगी थीं।
अमेरिका का सैन्य-औद्यौगिक गठजोड़ बांग्लादेश निर्माण के समय से इंदिरा गांधी से क्षुब्ध था और भारत में उनका साथ देने पूंजीवादी शक्तियाँ भी आगे आ गई थीं। करेले पर नीम चढऩे की कहावत यहाँ चरितार्थ हुई।
कल तक जिसे हम जूट प्रेस के नाम से जानते थे, वह अब कारपोरेट मीडिया में कायाकल्प होने की ओर बढऩे लगा था।
(तद्भव के पत्रकारिता विशेषांक में प्रकाशित लेख)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2020/09/blog-post_5.html


