ललित सुरजन की कलम से - माधवराव सप्रे
यह निबंध प्रथमत: 1907 में प्रकाशित हुआ था और मेरे लिए यह विस्मयजनक था कि सौ वर्ष पूर्व इस विषय पर कोई लेख लिखा जा सकता था

यह निबंध प्रथमत: 1907 में प्रकाशित हुआ था और मेरे लिए यह विस्मयजनक था कि सौ वर्ष पूर्व इस विषय पर कोई लेख लिखा जा सकता था ! इसमें हड़ताल के बारे में सप्रेजी ने जो विचार व्यक्त किए उनसे यह अनुमान भी हुआ कि वे अपने समय से आगे एक उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे, मुझे इस बात ने और भी आकर्षित किया।
इस निबंध के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं -
'जब किसी देश में सम्पत्ति थोड़े-से पूंजी वालों के हाथ में आ जाती है और अन्य लोगों को मजदूरी से अपना निर्वाह करना पड़ता है तब पूंजी वाले अपने व्यापार का सब नफा स्वयं आप ही ले लेते हैं और जिन लोगों के परिश्रम से यह सम्पत्ति उत्पन्न की जाती है, उनको वे पेट भर खाने को नहीं देते। ऐसी दशा में श्रम करने वाले मजदूरों को हड़ताल करनी पड़ती है।'
'मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने नफे का हिस्सा किसी दूसरे को देना नहीं चाहता। जो पूंजी वाले अपनी पूंजी लगाकर, बड़े-बड़े व्यवसाय करते हैं, वे यही चाहते हैं कि सब नफा अपने ही हाथों में बना रहे, जिन मजदूरों के श्रम से व्यवसाय किया जाता है, उनको उस नफे का कुछ भी हिस्सा न मिले। इसी को अर्थशास्त्र में 'पूंजी और श्रम का हित-विरोध' कहते हैं।'
अक्षर पर्व अक्टूबर 2014 अंक की प्रस्तावना
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/10/blog-post.html


