ललित सुरजन की कलम से- रक्षा सौदों का सच
'राजनीतिक दलों से प्राथमिकता: उम्मीद की जाती है कि वे अपनी नीतियां और सिद्धांत लेकर जनता के बीच में जाएंगे

'राजनीतिक दलों से प्राथमिकता: उम्मीद की जाती है कि वे अपनी नीतियां और सिद्धांत लेकर जनता के बीच में जाएंगे, लेकिन फिलहाल जो मंजर दिखाई दे रहा है उसमें इस प्राथमिक दायित्व को मानो कूड़ेदान में डाल दिया गया है।
भ्रष्टाचार के राग अलापने के अलावा और कोई मुद्दा जैसे बात करने के लिए बचा ही नहीं है। इस नए माहौल में एक अन्य प्रकट सच्चाई की ओर जनता का ध्यान ठीक से नहीं जा रहा है।
भ्रष्टाचार को दस क्या, सौ सिर वाला रावण बनाकर पेश कर दिया गया है और उससे लड़ने के नाम पर राम के नए-नए अवतार भी हर-दूसरे चौथे दिन प्रकट हो रहे हैं, लेकिन क्या किसी ने पलभर के लिए सोचा कि अंतत: इनका क्या हश्र होता है।
सब देख रहे हैं कि अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव, किरण बेदी हो या अरविन्द केजरीवाल- एक के बाद एक सब दीवाली के पटाखों की तरह थोड़ी देर के लिए चमक पैदाकर बुझ जा रहे हैं; फिर भी यह जानने की ईमानदार कोशिश कहीं भी दिखाई नहीं देती कि ऐसे तमाम लोगों ने पृथक या संयुक्त रूप से जो भी आन्दोलन चलाए उनका असली मकसद क्या था।'
(देशबन्धु में 21 फरवरी 2013 को प्रकाशित)
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