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आसान नहीं बिहार का मैदान भाजपा के लिए

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के लिए प्रचार खत्म हो गया है और गुरुवार, 6 नवंबर को 121 सीटों पर मतदान होगा

आसान नहीं बिहार का मैदान भाजपा के लिए
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  • अनिल जैन

महागठबंधन की पार्टियों में सीटों के बंटवारे को लेकर काफी खींच-तान रही और तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने में भी कांग्रेस ने अनावश्यक देरी की, जिसका लोगों में नकारात्मक संदेश गया। ये दोनों ही काम महागठबंधन के नेता चुनाव की घोषणा होने से पहले भी कर सकते थे। हालांकि मीडिया तब भी उसके खिलाफ माहौल बनाने के लिए किन्हीं और मुद्दों का सहारा लेता।

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के लिए प्रचार खत्म हो गया है और गुरुवार, 6 नवंबर को 121 सीटों पर मतदान होगा। करीब तीन हफ्ते तक चले चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यधारा के मीडिया, खासकर टेलीविजन चैनलों की रिपोर्टिंग और इन चैनलों के लिए कथित ओपिनियन पोल करने वाली एजेंसियों के अनुमानों को मानें तो बिहार में एक बार फिर भारी बहुमत से एनडीए की सरकार बनने जा रही है। वैसे मामला इतना आसान नहीं है क्योंकि जो पेशेवर पत्रकार बिहार जाकर वहां स्वतंत्र रूप से राजनीतिक हालात का जायजा ले रहे हैं, उनकी रिपोर्ट बताती है कि ज़मीनी हकीकत टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग और सर्वे एजेंसियों के अनुमानों से बिल्कुल अलग है।

पूरे चुनाव अभियान के दौरान भारतीय जनता पार्टी के लिए ढिंढोरची की भूमिका निभाने वाला मीडिया बताता रहा है कि महागठबंधन बिखराव का शिकार है और उसकी पार्टियों के बीच सीटों का बंटवारा ठीक से नहीं हो पा रहा है। चुनाव की घोषणा के बाद जब एक सप्ताह तक राहुल गांधी बिहार नहीं पहुंचे तो बताया गया कि तेजस्वी यादव से मतभेदों के चलते राहुल ने बिहार के चुनाव से अपने को अलग कर लिया है, जिसकी वजह से उनकी 'वोटर अधिकार यात्रा' के दौरान लोगों में महागठबंधन को लेकर जो उत्साह था, वह अब नदारद है। जब कांग्रेस की ओर से तेजस्वी को महागठबंधन की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्यमंत्री पद का और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के नेता मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया तो सवाल खड़ा किया गया कि किसी मुस्लिम को उप मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार क्यों नहीं घोषित किया गया।

यह सही है कि महागठबंधन की पार्टियों में सीटों के बंटवारे को लेकर काफी खींच-तान रही और तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने में भी कांग्रेस ने अनावश्यक देरी की, जिसका लोगों में नकारात्मक संदेश गया। ये दोनों ही काम महागठबंधन के नेता चुनाव की घोषणा होने से पहले भी कर सकते थे। हालांकि मीडिया तब भी उसके खिलाफ माहौल बनाने के लिए किन्हीं और मुद्दों का सहारा लेता।

बहरहाल मीडिया ने महागठबंधन के खिलाफ माहौल बनाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी, बल्कि ऐसा करने में उसने एनडीए की पार्टियों के प्रवक्ताओं और अफवाहें फैलाने के लिए कुख्यात भाजपा के आईटी सेल को भी पीछे छोड़ दिया, लेकिन अभी तक मीडिया में एनडीए की पार्टियों में मचे घमासान को लेकर कोई चर्चा देखने-सुनने को नहीं मिली; और दूसरे दौर का मतदान खत्म होने तक भी नहीं मिलेगी।

हकीकत यह है कि महागठबंधन में मची खींच-तान तो देर से ही सही, मगर खत्म हो गई और उसकी सभी पार्टियां एकजुट होकर चुनाव लड़ रही हैं, जबकि दूसरी ओर एनडीए के घटक दलों के बीच जैसे-तैसे सीटों का बंटवारा हो जाने के बाद अभी तक परस्पर अविश्वास बना हुआ है। वे पार्टियां और उनके नेता अब चुनाव मैदान में भी एक-दूसरे को निबटाने और पुराना हिसाब चुकता करने में लगे हुए हैं। हिंदी भाषी राज्यों में बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी है। इस बार वह हर हाल में अपनी यह हसरत पूरी करना चाहती है, इसलिए उसकी पूरी कोशिश है कि जनता दल (यू) किसी भी सूरत में 50 से ज्यादा सीटें न जीत पाए। पिछली बार 2020 में भी भाजपा 74 सीटों के साथ एनडीए में सबसे बड़ी पार्टी थी, जबकि जनता दल (यू) को महज 43 सीटें ही मिली थी। इसके बावजूद भाजपा को मजबूरी में नीतीश को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा था। इस बार वह हर हाल में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से दूर रखना चाहती है।

यह बात नीतीश कुमार भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। इसीलिए वे चुनाव प्रचार में भाजपा से लगभग दूरी बनाए हुए हैं और सिर्फ अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए ही प्रचार कर रहे हैं। यही नहीं, उनकी पार्टी चिराग पासवान को सबक सिखाने के इंतजाम में भी जुटी है। पिछली बार चिराग ने एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ा था कई सीटों पर जनता दल (यू) को हराने में अहम भूमिका निभाई थी। माना जाता है कि ऐसा उन्होंने भाजपा के कहने पर किया था, सो नीतीश कुमार इस बार चिराग की पार्टी को ज्यादा से ज्यादा सीटों पर हरवा कर पुराना हिसाब चुकता करना चाहते हैं। उधर चिराग पासवान भी यही काम नीतीश कुमार और जीतनराम मांझी के साथ करने में जुटे हैं।

इस सबके अलावा भाजपा और जनता दल (यू) में आंतरिक कलह भी कम नहीं है। भाजपा में कई पुराने नेता सम्राट चौधरी को हारते हुए देखना चाह रहे हैं, तो वहीं जेडीयू में ललन सिंह और संजय झा की चाहत है कि विजय चौधरी और विजेंद्र यादव किसी सूरत में जीत न पाएं। मगर इन सब बातों को भाजपा के प्रचारक की भूमिका निभा रहा मीडिया देखते-समझते हुए भी नजरंदाज कर रहा है। इस पूरे सूरत-ए-हाल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अच्छी तरह समझ रहे हैं, इसलिए हर बार की तरह उन्होंने इस बार खुद को दांव पर नहीं लगाया है। उनके चुनावी भाषणों से 'यह मोदी की गारंटी है' जैसे जुमले नदारद हैं। अलबत्ता स्तरहीन कटाक्षों और संवादों के मामले में वे अपना ही रिकॉर्ड तोड़कर हमेशा की तरह नया रिकॉर्ड बनाते दिख रहे हैं। ऐसा करने में अमित शाह, योगी आदित्यनाथ सहित तमाम नेता भी पीछे नहीं हैं। चुनाव आयोग हमेशा की तरह एनडीए के सहयोगी दल की भूमिका में काम करते हुए मूकदर्शक बना हुआ है।

हिंदी भाषी राज्यों में बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां चुनाव में सांप्रदायिक धु्रवीकरण के मुद्दे ज्यादा असर नहीं दिखा पाते हैं। सिर्फ 2014 का लोकसभा चुनाव अपवाद था, जिसमें भाजपा ने अकेले दम पर अभूतपूर्व जीत हासिल की थी। हालांकि उसकी भी अहम वजह यह थी कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं। फिर भी भाजपा को वह जीत सांप्रदायिक धु्रवीकरण की बदौलत नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी द्वारा पेश किए गए विकास के गुजरात मॉडल और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर मिली थी। उस चुनाव के डेढ़ साल बाद ही बिहार विधानसभा के चुनाव हुए थे, जिसमें लालू प्रसाद और नीतीश कुमार मिल कर लड़े। कांग्रेस भी उनके गठबंधन में शरीक थी। भाजपा के चुनाव अभियान की कमान पार्टी के अध्यक्ष बन चुके अमित शाह ने संभाली थी। उस चुनाव में मोदी और शाह ने सांप्रदायिक धु्रवीकरण के खूब प्रयास किए थे। उन्होंने सभाओं में यहां तक कहा था कि, 'अगर भाजपा हार गई तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे।' फिर भी भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था। उस चुनाव में भाजपा के साथ लड़ीं रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी की पार्टियों का तो सफाया ही हो गया था। उसके बाद विधानसभा का एक और लोकसभा के दो चुनाव भाजपा नीतीश कुमार के साथ ही लड़ी और किसी भी चुनाव में उसे सांप्रदायिक धु्रवीकरण की जरुरत नहीं पड़ी। एनडीए की जीत सुनिश्चित करने के लिए नीतीश कुमार का नाम ही काफी था।

इस बार भी नीतीश भाजपा के साथ हैं लेकिन अमित शाह 2015 के चुनाव की तर्ज पर सांप्रदायिक धु्रवीकरण के प्रयास में लगे हैं। जाहिर है कि भाजपा नीतीश कुमार के चेहरे का लाभ तो उठाना चाहती है लेकिन चुनाव अपने एजेंडे पर ही लड़ना चाहती है ताकि चुनाव के बाद वह मुख्यमंत्री पद से नीतीश को दूर रख सके। हालांकि नीतीश के चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ने का एनडीए को नुकसान हो सकता है।

लगता है कि भाजपा को उस नुकसान का अहसास है और उसकी भरपाई के लिए ही वह सांप्रदायिक धु्रवीकरण का एजेंडा चला रही है। अगर ऐसा नहीं होता है तो 20 साल के बिहार सरकार के काम-काज और 11 साल के केंद्र सरकार के काम-काज पर वोट मांगा जाता और आगे के विकास का रोडमैप बिहार की जनता के सामने रखा जाता। लेकिन अमित शाह तीखे सांप्रदायिक धु्रवीकरण कराने वाले भाषण दे रहे हैं, जिसका नुकसान भी हो सकता है। वे मर चुके शहाबुद्दीन का जिक्र जगह-जगह अपने भाषणों में कर रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि शहाबुद्दीन के जीवनकाल में ही नीतीश कुमार ने ऐसी स्थिति कर दी थी कि लोग उनसे नहीं डरते थे। खगड़िया की सभा में अमित शाह ने कहा कि सैकड़ों बख्तियार खिलजी आ जाएं तब भी नालंदा को नहीं जला पाएंगे। हर सभा में वे घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात करते हैं, जबकि इसका आंकड़ा कोई नहीं दे पा रहा है कि बिहार में एसआईआर होने के बाद कितने घुसपैठिए मिले।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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