Top
Begin typing your search above and press return to search.

बांध विरोध के चालीस साल

'नर्मदा बचाओ आंदोलन' अपने चार दशकों के सफर में सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण, सही जल-प्रबंधन, आदिवासी-किसानों-महिलाओं के सशक्तिकरण और मानवाधिकारों की लड़ाई का एक जीवंत प्रतीक बना है

बांध विरोध के चालीस साल
X

- रेहमत

'नर्मदा बचाओ आंदोलन' अपने चार दशकों के सफर में सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण, सही जल-प्रबंधन, आदिवासी-किसानों-महिलाओं के सशक्तिकरण और मानवाधिकारों की लड़ाई का एक जीवंत प्रतीक बना है। दुनिया में कम लोग हैं जो सरकारी दमनचक्र और उपेक्षा के बावजूद टूटे नहीं और संघर्ष की जलती मशाल अपनी अगली पीढ़ियों को सौंपते रहे।

नर्मदा घाटी की तीन पीढ़ियों ने सामाजिक न्यालय और पर्यावरण संरक्षण की एक लौ को बड़ी शिद्दत से जलाए रखा है। करीब 40 बरस में मशाल बन चुके 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' का सफर छोटा नहीं है। 'सरदार सरोवर बाँध' की मुखालिफत से शुरु हुई इस लड़ाई के पहले पर्यावरण शब्द नया था, हालांकि इसे लेकर 'मूलशी बांध विरोध,' 'चिपको आंदोलन,' 'सेव सायलेंट वेली' और 'मिट्टी बचाओ अभियान' जैसे आंदोलन अपनी छाप छोड़ चुके थे। 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' ने 'सरदार सरोवर' से प्रभावित होने वाले निमाड-मालवा के आदिवासी-किसानों के पुनर्वास और वित्तीय मामलों के साथ प्रभावितों की रोजी-रोटी, उपजाऊ खेती और जंगलों के विनाश का मामला भी उठाया था। आंदोलन की सक्रियता के कारण विकास परियोजनाओं को पर्यावरणीय नजरिए से भी देखा-परखा जाने लगा।

आंदोलन के प्रभाव क्षेत्र में लोग अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए और उन्होंपने विस्थादपन के अलावा अन्य मामलों को भी उठाया। यह सिलसिला अभी भी जारी है। 'सरदार सरोवर' के संघर्ष से प्रेरणा लेकर नर्मदा घाटी के ही 'बरगी,' 'भीमगढ़,' 'इंदिरा सागर,' 'औंकारेश्वहर,' 'महेश्वगर,' 'अपर वेदा,' 'लोअर गोई,' 'मान,' 'जोबट' आदि बांधों के प्रभावित अपने अधिकारों के लिए खड़े होते गए और 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' का हिस्सा बने। ऐसे संघर्ष देश के अन्यन हिस्सों में भी दिखाई दिए। यह एक आंदोलन के जनांदोलन बनने का उदाहरण है।

'नर्मदा बचाओ आंदोलन' का केन्द्रो पश्चिमी मध्यप्रदेश, उत्तरी महाराष्ट्र और पूर्वी गुजरात का पहाड़ी आदिवासी इलाका और मैदानी निमाड़ इलाके का ग्रामीण अंचल रहा है। इन इलाकों में आमतौर पर महिलाओं की भागीदारी कम दिखाई देती है, लेकिन आंदोलन ने वैचारिक और रणनैतिक वजहों से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की। नतीजे में सार्वजनिक कार्यक्र मों में आधी से अधिक संख्याम में महिलाएं दिखाई देती रहीं। महिलाओं की यह भागीदारी केवल सार्वजनिक प्रदर्शनों तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे निर्णय प्रक्रिया में भी हिस्सा लेती थीं। आंदोलन के माध्यम से हुआ महिला सशक्तिकरण घरेलू मामलों से लेकर गांव-समाज में भी दिखाई दिया।

प्रभावितों की लड़ाई केवल नागरिकों के हकों की उपेक्षा करने वाली सरकारों के विरोध तक सीमित नहीं थी। 'सरदार सरोवर परियोजना' के लिए 45 करोड़ डॉलर का कर्ज देने पर विश्व बैंक को भी नर्मदा घाटी में विनाश का जिम्मेदार ठहराया गया और अंतत: उसे पीछे हटना पड़ा। पर्यावरण और पुनर्वास संबंधी चिंताओं के कारण विश्व बैंक द्वारा 'सरदार सरोवर परियोजना' की आर्थिक मदद रोकना एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय घटना और आंदोलन की जीत थी। तब तक कोई ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिला था जिसमें विश्व बैंक ने कभी किसी परियोजना से अपना हाथ खींचा हो।

जो चिंताएं भारत की बांध परियोजना में देखी गईं, वे ही दुनिया की अन्य बांध परियोजनाओं में भी थीं। इसलिए आंदोलन ने सम-विचारी समूहों के साथ मिलकर विश्व बैंक को बाध्य किया कि वह अपनी मौजूदा कर्ज नीति में बदलाव करे, ताकि दुनिया में कहीं भी सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय विनाश को रोका जा सके। विश्व बैंक को इसके लिए राजी होना पड़ा और 'इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़रवेशन ऑफ नेचर' (आईयूसीएन) के साथ मिलकर बड़े बांधों के सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक प्रभावों की समीक्षा हेतु 'विश्व बांध आयोग' का गठन करना पड़ा। इसमें आंदोलन की ओर से मेधा पाटकर को आयुक्त के रुप में शामिल किया गया। दक्षिण अफ्रीका के जल-संसाधन मंत्री कादर अस्माल की अध्यक्षता वाले 'विश्व बांध आयोग' की रिपोर्ट के बाद विश्व बैंक को अपनी कर्ज नीति में बदलाव करना पड़ा और उसने कई सालों तक बांध परियोजनाओं को कर्ज देना बंद रखा।

आंदोलन ने ऐसी सरकारें देखी हैं जिन्होंने प्रभावितों के जीवन, रोजी-रोटी और अधिकारों की लड़ाई को खारिज किया था। कुछ सरकारों ने आंदोलनकारियों के खिलाफ दमनचक्र भी चलाया, लेकिन जिन सरकारों ने उपेक्षा नहीं की, वे भी प्रभावितों को उनके अधिकार देने में अनिच्छुक ही रहीं। प्रभावित किसानों को अपने ही राज्य में 'जमीन के बदले जमीन' देने की बंधनकारी नीति के बावजूद मध्य प्रदेश की सरकारों ने जमीन देना कभी स्वीकार नहीं किया। मध्य प्रदेश में उद्योगपतियों को आसानी से जमीन, पानी और बिजली उपलब्ध करवाने वाली सरकार सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र देती थी कि विस्थापितों के लिए जमीन उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद आंदोलन करीब 20 हजार परिवारों को जमीन दिलवाने में सफल रहा। इनमें बड़ी संख्या भूमिहीन परिवारों की है। यह छोटी उपलब्धि नहीं है।

कुछ हजार परिवारों को और भी जमीन मिल सकती थी यदि आंदोलन की एक रणनीतिक चूक न होती। सर्वोच्च न्यायालय ने अक्टूबर 2001 के अपने आदेश में पुनर्वास नीति को बरकरार रखा था। इस कारण मध्य प्रदेश सरकार के लिए भी खेती की जमीन देकर पुनर्वास करने की बाध्यता थी। सरकार तो किसी भी कीमत पर प्रभावितों को जमीन देने के पक्ष में नहीं थी इसलिए जमीन के बदले 5 लाख 58 हजार रुपए अनुदान का विकल्प दिया। अनुदान राशि एकमुश्त न देकर 2 किश्तों में भुगतान की गई और अनुदान की पहली किश्त यानी आधी अनुदान राशि से पूरी 5 एकड़ जमीन खरीदकर रजिस्ट्री करवाने की शर्त रखी गई। अनुदान भुगतान का यह तरीका व्यवहारिक नहीं था। संपत्ति की रजिस्ट्री उधारी में नहीं होती।

इस अतार्किक शर्त का फायदा शातिर अधिकारियों और दलालों के गठजोड़ ने उठाया। गठजोड़ ने करीब 3 हजार से अधिक आदिवासियों और किसानों की फर्जी रजिस्ट्री करवाते हुए खूब चांदी काटी और प्रभावितों को जमीन से वंचित कर दिया। कुछ सालों तक चले इस फर्जीवाड़े में आंदोलन की भूमिका पूर्ववत नगद अनुदान के विरोध की रही। आंदोलन की इस भूमिका ने फर्जीवाड़ा आसान कर दिया, क्योंकि तब फर्जीवाड़े में शामिल गिरोह को आंदोलन की निगरानी का डर भी नहीं बचा था। 5 लाख 58 हजार रुपए की अनुदान राशि से तब 5 एकड़ जमीन मिलना संभव था। उस समय आंदोलन यदि अनुदान राशि से जमीन खरीदने में प्रभावितों की मदद करता तो फर्जीवाड़े पर भी लगाम लगती और कुछ अधिक प्रभावितों को जमीन मिल पाती। हालांकि आंदोलन के प्रयासों से फर्जीवाड़े की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्रवण शंकर झा की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया था, लेकिन फर्जीवाड़े में शामिल किसी अधिकारी-कर्मचारी के खिलाफ सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की।

मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के आदिवासी इलाके में एक तो स्कूल ही नहीं थे और जो थे वे भी कागजों पर चलते थे। इन स्कूलों को शुरु करवाने के लिए आंदोलन ने काफी प्रयास किए, लेकिन सफलता नहीं मिली। अंत में आंदोलन ने निर्णय लिया कि उसे ही संघर्ष के साथ शिक्षा का मोर्चा भी खोलना पड़ेगा। इस प्रकार 'पढ़ाई-लड़ाई साथ-साथ के उद्देश्थ को लेकर 'जीवन-शालाओं' की शुरुआत हुई। इन 'जीवन-शालाओं' ने न सिर्फ उस इलाके की पहली पीढ़ी को शिक्षित किया, बल्कि उनसे निकले कई छात्र-छात्राएं आज शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर और राज्य स्तर के खिलाड़ी हैं।

'नर्मदा बचाओ आंदोलन' अपने चार दशकों के सफर में सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण, सही जल-प्रबंधन, आदिवासी-किसानों-महिलाओं के सशक्तिकरण और मानवाधिकारों की लड़ाई का एक जीवंत प्रतीक बना है। दुनिया में कम लोग हैं जो सरकारी दमनचक्र और उपेक्षा के बावजूद टूटे नहीं और संघर्ष की जलती मशाल अपनी अगली पीढ़ियों को सौंपते रहे। नर्मदा घाटी के साधारण से ग्रामीण किसान-आदिवासी, मछुआरों, खेतीहर मजदूरों आदि ने इस आंदोलन को एक बांध से कहीं आगे ले जाकर विशाल परियोजनाओं के प्रभावों और उनकी समीक्षा तक पहुंचा दिया। इन साधारण लोगों का असाधारण, अदम्य साहस और उनके द्वारा जलाई मशाल आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।

(लेखक बड़वानी स्थित 'मंथन अध्ययन केंद्र' से जुड़े हैं।)


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it