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बंगाल में हुमायूं कबीर के भरोसे बीजेपी

33 साल में पहली बार उत्तर भारत में 6 दिसंबर को शांति रही। कहीं भी पराक्रम दिवस के उग्र प्रदर्शन या बाबरी मस्जिद शहादत का सार्वजनिक गम और गुस्सा प्रकट नहीं किया गया

बंगाल में हुमायूं कबीर के भरोसे बीजेपी
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  • शकील अख्तर

अब बंगाल में 44 मुस्लिम विधायक हैं। और हुमायूं कबीर बिहार के सीमांचल की तरह वहां के मुस्लिम बहुल इलाकों से भी मुस्लिम को जिताने की अपील कर रहे हैं। नतीजा बिहार जैसा ही खतरनाक होगा। अपनी जो पार्टी बनाकर वे चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं उसमें अगर मुसलमान बह गया तो वह अपना बहुत बड़ा नुकसान कर लेगा। हुमायूं कबीर की तो हो सकता है एक-दो सीटें आ जाएं।

33 साल में पहली बार उत्तर भारत में 6 दिसंबर को शांति रही। कहीं भी पराक्रम दिवस के उग्र प्रदर्शन या बाबरी मस्जिद शहादत का सार्वजनिक गम और गुस्सा प्रकट नहीं किया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर बनवा दिया। उसी के आर्डर के अनुरूप अयोध्या में जो मस्जिद बनना थी उसका अभी नींव का पत्थर भी नहीं रखा गया। लेकिन बंगाल में इस समय हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की जरूरत है। वहां चुनाव हैं। और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से दो बार मोदी वहां कामयाब नहीं हो पाए हैं। विधानसभाओं में सबसे तीखा चुनाव उन्होंने पश्चिम बंगाल में ही लड़ा।

महिला मुख्यमंत्री पर व्यक्तिगत स्तर पर हमला किया। दीदी ओ दीदी इस तरह बोले कि उससे उपहास और अपमान साफ तौर पर प्रतिध्वनित हो रहा था। मगर जनता ने दीदी ओ दीदी को फिर जिता दिया था।

2016 और 2021 दोनों में नाकामयाब होने के बाद इस बार भाजपा अपने सबसे कामयाब हथियार मंदिर-मस्जिद को वहां लेकर आई है। 1992 के इस मंदिर-मस्जिद इशु ने ही उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से हटाया था और भाजपा का पहला प्रधानमंत्री बनाया था। 1996 में हुए चुनाव में कांग्रेस हारी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। हालांकि रहे कुछ ही दिन मगर बीजेपी का हमेशा का एक सपना पूरा हो गया और आगे का रास्ता खुल गया।

अब बंगाल में इसी मंदिर-मस्जिद इशु को जोर-शोर से चलाने की पूरी तैयारी कर ली गई है। हुमायंू कबीर जो भाजपा के पुराने नेता हैं उसके टिकट से 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं उनके जरिए बंगाल के मुर्शीदाबाद में एक मस्जिद की नींव का पत्थर रखवाया गया और उस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद रखा गया।

ठीक उसी नक्शे को वहां प्रदर्शित किया गया जैसी गिराए जाने से पहले अयोध्या में मस्जिद थी। यहां यह बता दें कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर जो मस्जिद बनना है स्थानीय मुसलमानों ने उसका नाम भी बाबरी मस्जिद नहीं रखा है। मगर वहां से सैंकड़ों किलोमीटर दूर मुर्शीदाबाद बंगाल में चुनाव से ठीक पहले बाबरी मस्जिद उसी स्थापत्य की बनाने की शुरूआत की गई है।

बीजेपी नेताओं के उग्र बयान आप देख रहे होंगे। टीवी की आग लगाऊ डिबेटें भी। यही उद्देश्य था। मुसलमानों को फिर टारगेट पर लिया जाना और हिन्दुओं का धु्रवीकरण। धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए एक नया चैलेंज। टालने से काम नहीं चलेगा। सबको एकजुट होकर सोचना पड़ेगा। बंगाल की जनता धर्मनिरपेक्ष है। मगर सिर्फ इतना कहने से काम नहीं चलेगा। उसे सांप्रदायिकता के जाल में जाने से बचाना होगा।

रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़े मुद्दों को उठाना होगा। मगर सबसे पहले यह सोचना होगा कि इस सांप्रदायिक मामले को कैसे डिफ्यूज़ करना है। यह दोनों तरफ आग लगाएगा। और जहां हिन्दू-मुसलमान का धु्रवीकरण हुआ बीजेपी को रास्ता मिल जाएगा। और बीजेपी अगर बंगाल जीत गई तो फिर विपक्ष के लिए कोई विधानसभा सेफ नहीं बचेगी।

सोचना मुसलमानों को भी होगा। उनके धार्मिक और राजनीतिक दोनों तरह के नेता जिस तरह जज्बाती सवाल उठा रहे हैं उसके पीछे की मंशा समझना होगी। अभी हुमायूं कबीर से पहले ओवैसी इसी तरह एक नान इशु मुस्लिम कयादत (मुसलमानों का नेता मुसलमान) उठा चुके हैं। परिणाम बिहार में उन्हें तो पांच सीटें मिल गईं मगर मुस्लिम विधायकों की संख्या पिछली बार के 19 से घट कर 11 रह गई। जब स्थिति सामान्य रहती है हिन्दू-मुसलमान नहीं होता तो मुस्लिम विधायक भी उचित संख्या में चुने जाते हैं। 1985 में जब ओवैसी और भाजपा दोनों की सांप्रदायिक राजनीति नहीं थी तो वहां 34 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। लेकिन मुस्लिम बहुल इलाके सीमांचल में ओवैसी की जज्बाती तकरीरों में फंसकर मुसलमानों ने उनके 5 विधायक तो जीता दिए मगर बाकी बिहार में केवल 6 ही मुस्लिम विधायक जीत पाए।

अब बंगाल में 44 मुस्लिम विधायक हैं। और हुमायूं कबीर बिहार के सीमांचल की तरह वहां के मुस्लिम बहुल इलाकों से भी मुस्लिम को जिताने की अपील कर रहे हैं। नतीजा बिहार जैसा ही खतरनाक होगा। अपनी जो पार्टी बनाकर वे चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं उसमें अगर मुसलमान बह गया तो वह अपना बहुत बड़ा नुकसान कर लेगा। हुमायूं कबीर की तो हो सकता है एक-दो सीटें आ जाएं मगर उसकी कीमत पर भाजपा की सीटें कितनी आएंगी सोच लीजिए। सरकार भी बना सकती है और फिर बुलडोजर से लेकर क्या-क्या आएगा इसे मुसलमानों को सोचना है।

बीजेपी और संघ परिवार तो सामने से उसके खिलाफ है। मगर इससे बीजेपी को ज्यादा फायदा होता नहीं। उसे ज्यादा फायदा तब मिलता है जब हिन्दुओं में प्रतिक्रिया हो। आज 11 साल के मोदी शासन के बाद भी देश का अधिकांश बहुसंख्यक उसके साथ नहीं है। 37 प्रतिशत के आसपास ही उसका वोट शेयर डगमगा रहा है। इसलिए खुद सांप्रदायिक इशु उठाने के साथ उसे दूसरी तरफ से भी ऐसे ही इशु उठाने वाले चाहिए।

राजनीति में ओवैसी के बाद उसे हुमायूं कबीर मिल गए। और धार्मिक नेताओं में देश के सबसे बड़ी मौलानाओं के संगठन जमीयत उल उलेमा के मदनी परिवार का साथ। पहले दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम भी बहुत साथ देते थे। मगर इन दिनों कुछ खामोश हैं। अच्छी बात है। लेकिन मदनी परिवार जिसके पास देवबंद जैसा सबसे बड़ा इस्लामिक शिक्षा का केन्द्र है अपनी आपसी लड़ाई में एक दूसरे से आगे निकलने के लिए फिजूल के इशु उठा रहा है।

झगड़ा चाचा-भतीजे का है। कई सालों से संपत्ति और संस्थानों पर कब्जे का। संपत्ति अथाह है। देश विदेश सब जगह फैली हुई और संस्थान हैं जमीयत, देवबंद जैसे प्रतिष्ठित। ऐतिहासिक मस्जिदें।

पहले चाचा अरशद मदनी ने एक बिलकुल अप्रासंगिक बात की। मुसलमान के किसी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर होने की। यहां सेना की मुस्लिम कर्नल पर सवाल उठ रहे हैं। वहां व्यक्तिगत पदों को जिक्र करके सिवाय फितूर फैलाने के और क्या मिलेगा? इतना पैसा, संसाधन हैं कुछ अपने शिक्षा केन्द्र खोलते। मगर कुछ नहीं। दिल्ली में पांच माइनरटी कालेज हैं। क्रिश्चियन और सिखों के। मुस्लिम का एक भी नहीं। जाकिर हुसैन कालेज का नाम मत लेना। वह मुस्लिम मैनेजमेंट के द्वारा संचालित नहीं है। सरकारी कालेज है। माइनरटी कालेज का मतलब होता है उसके द्वारा संचालित और उसके समुदाय के बच्चों को एडमिशन में विशेष छूट।

इसी तरह क्रिश्चियन मशीनरी और सिखों के दिल्ली में कई अच्छे स्कूल हैं। जहां सभी समुदायों के लोग एडमिशन के लिए मारा-मारी करते हैं। मुसलमान भी। लेकिन खुद मुसलमानों का एक भी नहीं। खैर चाचा के बाद भतीजे महमूद मदनी ने और भी गैरजरूरी इशु उठाया जिहाद का।

बाद में जगह-जगह वे बताते रहे कि जिहाद का मतलब क्या है? अरे यही मतलब पहले बोल देते तो बीजेपी और गोदी मीडिया को इतना मौका ही नहीं मिलता। संघर्ष है। गलत बात का विरोध है। सबको मालूम है। मगर बीजेपी और संघ तो लोगों को भड़काने के लिए हर चीज के साथ जिहाद लगाती है।

महमूद मदनी को क्या जरूरत थी जिहाद करेंगे कहने की। लड़ेंगे, संघर्ष करेंगे, आवाज उठाएंगे कई तरह से कह सकते थे। मगर उन्होंने खाली जिहाद ही नहीं कहा, बल्कि अनावश्यक रूप से वंदेमातरम का भी सवाल उठाया। क्या इतनी समझ नहीं है कि ऐसा हर शब्द बीजेपी को फायदा पहुंचाता है। सोमवार 8 दिसंबर को लोकसभा में बीजेपी सरकार वंदेमातरम पर ही चर्चा करवा रही है। दिन भर होगी। और इसके जरिए बीजेपी मुसलमान को टारगेट करेंगे।

वैसे मुख्य निशाना तो कांग्रेस रहेगी। वह कांग्रेस जिस का हर सम्मेलन वंदेमातरम से ही शुरू होता उसे इसी पर घेरने की कोशिश करेगी। बीजेपी की राजनीति ऐसी ही है। नामों की, शब्दों की, प्रतीकों की, झूठे नरेटिव की। और इसी के आधार पर मुसलमान को हमेशा शक के दायरे में रखने की। कुछ मुसलमान के धार्मिक राजनीतिक नेतृत्व को सोचना होगा और उससे ज्यादा आम मुसलमान को।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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