ललित सुरजन की कलम से - सेंसरशिप: प्लेटो से अब तक
'एक सभ्य समाज में सच कहा जाए तो न तो सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने की आवश्यकता पडऩी चाहिए और न आए दिन सेंसरशिप के कानूनी प्रावधानों को लागू करने की

'एक सभ्य समाज में सच कहा जाए तो न तो सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने की आवश्यकता पडऩी चाहिए और न आए दिन सेंसरशिप के कानूनी प्रावधानों को लागू करने की। एक आदर्श स्थिति तो वही होगी जहां आमने-सामने बैठकर बातचीत से विवादों के हल निकाले जाएं।
एक मौजूं उदाहरण अखबारी जगत में देखा जा सकता है। पत्र-पत्रिकाओं में संपादक के नाम पत्र के लिए नियमित रूप से स्थान रहता है। किसी पाठक को छपी हुई सामग्री में कोई बात आपत्तिजनक प्रतीत हो तो वह संपादक को पत्र लिखकर अपना पक्ष सामने रख सकता है और यदि संपादकीय त्रुटि है तो वह अखबार से खेदप्रकाश या क्षमायाचना की अपेक्षा भी कर सकता है। यहां बात खत्म हो जाती है।
यह दो पक्षों के बीच का सभ्यतापूर्ण व्यवहार है और इसमें समय, श्रम व धन तीनों की बचत है।'
(अक्षर पर्व अप्रैल 2015 अंक की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/04/blog-post_7.html


