भाजपा को अब वाकई संघ की जरूरत नहीं रही
बिहार में भाजपा और उसके गठबंधन की जीत सुनिश्चित करने में चुनाव आयोग ने खुल्लमखुल्ला काम किया, जिसके चलते भाजपा और उसके गठबंधन के लिए आदर्श आचार संहिता का कोई मतलब नहीं रह गया था।

अनिल जैन
बिहार में भाजपा और उसके गठबंधन की जीत सुनिश्चित करने में चुनाव आयोग ने खुल्लमखुल्ला काम किया, जिसके चलते भाजपा और उसके गठबंधन के लिए आदर्श आचार संहिता का कोई मतलब नहीं रह गया था। उन्होंने चुनाव जीतने के लिए जो चाहा सो किया। हालांकि इससे पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था लेकिन बिहार में उससे भी कहीं ज्यादा हुआ।
बहुत पुरानी बात नहीं है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान ही भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था- 'भाजपा को पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की जरूरत हुआ करती थी, लेकिन अब भाजपा खुद पूरी तरह सक्षम और आत्मनिर्भर हो चुकी है, अब उसे आरएसएस की मदद की दरकार नहीं है।' नड्डा ने यह बात किसी चुनावी रैली या अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में नहीं कही थी। उन्होंने यह बात 20 मई, 2024 को एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में कही थी। जाहिर है कि उन्होंने यह बात भूल-चूक में नहीं बल्कि सोच-समझ कर ही कही थी। यह भी आसानी ने समझा जा सकता है कि इतनी बड़ी बात नड्डा ने किसके इशारे पर कही होगी, क्योंकि सब जानते हैं कि नड्डा पार्टी अध्यक्ष जरूर हैं लेकिन सर्वशक्तिमान अध्यक्ष नहीं। पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से वे वही कहते और करते हैं जैसा उन्हें निर्देशित किया जाता है।
नड्डा के इस बयान पर आरएसएस की ओर से अंदरखाने नाराजगी भी जताई गई थी, जिस पर नड्डा ने मीडिया के जरिये सफाई भी दी थी कि, 'उनके कहने का आशय वह नहीं है जो समझा जा रहा है।' इसके कुछ समय बाद सितंबर महीने में आरएसएस की अखिल भारतीय समन्वय बैठक केरल में हुई थी, जिसमें भाजपा समेत संघ के तमाम आनुषांगिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। भाजपा की ओर से खुद जेपी नड्डा उस बैठक में शामिल हुए थे। बैठक के बाद 2 सितंबर को आरएसएस के प्रवक्ता सुनील अंबेकर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में नड्डा के उपरोक्त बयान के बारे में पूछे जाने पर कहा था कि, 'यह हमारा पारिवारिक मामला है, जिसे हल कर लिया गया है, कहीं कोई गलतफहमी नहीं है।'
इस पूरे वाकये को बिहार के विधानसभा चुनाव को सामने रख कर देखें तो साफ हो जाता है कि जेपी नड्डा के यह कहने का क्या आशय था कि भाजपा अब अपने आप में 'सक्षम' और 'आत्मनिर्भर' है, इसलिए उसे अब 'संघ की जरूरत नहीं है'। इससे यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि नड्डा ने अपने इस बयान को लेकर आरएसएस नेतृत्व को क्या सफाई दी होगी और जिस पर संघ के प्रवक्ता सुनील अंबेकर ने कहा था कि यह हमारा पारिवारिक मामला है और सब कुछ ठीक ठाक है।
बिहार के चुनावी नतीजों का विश्लेषण करते हुए कई राजनीतिक विश्लेषक मीडिया और सोशल मीडिया में भाजपा और उसके गठबंधन की जीत में आरएसएस की भूमिका को देख रहे हैं और उसकी संगठन क्षमता और कुशलता का कीर्तन कर रहे हैं। लेकिन वे यह नहीं देख रहे हैं कि भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए किस तरह सत्ता का खुला दुरुपयोग किया है, जिसके खिलाफ विपक्षी दलों की शिकायतों की कहीं भी सुनवाई नहीं हुई है। चुनाव आयोग ने पूरी तरह और बहुत हद तक न्यायपालिका ने भी भाजपा के सहयोगी दल की भूमिका निभाई है।
यह सही है कि भाजपा की चुनावी सफलताओं में आरएसएस की अहम भूमिका रही है। भाजपा के बाकी मामलों में भी संघ का पूरा-पूरा दखल रहता रहा है। लालकृष्ण आडवाणी को किनारे करके नरेन्द्र मोदी को 2014 में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का फैसला भी संघ का ही था। मोदी के पीएम बनने के बाद केंद्र सरकार में मंत्रियों और राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन में भी संघ की भूमिका रही है, जो धीरे-धीरे सीमित हो गई है।
भाजपा में अब लगभग सब कुछ मोदी और अमित शाह की इच्छा से होता है। संघ अगर किसी मामले में अपनी चलाना भी चाहता है तो उसे फौरन उसकी सीमा बता दी जाती है। इस सिलसिले में सबसे बड़ी मिसाल संघ सुप्रीमो मोहन भागवत का अपने उस बयान से मुकरना है जिसमें उन्होंने 75 वर्ष की आयु पूरी होने पर सार्वजनिक जीवन से हट जाने की बात कही थी। उन्होंने यह बयान नरेन्द्र मोदी के 75 वर्ष पूरे होने के कुछ दिनों पहले दिया था। उनके इस बयान को मोदी के संदर्भ में ही देखा गया था और इसीलिए भाजपा के कई नेताओं ने खुलकर भागवत की इस सलाह को खारिज किया था। कुछ ही दिनों बाद भागवत को सफाई देनी पड़ी थी कि उनका बयान मोदी के संदर्भ में नहीं था।
बहरहाल बिहार में भाजपा और उसके गठबंधन की जीत सुनिश्चित करने में चुनाव आयोग ने खुल्लमखुल्ला काम किया, जिसके चलते भाजपा और उसके गठबंधन के लिए आदर्श आचार संहिता का कोई मतलब नहीं रह गया था। उन्होंने चुनाव जीतने के लिए जो चाहा सो किया। हालांकि इससे पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था लेकिन बिहार में उससे भी कहीं ज्यादा हुआ। चुनाव की घोषणा के ऐन पहले बिहार की करीब डेढ़ करोड़ महिलाओं के बैंक खाते में सरकारी खजाने से दस-दस हजार रुपये भेजने वाली योजना का ऐलान हुआ। यह राशि चुनाव प्रक्रिया के दौरान भी हर हफ्ते महिलाओं के खाते में जाती रही। हर निर्वाचन क्षेत्र में औसतन करीब सात हजार महिलाओं के खाते में यह राशि गई। इसके अलावा चुनाव से ऐन पहले ही बिहार सरकार ने वृद्धावस्था पेंशन की राशि में ढाई गुना इजाफा करने की घोषणा की थी, जिसकी किस्तें दूसरे चरण के मतदान से एक दिन पहले 10 नवंबर तक लोगों के खाते में जाती रही। यह भी आचार संहिता का खुला उल्लंघन था लेकिन चुनाव आयोग इस पर खामोश बना रहा।
बिहार के चुनाव में इस बार ऐतिहासिक मतदान होने की बात भी कही गई है और उसे भाजपा गठबंधन की जीत का एक बड़ा कारण बताया जा रहा है। मतदान में इस ऐतिहासिक बढ़ोतरी की असलियत यह है कि बिहार के करीब 50 लाख मतदाता दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों सहित विभिन्न राज्यों में रहते हैं। भाजपा उन सभी लोगों को स्पेशल ट्रेनों और बसों से बिहार लेकर आई और उनका वोट डलवाया। ऐसे एक मतदाता पर औसतन चार हजार रुपये खर्च हुआ। यानी करीब 250 करोड़ रुपया इन लाखों मतदाताओं पर खर्च किया। चुनाव आयोग यह सब होते हुए देखता रहा।
दस साल पहले तक यह होता था कि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में सरकार की ओर से एक हैंडपंप भी लगा दिया जाता था तो चुनाव आयोग उसे आचार संहिता का उल्लंघन मानकर कार्रवाई करता था, लेकिन अब तो खुलेआम पैसा बांटा जा रहा है। पहले किसी मतदाता को मतदान केंद्र तक लाने में अगर कोई पार्टी रिक्शा या कार से पहुंचाने का इंतजाम करती थी तो उसे मतदाता को प्रभावित करने का अनुचित हथकंडा मान कर चुनाव आयोग कार्रवाई करता था। अब तो करोड़ों रुपये खर्च कर मतदाताओं को लाने की छूट सत्ताधारी पार्टी को मिल गई है।
दरअसल मोदी-शाह की भाजपा को अब महसूस हो गया है कि भारत की चुनावी राजनीति में हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान, मंदिर-मस्जिद आदि का जितना दोहन हो सकता था, हो गया है। इस हकीकत के संकेत उसे 2024 के लोकसभा चुनाव में ही मिल चुके हैं, जिसमें उसे इन सभी पारंपरिक हथकं डों को अपनाने के बावजूद जैसे-तैसे 240 सीटें ही मिली थीं। इसलिए उसने उसके बाद से चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए नई रणनीति के तहत चुनाव आयोग और न्यायपालिक समेत सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी बांदियां बनाकर उसका मनचाहा इस्तेमाल शुरू कर दिया। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि भाजपा अब चुनाव में हिंदू-मुस्लिम या धार्मिक नारों से परहेज करेगी। वह यह सब तो करेगी ही क्योंकि उसकी पहचान ही इसी से है।
नई रणनीति को उसने पहले महाराष्ट्र और हरियाणा में आजमाया और फिर बिहार में उसे ज्यादा विस्तार दे दिया। तीनों ही राज्यों में उसका यह प्रयोग पूरी तरह सफल रहा है। अब आने वाले समय में इसे अन्य राज्यों में भी आजमाया जाएगा, जिसमें उसे कामयाबी मिलनी तय है। 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर के काम में चुनाव आयोग पूरी तरह से जुट गया है।
चुनाव जीतने के इन सारे हथकंडों को 'मोदी का करिश्मा' और 'मास्टर स्ट्रोक' बताने के लिए उसके पास ढिंढोरची मीडिया है ही। इसीलिए अब उसे चुनाव जीतने के लिए संघ की वाकई में जरूरत नहीं रह गयी है। जेपी नड्डा के बयान का यही मर्म है जो उन्होंने संघ नेतृत्व को समझाया और संघ उससे संतुष्ट हो गया। इसीलिए उसकी ओर से कहा गया था कि यह हमारा पारिवारिक मसला है, जिसे हल कर लिया गया है। ऐसे में विपक्षी दलों के सामने अब एक ही रास्ता बचा है कि वह सड़कों पर उतरे, लोगों के बीच जाए और लोकतंत्र बचाने के लिए उन्हें गोलबंद करे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


