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भाजपा बनी हिंदू महासभा

भाजपा के पर्ची से निकले अध्यक्ष (अभी कार्यकारी) नितिन नबीन ने जब राजधानी दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में कुर्सी संभालने के बाद, अपने पहले बयान में 'सब का साथ, सब का विकास' की बात की, तो सचमुच काफी अटपटा सा लगा

भाजपा बनी हिंदू महासभा
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  • राजेन्द्र शर्मा

प. बंगाल, जो एक और ऐसा राज्य है जहां संघ-भाजपा अपनी सारी कोशिशों के बावजूद, अब तक सत्ता तक पहुंचने में कामयाब नहीं हुए हैं। सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक, हुमायूं कबीर की अपने इलाके में बाबरी मस्जिद बनाने की घोषणा को, संघ-भाजपा ने बिना जरा भी समय गंवाए जवाबी सांप्रदायिक गोलबंदी का बहाना बना लिया।

भाजपा के पर्ची से निकले अध्यक्ष (अभी कार्यकारी) नितिन नबीन ने जब राजधानी दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में कुर्सी संभालने के बाद, अपने पहले बयान में 'सब का साथ, सब का विकास' की बात की, तो सचमुच काफी अटपटा सा लगा। बेशक, ऐसा तो नहीं है कि भाजपा ने 2019 के चुनाव की जीत के बाद नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए इस नारे को आधिकारिक रूप से छोड़ ही दिया हो। वैसे आधिकारिक रूप से भाजपा ने छोड़ा तो संभवत: 'गांधीवादी समाजवाद' को भी नहीं है, जिसे जनता पार्टी में विभाजन के बाद, उसके जनसंघ घटक के गिर्द 1980 में भाजपा के गठन के समय, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में इस पार्टी की मूल विचारधारा के रूप में स्वीकार किया गया था। बहरहाल, 'गांधीवादी समाजवाद' के साथ कभी जोर-शोर से घोषित अपने नाते को भाजपा अब तक करीब-करीब भुला ही चुकी है और इस भूले हुए रिश्ते को याद करने में भी, अब उसे किसी पुरानी भूल को याद करने जैसी शर्म ही आती लगती है।

उस हद तक तो नहीं, फिर भी कुछ-कुछ उसी तरह पिछले कुछ वर्षों में और खासतौर पर 2024 के आरंभ में अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का पूरा श्रेय प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा द्वारा आधिकारिक रूप से लूटे जाने के बाद से, उनकी बयानबाजी में से यह नारा करीब-करीब गायब ही हो चुका है। हां! भूले-भटके किसी बहस में संघ-भाजपा के अल्पसंख्यक-विरोधी और खासतौर पर मुस्लिमविरोधी होने की आलोचनाओं के जवाब में जरूर, ढाल की तरह इस नारे की दुहाई का इस्तेमाल जरूर देखने को मिल सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि 2019 में नरेंद्र मोदी की दूसरी पारी की शुरूआत में जब यह नारा लगाना शुरू-शुरू किया गया था, तब भी इसका संघ-भाजपा और उनकी सरकार के आचरण में कोई प्रभाव नजर नहीं आता था। वास्तव में यह नारा, 'सब का साथ' से ठीक उल्टे आचरण को ही ढांपने का काम करता था। फिर भी, कम से कम एक पर्दा तो था, जो अब पूरी तरह से गायब हो चुका है।

नितिन नबीन एक तो नये-नये और जाहिर है कि काफी अप्रत्याशित तरीके से, एक ऐसी राष्ट्रीय भूमिका में आ टपके हैं, जिसके लिए वह तैयार नहीं थे। इसलिए, उनकी बोली-बानी का संघ-भाजपा की आज की बोली से पूरी तरह से मेल नहीं बैठने में बहुत हैरानी नहीं होनी चाहिए। इसके ऊपर से उनका पूरा का पूरा राजनीतिक कैरियर उस बिहार का है, जहां संघ-भाजपा को अब भी मजबूरी में नीतीश कुमार को अपना 'नेता' मानना पड़ रहा है, जिसका अर्थ उनका खुलकर सांप्रदायिक बोली का प्रयोग न कर पाना भी है। और यह स्थिति उतने ही समय से है, जितना लंबा उनका राजनीतिक कैरियर है। ऐसे में नये भाजपा अध्यक्ष का, 'सब का साथ सब का विकास' का जिक्र करना, उस जगह की ही याद दिलाता है, जिसे वास्तव में संघ-भाजपा खाली कर चुके हैं।

वास्तव में संघ-भाजपा 2025 के आखिर में राजनीतिक रूप से और अपनी बोली-बानी में भी, किस जगह पर पहुंच चुके हैं और इसे अभी हाल के दो प्रकरण बखूबी रेखांकित करते हैं। याद रहे कि ये दोनों प्रसंग उन राज्यों के हैं, जो अगले साल के शुरू में होने वाले विधानसभाई चुनावों के चक्र में संघ-भाजपा और उसके मोदी राज के खास निशाने पर हैं। हमारा इशारा तमिलनाडु और प. बंगाल की ओर है। पाठकों को याद ही होगा कि पिछले ही दिनों अपने बहुप्रचारित दावे में, मोदी राज में नंबर दो माने जाने वाले अमित शाह ने जोर-शोर से इसका ऐलान किया था कि इन दोनों राज्यों में अगले चुनाव में भाजपा सत्ता में आकर रहेगी। बेशक, शाह के इस ऐलान को उनका चुनावी राजनीति का जुमला मानकर छोड़ा जा सकता था, बशर्ते अपने इस दावे को जमीन पर उतारने की कोशिश में भाजपा, वह सब नहीं कर रही होती, जो वह कर रही है। और इससे भी बड़ी बात कि यह सब इतना विनाशकारी नहीं होता, जितना कि वास्तव में है।

तमिलनाडु में, जो देश के ऐसे उंगलियों पर गिने जा सकने वाले राज्यों में से एक है, जहां के लोगों के गहराई से धार्मिक होने के बावजूद, वहां सांप्रदायिक टकराव और तनाव का कोई इतिहास है ही नहीं, आने वाले विधानसभाई चुनाव की अपनी तैयारियों के हिस्से के तौर पर संघ-भाजपा ने मदुरै जिले के अंतर्गत तिरुप्परनकुंद्रम की पहाड़ी के गिर्द, एक झूठा धार्मिक विवाद और तनाव रच दिया है। यह खेल कितना कुटिलतापूर्ण और खतरनाक है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह विवाद खड़ा करने के लिए संघ-भाजपा ने इस स्थल को 'दक्षिण की अयोध्या' के रूप में प्रचारित करना पहले से शुरू कर दिया था। संबंधित पहाड़ी पर तीन मंदिर हैं, एक दरगाह है जिसे सिकंदर शाह की दरगाह के नाम से जाना जाता है और कई प्राचीन जैन गुफाएं हैं। जैसा कि आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है, संघ परिवार ने दरगाह को मंदिर साबित करने का अभियान छेड़ दिया है।

इसी मुहिम के हिस्से के तौर पर इस साल के शुरू में ही संघ-भाजपा ने बाहर से लोगों को लाकर, दरगाह के खिलाफ झगड़ा खड़ा करने की कोशिश की थी। बाद में इसी अभियान के हिस्से के तौर पर, एक व्यक्ति हाई कोर्ट में पहुंच गया कि पहाड़ी के मंदिर में कार्तिकाइ दीपम के नाम से बड़ी सी आग जलाने की जो पुरानी परंपरा है, उसके हिस्से के तौर पर उसे दरगाह के ठीक बगल में, दीपम करने की इजाजत दी जाए। राज्य सरकार के विरोध के बावजूद और संबंधित मंदिर के बाहर ऐसी कोई परंपरा नहीं होने के बावजूद, एक विवादों के घेरे में रहे न्यायाधीश की एकल न्यायाधीश बैंच ने, आस्था के नाम पर इस भड़काने वाली कार्रवाई की इजाजत भी दे दी।

राज्य सरकार चूंकि अपने राज्य को इससे पैदा होने वाले अनावश्यक तनाव से बचाना चाहती थी, उसके खिलाफ संघ-भाजपा ने जबर्दस्त अभियान छेड़ दिया। इस अभियान के हिस्से के तौर पर, मदुरै से सीपीआई (एम) के सांसद, साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक, सू वेंकटेशन को हिंदुत्ववादी संगठनों ने हत्या की धमकियां तक देना शुरू कर दिया। और शासन ने जब इस धार्मिक स्थल के गिर्द जबरन झगड़ा करने पर आमादा संघ कार्यकर्ताओं को रोका, भाजपा के समर्थक दलों ने भी उनकी इस शरारत का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस तरह संघ-भाजपा को तमिलनाडु में, जहां उनके पास सांप्रदायिक तनाव और धु्रवीकरण का कोई स्थानीय मुद्दा नहीं था, ऐसा मुद्दा मिल गया। यही तो संघ-भाजपा की सफलता की राह है! साफ है कि भाजपा को एक ऐसे राज्य में भी जहां सांप्रदायिक धु्रवीकरण की कोई परंपरा नहीं है, बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक धु्रवीकरण के बहाने गढ़ने में कोई हिचक नहीं है।

दूसरा प्रसंग प. बंगाल का है, जो एक और ऐसा राज्य है जहां संघ-भाजपा अपनी सारी कोशिशों के बावजूद, अब तक सत्ता तक पहुंचने में कामयाब नहीं हुए हैं। सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक, हुमायूं कबीर की अपने इलाके में बाबरी मस्जिद बनाने की घोषणा को, संघ-भाजपा ने बिना जरा भी समय गंवाए जवाबी सांप्रदायिक गोलबंदी का बहाना बना लिया। हिंदुत्ववादी संगठनों के नाम पर, लेकिन संघ-भाजपा के प्रत्यक्ष समर्थन से, ब्रिगेड परेड मैदान में कई लाख लोगों के कथित 'सामूहिक गीता पाठ' के आयोजन का ऐलान कर दिया गया और एक लाख से ज्यादा लोगों के साथ ऐसा आयोजन किया भी गया। जैसा कि आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है, यह कोई धार्मिक आयोजन न होकर वास्तव में बुनियादी तौर पर मुस्लिम-विरोधी भावनाएं भड़काने वाला आयोजन भर था। संघी राज्यपाल तक इस आयोजन में जा पहुंचे। इस आयोजन के मूल चरित्र का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मैदान के बाहर ही चिकन पैटिस बेच रहे एक मुस्लिम फेरीवाले को पीट-पीटकर बुरी तरह से घायल कर दिया गया। और जब इस हमले के दोषियों को, जिन्हें पुलिस ने भी लगता है कि जान-बूझकर बहुत हल्की धाराओं में ही गिरफ्तार किया था, अदालत ने जमानत पर छोड़ दिया, भाजपा के शीर्ष नेताओं ने सार्वजनिक रूप से उनका ऐसा सार्वजनिक अभिनंदन किया, जैसे वे राष्ट्र के लिए कोई बहुत भारी कुर्बानी देकर आये हों।

बेशक, हमने यहां दो ही उदाहरण दिए हैं, जबकि भाजपा के सीधे सांप्रदायिकता भड़काने में लिप्त होने और खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक बोली बोलने के इसी महीने के दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। लेकिन, इन दो उदाहरणों से ही स्पष्ट है कि संघ और उसकी राजनीतिक बाजू के रूप में भाजपा, अपने चुनावी प्रभाव का विस्तार करने के लिए, बेशरमी से सांप्रदायिक खेल खेलने और बोली बोलने के ही आसरे हैं। और इसमें अब उन राज्यों का नंबर आ रहा है, जो अब तक संघ-भाजपा के राजनीतिक नियंत्रण से और इसलिए सांप्रदायिक धु्रवीकरण से भी किसी हद तक बचे रहे थे। अगर चुनाव के महीनों पहले यह खुला सांप्रदायिक खेल खेला जा रहा है, तो चुनाव प्रचार में और चुनाव के समय क्या होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

अपने दूसरे जन्म के समय की गांधीवादी-समाजवाद की बोली-बानी के बाद, एक सर्वधर्म समानता में विश्वास करने वाली पार्टी होने का दिखावा तो भाजपा ने तभी छोड़ दिया था, जब बाबरी मस्जिद-विरोधी अभियान के साथ पर्दे के पीछे से खेलने के बाद, 1988 में पालमपुर की अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाजपा ने, बाबरी मस्जिद हिंदुओं को सौंंपे जाने की औपचारिक रूप से मांग की थी। उसके बाद से भाजपा, नंगी सांप्रदायिकता की ढलान पर लगातार खिसकती ही गयी है। बहरहाल, मोदी राज में भाजपा ने वाजपेयी के राज में रही तिनके की ओट भी हटा दी है और मोदी के तीसरे कार्यकाल में तो भाजपा, बाकायदा हिंदू महासभा बनने की ओर है। अब जबकि चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक, किसी से भी यह सवाल उठाने की तो उम्मीद की नहीं जा सकती है कि धर्मनिरपेक्ष संविधान के अंतर्गत, एक खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक बोली बोलने वाली पार्टी को कैसे चलने दिया जा सकता है, क्यों नहीं मोदी जी अपना नाम बदलने का भी शौक पूरा कर लें और भाजपा का नाम बदलकर, हिंदू महासभा कर दें!

(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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