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छोकर: चुनाव सुधार के लिए संघर्षरत अंतरात्मा हुई मौन

चुनावी बॉंड मामले की मुख्य याचिकाकर्ता संस्था एडीएआर के प्रमुख प्रो. छोकर से उसी दौरान किसी यूट्यूबर ने पूछा, ''क्या आपको इस बात का डर नहीं लगता कि ईडी आपके घर पर भी आ सकती है

छोकर: चुनाव सुधार के लिए संघर्षरत अंतरात्मा हुई मौन
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  • अनिल जैन

चुनावी बॉंड मामले की मुख्य याचिकाकर्ता संस्था एडीएआर के प्रमुख प्रो. छोकर से उसी दौरान किसी यूट्यूबर ने पूछा, ''क्या आपको इस बात का डर नहीं लगता कि ईडी आपके घर पर भी आ सकती है?'' उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया था- ''ईडी वाले आएंगे तो मैं उन्हें प्यार से चाय पिलाकर वापस भेजूंगा। मेरे घर ऐसा है ही क्या जो वे ले जाएंगे?''

चुनाव सुधार की दिशा में लगातार सक्रिय रहने वाले एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के सह-संस्थापक और देश में लोकतांत्रिक पारदर्शिता के प्रखर पैरोकार प्रोफेसर जगदीप एस. छोकर का 12 सितंबर को 81 वर्ष की आयु मे निधन हो गया। ऐसे समय जब देश में सरकार की शह पर चुनाव सुधार के नाम पर चुनाव प्रक्रिया संदिग्ध बनाने के प्रयास जारी हैं, चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था की बजाय एक सरकारी विभाग के रूप में काम कर रहा है और उसके द्वारा संविधान की अनदेखी करते हुए की जा रही मनमानी ने चुनाव प्रक्रिया को पूरी तरह संदिग्ध बना दिया है, तब प्रो. छोकर का निधन देश के लिए एक बड़ी और अपूरणीय क्षति है।

उल्लेखनीय है कि साल 1999 में छोकर और आईआईएम में उनके सहयोगी रहे त्रिलोचन शास्त्री ने मिलकर एडीआर की स्थापना की थी। दोनों ने चुनाव में उम्मीदवारों की व्यक्तिगत जानकारी को पारदर्शी बनाने की मांग करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। उस याचिका में कहा गया था कि लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को नामांकन दाखिल करते समय कोर्ट में अपने खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की जानकारी देना अनिवार्य होना चाहिए।

साल 2000 में दिल्ली हाई कोर्ट ने उनकी उस याचिका पर फैसला देते हुए सांसदों और विधायकों को अपने आपराधिक मामलों का खुलासा करने का आदेश दिया। हाई कोर्ट के इस आदेश को केंद्र की तत्कालीन एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा। हालांकि केंद्र सरकार ने इस फैसले को टालने के लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 में संशोधन किया और उम्मीदवारों को आपराधिक पृष्ठभूमि सार्वजनिक रूप से घोषित करने से छूट देने की कोशिश की, लेकिन 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को भी खारिज कर दिया।

अप्रैल, 2024 में अंग्रेजी अखबार 'मिड डे' से बातचीत में प्रो. छोकर ने कहा था कि इस चुनाव सुधार को रोकने की सरकार की कोशिश ने उनमें आगे भी चुनाव सुधार की दिशा में काम करने का उत्साह भर दिया। तब से लेकर अपने जीवन के आखिरी समय तक छोकर ने कई मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चुनाव सुधार और पारदर्शिता के लिए लड़ाइयां लड़ीं और ज्यादातर में जीत भी हासिल की। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों को नामांकन दाखिल करते वक्त अपनी संपत्ति की घोषणा करने की अनिवार्यता भी उनके ही प्रयासों का परिणाम रही।

इस सिलसिले में एक दिलचस्प वाकया उस समय का है जब सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉंड को चुनौती देने वाली याचिकाओं की लगातार सुनवाई का दौर चल रहा था। केंद्र सरकार हरसंभव कोशिश कर रही थी कि उसकी गर्दन बच जाए और याचिकाएं खारिज हो जाएं। सरकार के दबाव में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का प्रबंधन भी इस बात की पुरजोर कोशिश कर रहा था कि बॉंड के जरिये राजनीतिक दलों को चंदा देने वाली कंपनियों के नाम सार्वजनिक न करने पड़ें। इसके लिए वह तरह-तरह के बहाने कोर्ट के सामने पेश कर रहा था।

सरकार समर्थक मीडिया सत्ताधारी पार्टी का आईटी सेल की ओर से 'विदेशी साजिश' और 'टूल किट' जैसे चिर-परिचित जुमले उछाले जा रहे थे, ताकि राजनीतिक व्यवस्था और चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता की मांग कर रहे लोगों की साख पर बट्टा लगाया जा सके। इन सबके बीच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) भी पूरी सक्रियता से अपने काम में भिड़े हुए थे। यानी रोजाना इधर-उधर छापे पड़ रहे थे।

चुनावी बॉंड मामले की मुख्य याचिकाकर्ता संस्था एडीएआर के प्रमुख प्रो. छोकर से उसी दौरान किसी यूट्यूबर ने पूछा, ''क्या आपको इस बात का डर नहीं लगता कि ईडी आपके घर पर भी आ सकती है?'' उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया था- ''ईडी वाले आएंगे तो मैं उन्हें प्यार से चाय पिलाकर वापस भेजूंगा। मेरे घर ऐसा है ही क्या जो वे ले जाएंगे?''

जब किसी व्यक्ति के पीछे ईमानदारी और नैतिक शक्ति का बल होता है, उसकी प्रतिक्रिया वैसी ही होती है, जैसी छोकर की थी। एडीआर ने पूरे सात साल तक लंबी लड़ाई लड़ी और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉंड्स को गैरकानूनी वसूली का उपकरण मानते हुए रद्द कर दिया। इतना ही नहीं, टालमटोल करने वाले सरकारी बैंक एसबीआई को चंदा देने वाली कंपनियों के नाम भी सार्वजनिक करने पड़े थे। जब कंपनियों के नाम सार्वजनिक हुए तो कई कागजी कंपनियों के नाम भी उजागर हुए जिनकी आमदनी कुछ नहीं थी लेकिन उन्होंने सत्ताधारी पार्टी को चंदे के रूप में करोड़ों रुपये दिए थे। यह स्पष्ट रूप से राजनीति में काले धन के निवेश का मामला था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अपने आप में अधूरा था क्योंकि उसने चुनावी बॉंड्स की योजना को तो असंवैधानिक करार दिया था लेकिन इस योजना के जरिये राजनीतिक दलों को बड़े पैमाने पर मिले बेनामी चंदे पर वह मौन रहा था। कायदे से इस योजना के तहत राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में मिला सारा पैसा भी जब्त होना चाहिए था। गौरतलब है कि इस योजना की सबसे बड़ी लाभार्थी केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी थी जिसे अरबों रुपयों का चंदा मिला था। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट का फैसला आधा-अधूरा होते हुए भी चुनाव सुधार के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण था।

दरअसल प्रो. जगदीप छोकर का शुमार हमारे समाज के उन महानायकों में था जिनके बारे में आम लोग या तो बिल्कुल नहीं जानते या फिर बहुत कम जानते हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद में प्राध्यापक रहे छोकर बिना किसी शोर-शराबे के चुनाव सुधार और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए निरंतर काम करते रहे। उनकी संस्था इस समय बिहार में जारी मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की विवादास्पद प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली मुख्य याचिकाकर्ता थी। प्रो. छोकर उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने सबसे पहले एसआईआर के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर लोगों के मताधिकार छिन जाने और चुनाव आयोग को एनआरसी लागू करने के औजार की तरह इस्तेमाल किए जाने पर गंभीर सवाल उठाए थे।

छोकर का जीवन बताता है कि बेईमानी के खिलाफ लड़ाई तभी सफल हो सकती है, जब लड़ने वाला निजी जीवन मे ईमानदार हो। प्रो. छोकर का जाना उस अंतरात्मा का मौन हो जाना है जो भारत के लोकतंत्र की पवित्रता और पारदर्शिता के लिए लगातार मुखर रही। यही वजह है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी और पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा जैसी हस्तियों ने भी उनके निधन पर उनके योगदान को शिद्दत से याद करते हुए उन्हें 'चुनाव सुधार के संघर्ष का अप्रतिम योद्धा' बताया है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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