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कांग्रेस का सुख, मोदी का दुख

नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थकों ने उन्हें दैवीय पुरुष बना दिया है। मोदी खुद को ब्रह्मांड की असीम ऊर्जा से संपन्न अवतरित बता चुके हैं

कांग्रेस का सुख, मोदी का दुख
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  • सर्वमित्रा सुरजन

किसी देश के लिए दो सदियों तक गुलाम रहना और फिर भी अपनी आत्मा को बचाए रखना आसान नहीं था। अंग्रेजी हुकूमत ने हर तरह से भारत को तोड़ने की कोशिश की। हमारे रंग से लेकर भाषा, पहनावे, रीति-रिवाज, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक वैविध्य सबका मखौल उड़ाया। फिर भी अंग्रेजों के सामने भारतीय डटे रहे। 1857 से लेकर 1947 तक एक लंबा संघर्ष आजाद होने के लिए चलता रहा।

नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थकों ने उन्हें दैवीय पुरुष बना दिया है। मोदी खुद को ब्रह्मांड की असीम ऊर्जा से संपन्न अवतरित बता चुके हैं, उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि उन्हें लगता नहीं कि वे अपनी मां की कोख से जैविक तौर पर जन्मे हैं। देश का मीडिया दिन-रात मोदी-मोदी के नाम की माला जपता है और विदेशों में जब प्रधानमंत्री जाते हैं तो वहां भी उनके नाम की दीवानगी दिखाई जाती है। कई ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं जब साक्षात मोदी को देखकर लोग अपनी खुशकिस्मती पर रो पड़े। इतना यश, सम्मान, सत्ता, संपत्ति, सुविधाएं सब मिलने के बावजूद न जाने कौन सी हीन ग्रंथि है जो नरेन्द्र मोदी को असली सुख से वंचित रख रही है। वो सुख जो देश के विपक्ष को, कांग्रेस पार्टी को हासिल है कि आज भले वे कम वोट मिलने से हार रहे हैं, लेकिन इस देश को बनाने में उनका जो योगदान रहा है, उसे सब याद करते हैं। देश उस पेड़ के फल तोड़ रहा है, उस पेड़ की छाया में चैन पा रहा है, जो आजादी के वक्त कांग्रेस और उसके साथियों ने लगाया था। संविधान नाम के इस पेड़ के बीज दो सौ साल की गुलामी से छुटकारा पाकर लगाए गए थे।

किसी देश के लिए दो सदियों तक गुलाम रहना और फिर भी अपनी आत्मा को बचाए रखना आसान नहीं था। अंग्रेजी हुकूमत ने हर तरह से भारत को तोड़ने की कोशिश की। हमारे रंग से लेकर भाषा, पहनावे, रीति-रिवाज, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक वैविध्य सबका मखौल उड़ाया। फिर भी अंग्रेजों के सामने भारतीय डटे रहे। 1857 से लेकर 1947 तक एक लंबा संघर्ष आजाद होने के लिए चलता रहा, जिसमें लाखों लोगों ने कुर्बानियां दीं। मगर इन लाखों लोगों में आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने एक भी पुरखे का नाम नहीं बता पाता है। नरेन्द्र मोदी नहीं बता सकते कि वे जिस विचारधारा की राजनीति करते हैं, उसके प्रणेताओं का आजादी की लड़ाई में क्या योगदान है। यही वह हीन ग्रंथि है, जो उन्हें सत्ता के शीर्ष पर होने के बावजूद बेचैन रखे हुई है। और ये बेचैनी तब और बढ़ जाती है, जब याद दिलाया जाता है कि नेहरू खानदान ने देश को आजाद कराने के लिए कितना योगदान और कुर्बानी दी। और जब आजाद लेकिन बेहद कमजोर हो चुके देश को बतौर प्रधानमंत्री नेहरूजी ने संभाला तो कितनी जल्दी उसे विकासशील देशों की कतार में खड़ा कर दिया।

पिछले 11 सालों से नरेन्द्र मोदी नेहरू जी को कमतर दिखाने की कोशिश में लगे हैं और उनसे पहले ये काम संघ के लोग करते चले आ रहे हैं। लेकिन किसी भी तरह उन्हें सफलता नहीं मिल रही। ऊपर से लोग सवाल और कर देते हैं कि बताओ जब अंग्रेज स्वाधीनता सेनानियों पर अत्याचार कर रहे थे, तो आपके पुरखे उनका साथ क्यों दे रहे थे। भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों की मदद क्यों कर रहे थे। जब देश के लिए जेल जाते वक्त लोग इंकलाब जिंदाबाद और वंदे मातरम् के नारे लगाते थे, तब आपके पुरखे कहां छिप कर बैठे थे। इन सवालों का कोई जवाब जब नरेन्द्र मोदी नहीं तलाश पाए तो उन्होंने वंदे मातरम् के डेढ़ सौ साल पूरे होने पर संसद में चर्चा कराने का दांव चला। मोदी को लगा होगा कि कम से कम इस तरह वे इतिहास में अपना नाम दर्ज करा पाएंगे कि एक प्रधानमंत्री ऐसा भी हुआ जिसने सारे जरूरी मुद्दों को छोड़कर राष्ट्रगीत पर चर्चा कराकर अपनी देशभक्ति दिखाई। लेकिन हाय रे किस्मत, नरेन्द्र मोदी यहां भी मात खा गए।

उन्हें क्या पता था कि जिन जरूरी मुद्दों पर चर्चा से बचना था, वो वंदेमातरम् पर चर्चा के साथ ही उठ जाएंगे। वंदे मातरम् पर 10 घंटों की चर्चा में मोदी के भाषण समेत भाजपा के तमाम नेताओं के भाषणों में नेहरू से कमतर होने की कुंठा नजर आई। इनके लिए मल्लिकार्जुन खड़गे ने संसद में कहा भी कि नेहरूजी का कद ऊंचा है और ऊंचा ही रहेगा। और आप नीचे हैं, नीचे ही रहेंगे। अब भाजपा के लोग इस बात का भला-बुरा मानते रहें, लेकिन सच्चाई तो वो झुठला नहीं सकते। रहा सवाल वंदे मातरम् का, तो उस पर प्रियंका गांधी ने बखूबी जवाब दिया है कि मोदीजी ने ये तो कहा कि एक अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने वंदेमातरम् का गान किया था, लेकिन वे ये नहीं कह पाए कि वो अधिवेशन कांग्रेस का था। प्रियंका ने पूछा कि कांग्रेस अधिवेशनों में तो हमेशा वंदे मातरम् गाया जाता है, संघ या भाजपा के कार्यक्रमों में ऐसा क्यों नहीं होता।

इसी तरह मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि हम तो शुरु से वंदे मातरम् बोल रहे हैं और आगे भी कहेंगे, लेकिन आप लोगों ने ऐसा क्यों नहीं किया। विपक्ष की तरफ से तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोईत्रा और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह ने भी जबरदस्त भाषण दिए। महुआ मोईत्रा ने वंदे मातरम् के अंतरों की व्याख्या करके मोदी सरकार का सच से साक्षात्कार करवा दिया। उन्होंने कहा कि जिस 'मां' को हम प्रणाम करते हैं, सत्ता ने उसे नारे में बदल दिया है। सुजलाम, सुफलाम का मतलब समझाते हुए महुआ मोइत्रा ने कहा कि जिस 'धरा' को शस्य-श्यामला कहा, उसका किसान कज़र् और सूखे में टूट रहा है। जिस 'जल' को जीवन माना, उसी जल पर ठेके और कंपनियां कब्ज़ा कर रही हैं। मलयज शीतलाम, यानी ठंडी, सुखद हवा आज नहीं बची है, दिल्ली प्रदूषण में हांफ रही है। सुखदाम, वरदाम यानी सुख और वरदान देने वाली मां के बच्चे आज दम तोड़ रहे हैं। महुआ मोईत्रा ने यहां कई बीएलओ की मौत का जिक्र किया, जो एसआईआर के काम में लगे थे, लेकिन उनकी अकाल मौत हुई और सरकार इस पर कुछ नहीं कर रही है। उन्होंने कहा कि सत्ता सिफ़र् नारा बचा रही है, भूमि की पीड़ा नहीं। वंदे मातरम् सिर्फ गीत नहीं, चेतना है। और चेतना को घायल कर गीत का जाप करने से देशभक्ति नहीं बचती।

वहीं संजय सिंह ने भगत सिंह जैसे अमर शहीदों का जिक्र कर भाजपा से पूछा कि संघ के चार लोगों के नाम बता दो जो वंदे मातरम् कहते हुए जेल चले गए या फांसी के तख्ते को चूम लिया।

कुल मिलाकर वंदे मातरम् पर चर्चा करवाकर मोदी जो सियासी लाभ हासिल करना चाहते थे, वह और बड़ा नुकसान करवा गया। बस अच्छी बात यह हुई कि संसद के जरिए देश एक बार फिर आजादी के इतिहास की गलियों में घूम आया।

इस इतिहास में ये बात भी दर्ज है कि कांग्रेस ने जिस सांप्रदायिक नजरिए को दूर रखने के लिए वंदेमातरम् के केवल पहले दो अंतरों को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया, शहीदे आजम भगत सिंह के विचार भी वही थे। क्रांतिकारी व लेखक यशपाल ने सिंहावलोकन में लिखा है कि भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा में तय किया था कि धर्मनिरपेक्षता को दर्शाने के लिए अल्लाहू अकबर, सत श्री अकाल और वंदेमातरम् के नारे न लगाकर इंकलाब जिंदाबाद और हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए जाएंगे।

तो अब क्या मोदी भगत सिंह और उनके साथियों की देशभक्ति पर भी सवाल उठाएंगे। वैसे इतिहास को पढ़ने, जानने और समझने वाले ये बात जानते हैं कि वंदे मातरम्, जयहिंद और इंकलाब-जिंदाबाद यही तीन नारे स्वाधीनता आंदोलन में गूंजा करते थे। इनके अलावा डॉ. अल्लामा इकबाल की अमर रचना सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा भी कौमी तराना माना जाता था। आज भी स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर यह गाया जाता है। इसकी धुन प्रख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर ने तैयार की थी। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना जैसी पंक्ति लिखने वाले और हिंदू और मुस्लिम को एक चेहरे पर दो सुंदर आंखें कहने वाले इकबाल खुद पाकिस्तान चले गए। लेकिन इससे सारे जहां से अच्छा का महत्व कम नहीं हो जाता।

वंदे मातरम् तो कांग्रेस की सभाओं गाया जाता था। वहीं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज के लिए जयहिंद नारा गढ़ा गया। नेताजी ने जब आजाद हिंद फौज का गठन किया, तो उनके अपने फौजी जवानों के अभिवादन के लिए किसी शब्द की जरूरत महसूस हुई। नेताजी के सचिव आबिद हसन सफरानी ने तब जयहिंद का नारा गढ़ा। 1946 में एक चुनावी सभा में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जनता से जयहिंद का उद्घोष करने का आह्वान किया था। 15 अगस्त 1947 को भी अपने ऐतिहासिक भाषण का समापन पं.नेहरू ने जयहिंद के उद्घोष से किया था। यह ऐतिहासिक तथ्य है।

वहीं भगत सिंह और उनके साथी इंकलाब जिंदाबाद कहते थे। यह नारा रूसी क्रांति से प्रेरित था। रूसी लेखक मक्सिम गोर्की के ऐतिहासिक उपन्यास मां का नायक पावेल अदालत को मंच बनाकर अपनी क्रांतिकारी विचारधारा को लोगों तक पहुंचाता है। समझा जाता है कि इसी से प्रेरित होकर भगत सिंह और बटुकेश्वरदत्त ने पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड यूनियन पर अंकु श लगाने वाले बिल के विरोध में असेम्बली में आवाज करने वाला बम फेंका था। और इंकलाब जिंदाबाद कहा था। 1921 में मशहूर शायर हसरत मोहानी ने मुस्लिम लीग के सालाना जलसे में, आज़ादी-ए-कामिल (पूर्ण आज़ादी) की बात करते हुए यह नारा दिया था। भगत सिंह इस बात को मानते थे कि ब$गैर इं$कलाब के लोग सांप्रदायिकता के जाल में फंस जाएंगे। उनके लिए आजादी केवल अंग्रेजों का देश से जाना नहीं था, बल्कि सांप्रदायिक नफरत से लोगों को मुक्त करना, शोषण के दुष्चक्र में फंसे किसानों, मजदूरों को मुक्त करना ही असली आजादी थी।

कोई वंदे मातरम् कहे या इंकलाब जिंदाबाद कहे, उन स्वाधीनता सेनानियों की देशभक्ति नारों से परे एक जैसी थी। आज मोदी सरकार उसी खेल को बढ़ा रही है, जिसके खिलाफ ये नारे गढ़े गए।


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