ललित सुरजन की कलम से - उसमें प्राण जगाओ साथी- 15
'चुनावी राजनीति का एक प्रसंग 1985 में फिर घटित हुआ। मेरे पास प्रस्ताव आया कि रायपुर ग्रामीण या मंदिर हसौद से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लडूं

'चुनावी राजनीति का एक प्रसंग 1985 में फिर घटित हुआ। मेरे पास प्रस्ताव आया कि रायपुर ग्रामीण या मंदिर हसौद से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लडूं। मैंने संदेशवाहक को स्पष्ट मना कर दिया। इसके पहले बाबूजी से पूछा गया था कि हम ललित को टिकट देना चाहते हैं, आपको कोई आपत्ति तो नहीं। तब बाबूजी ने जवाब दिया था- ललित से सीधे बात कर लेना बेहतर होगा, लेकिन मैं जहां तक समझता हूं वे हां नहीं कहेंगे।
बाबूजी ने यह बात मुझे नहीं बताई, लेकिन मैंने वही किया जो उनके मन में संभवत: था। दो-तीन साल बाद वही संदेशवाहक भोपाल-रायपुर विमान यात्रा में मिल गए। मुझसे पूछा शास्त्री जी (प्रोफेसर रणवीरसिंह शास्त्री) कैसा काम कर रहे हैं।
मैंने कुछ जवाब दिया होगा। फिर उन्होंने कुछ दु:ख के साथ कहा कि आपको गोल्डन अर्पाच्युनिटी मिली थी, उसे आपने ठुकरा दिया। मैंने इसका उत्तर यह कहकर दिया कि मैं पत्रकार के रूप में इस तरह बेहतर हूं कि मुझ से विधायकों के कामकाज के बारे में राय ली जा रही है।
अगर आपका प्रस्ताव स्वीकार कर विधायक बन गया होता तो मेरे बारे में आप किसी और से पूछ रहे होते।'
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/04/15.html


