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छठ पूजा : संस्कृति से विज्ञान तक

छठ पूजा सूर्य की गति और ऋतु परिवर्तन से भी जुड़ी है

छठ पूजा : संस्कृति से विज्ञान तक
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  • डॉ. रामेश्वर मिश्र

छठ पूजा सूर्य की गति और ऋतु परिवर्तन से भी जुड़ी है। कार्तिक और चैत्र माह में यह पर्व तब आता है जब मौसम में परिवर्तन होता है। यह वह समय है जब पृथ्वी सूर्य की किरणों की दिशा में हल्का झुकाव बदलती है और वातावरण में नई ऊर्जा प्रवाहित होती है। ऐसे में सूर्य उपासना न केवल आध्यात्मिक शांति देती है बल्कि जैविक संतुलन बनाए रखने में भी सहायक होती है।

छठ पूजा भारत की जीवंत लोक संस्कृति का वह पर्व है जो आस्था, प्रकृति और विज्ञान को एक सूत्र में बांध देता है। यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय जीवन-दर्शन, पर्यावरणीय चेतना और वैज्ञानिक सोच का भी प्रतीक है। भारत की मिट्टी में रचे-बसे लोक जीवन में छठ पूजा को सूर्य उपासना और मातृशक्ति की आराधना के रूप में विशेष स्थान प्राप्त है। विशेषकर बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में यह पर्व लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है। गांव की गलियों से लेकर नगरों के घाटों तक, हर जगह 'कांची ह ओ कांची रे छठी मईया' और 'केतकी के फूलवा सुगंध फैले रे'... जैसे लोकगीतों की गूंज इस पर्व को लोक भावना से जोड़ देती है।

छठ पूजा का आरंभ वैदिक परंपरा से हुआ माना जाता है। सूर्योपासना का उल्लेख वेदों में बार-बार मिलता है। 'गायत्री मंत्र' में भी सूर्य की आराधना ही मुख्य विषय है-ओम भुर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात।

यह मंत्र सूर्य की उस ऊर्जा का स्मरण कराता है जो संपूर्ण सृष्टि को जीवन देती है। वेदों में सूर्य को 'सविता' कहा गया है, जो जीवन और चेतना का स्रोत है। इसी सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और प्रकृति से संतुलन स्थापित करने के लिए छठ पूजा का विधान बना। पौराणिक मान्यताओं में कहा गया है कि पांडवों के वनवास के दौरान द्रौपदी ने छठ व्रत रखकर संकट से मुक्ति पाई थी, वहीं रामायण में भगवान राम और माता सीता द्वारा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य की उपासना का उल्लेख मिलता है। इन कथाओं ने इस पर्व को न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक आधार भी प्रदान किया।

छठ पूजा की सांस्कृतिक महत्ता इसकी लोकधुनों और सामूहिकता में प्रकट होती है। घाटों पर गूंजते लोकगीतों में मातृत्व, भक्ति और प्रकृति के प्रति प्रेम की भावनाएं अभिव्यक्त होती हैं। महिलाएं 'छठी मईया तोहर महिमा अपार' और 'उग हे सूरज देव भइनी के नहाइल बानी घाटे' जैसे गीत गाते हुए सूर्य और छठी मइया का आह्वान करती हैं। यह लोकसंगीत गांवों की धूल, जल और जन के साथ गूंथी हुई आत्मा की आवाज़ है। जब सारा समाज एक साथ नदी या तालाब के तट पर एकत्र होता है, तो वहां जाति, वर्ग या लिंग का कोई भेद नहीं रह जाता। हर व्यक्ति समान श्रद्धा के साथ सूर्य को अर्घ्य देता है। यही समरसता भारतीय लोकसंस्कृति का मूल है, जो छठ पूजा के माध्यम से जीवंत हो उठती है।

छठ पूजा के पीछे निहित वैज्ञानिक सोच भी उतनी ही गहरी है। सूर्य हमारे जीवन का आधार है, जिसकी ऊर्जा के बिना पृथ्वी पर कोई अस्तित्व नहीं रह सकता। वेदों में कहा गया है-'सूर्योऽत्मा जगतस्तस्थुषश्च।' अर्थात सूर्य चर-अचर समस्त सृष्टि की आत्मा है। छठ पूजा के समय जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देने का अभ्यास स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभदायक है। इस समय सूर्य की किरणें कम तीव्र होती हैं और उनका स्पर्श शरीर में विटामिन डी के निर्माण में सहायक होता है। जल में खड़े रहने से शरीर के भीतर का तापमान संतुलित रहता है और त्वचा, आंखों तथा तंत्रिका तंत्र को लाभ पहुंचता है। यह एक प्रकार का वैज्ञानिक ध्यान (सन मेडिटेशन) है जो मानसिक एकाग्रता और आत्मिक शांति प्रदान करता है।

इस व्रत का एक और वैज्ञानिक पहलू शरीर की शुद्धि से जुड़ा है। लगातार उपवास रखने और सात्विक भोजन ग्रहण करने से शरीर में एक प्रकार का डिटॉक्सिफिकेशन होता है। गुड़, चावल, गन्ना, नारियल और केले जैसे प्रसाद पदार्थों में प्राकृतिक पोषक तत्व मौजूद होते हैं, जो पाचन तंत्र को स्वच्छ और संतुलित रखते हैं। गांवों में लोग कहते हैं-'छठ करे जे सच्चे मन से, तन-मन होई पवित्तर।' यह लोकविश्वास केवल धार्मिक नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। छठ पूजा में प्रयुक्त सामग्रियां भी पर्यावरणीय दृष्टि से अनुकूल हैं। मिट्टी के दीपक, बांस की सूप, गन्ने के डंडे, फल और शुद्ध अन्न, सब कुछ प्रकृति से प्राप्त होता है और वही फिर प्रकृति को अर्पित किया जाता है। यह जीवन चक्र की निरंतरता का प्रतीक है। व्रती जब नदी या तालाब की सफाई करते हैं और स्नान के लिए घाट सजाते हैं, तो यह न केवल धार्मिक कर्म है बल्कि जल संरक्षण और स्वच्छता का सामाजिक अभियान भी है।

छठ पूजा सूर्य की गति और ऋ तु परिवर्तन से भी जुड़ी है। कार्तिक और चैत्र माह में यह पर्व तब आता है जब मौसम में परिवर्तन होता है। यह वह समय है जब पृथ्वी सूर्य की किरणों की दिशा में हल्का झुकाव बदलती है और वातावरण में नई ऊर्जा प्रवाहित होती है। ऐसे में सूर्य उपासना न केवल आध्यात्मिक शांति देती है बल्कि जैविक संतुलन बनाए रखने में भी सहायक होती है।

भारतीय परंपरा में इसे 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' के सिद्धांत से जोड़ा गया है, अर्थात जो कुछ शरीर में होता है वही ब्रह्मांड में भी घटित होता है। छठ पूजा इसी विचार को व्यवहार में उतारने का अवसर देती है, जब मनुष्य प्रकृति के साथ एकात्म हो जाता है।

लोकगीतों और परंपराओं में छठी मइया को मातृशक्ति के रूप में देखा जाता है। वे संतान, स्वास्थ्य और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। लोककथाओं में कहा जाता है-'छठी मईया के किरपा से घर में हँसी-खुशी बनी रहे।' महिलाएं इस व्रत को अपने परिवार की मंगलकामना के लिए करती हैं। घाटों पर जब हजारों दीप जलते हैं, तब पूरा वातावरण मातृत्व और श्रद्धा से भर उठता है। यह दृश्य केवल भक्ति का नहीं, बल्कि ऊर्जा और संतुलन का प्रतीक है। छठ पूजा यह सिखाती है कि आस्था और विज्ञान एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। जहां आस्था मनुष्य को अनुशासन, भक्ति और आत्मसंयम की ओर ले जाती है, वहीं विज्ञान उस आस्था के कारणों को स्पष्ट करता है। सूर्य की पूजा केवल देवता के रूप में नहीं बल्कि जीवन ऊर्जा के रूप में की जाती है। उपवास केवल धार्मिक कर्म नहीं बल्कि शरीर की चिकित्सा है। जल और प्रकृति की आराधना केवल संस्कार नहीं बल्कि पर्यावरणीय जिम्मेदारी का बोध है। यही कारण है कि छठ पूजा भारतीय संस्कृति में 'संस्कृति से विज्ञान तक' की यात्रा का प्रतीक बन चुकी है। यह पर्व हमें यह भी याद दिलाता है कि मनुष्य और प्रकृति का संबंध केवल उपयोग का नहीं बल्कि सहयोग और सह-अस्तित्व का है। जब व्रती जल में खड़े होकर सूर्य को प्रणाम करता है, तो वह केवल सूर्य को नहीं, बल्कि उस समूची सृष्टि को नमन करता है जो उसे जीवन देती है। वेदों में कहा गया है-'सूर्ये तपत्यहर्निशं लोके, तेन जीवनमिदं जगत।' अर्थात सूर्य दिन-रात जगत को जीवन देता है। इसी जीवन का उत्सव है छठ पूजा, जहां लोकगीतों की मधुर ध्वनि, जल का स्पर्श, दीपों की लौ और आस्था का प्रकाश मिलकर एक ऐसा दृश्य रचते हैं जो मानवता की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति बन जाता है।

छठ पूजा अंतत: यह संदेश देती है कि जब तक सूर्य है, तब तक जीवन है, और जब तक आस्था है, तब तक मानवता है। यह केवल पूजा नहीं, बल्कि मानव, प्रकृति और विज्ञान के बीच संतुलन का उत्सव है।


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