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नक्कालों से सावधान, क्योंकि खेद नहीं है

ब्रिटिश प्रसारक बीबीसी के प्रमुख टीम डेवी और समाचार की मुख्य कार्यकारी अधिकारी डेबोरा टर्नेस ने रविवार 9 नवंबर को अपने पद से इस्तीफा दे दिया

नक्कालों से सावधान, क्योंकि खेद नहीं है
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  • सर्वमित्रा सुरजन

भारतीय पत्रकारिता के पुरखों ने जिन कष्टों के साथ जनता की आवाज को उठाने का काम किया है, उसी प्रताप की फसल आज के पत्रकार काट रहे हैं। आजादी के वक्त अंग्रेजी शासन की नाराजगी के खतरे मोल लेकर, कम साधनों के साथ पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होते थे, ताकि जनता में आजादी और बाकी अधिकारों के लिए जागरुकता लाई जाए। आजादी के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा।

ब्रिटिश प्रसारक बीबीसी के प्रमुख टीम डेवी और समाचार की मुख्य कार्यकारी अधिकारी डेबोरा टर्नेस ने रविवार 9 नवंबर को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। दरअसल बीबीसी के एक कार्यक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भाषण को गलत संदर्भ में दिखाने के आरोप लगे थे। व्हाइट हाउस ने बीबीसी को 'प्रोपेगैंडा मशीन' (प्रचार मशीन) करार दिया था। बीबीसी के पैनोरमा कार्यक्रम में ट्रंप के भाषण के दो हिस्सों को एक साथ इस तरह संपादित किया गया था, मानो ट्रंप जनवरी 2021 के कैपिटल हिल दंगों को प्रोत्साहित कर रहे थे। ज्ञात हो कि ट्रंप उस वक्त राष्ट्रपति चुनाव हार गए थे और तब उनके समर्थकों ने कैपिटल हिल पर हमला किया था, जो अमेरिका के लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती माना गया था। इस प्रकरण पर बीबीसी की पैनोरमा डॉक्यूमेंट्री में ट्रंप अपने समर्थकों से कहते हुए दिखाई दिए थे कि 'हम कैपिटल तक पैदल चलेंगे' और 'पूरी ताकत से लड़ेंगे'। लेकिन बाद में यह बताया गया कि यह टिप्पणी ट्रंप ने अपने भाषण के एक अलग हिस्से में की थी। असल में ट्रंप ने कहा था कि वे 'हमारे बहादुर सीनेटरों और कांग्रेसियों का उत्साहवर्धन करेंगे।' बीबीसी की इस डॉक्यूमेंट्री पर ट्रंप की प्रेस सचिव कैरोलिन लेविट ने बीबीसी को '100 प्रतिशत फर्जी खबर' बताया था। इसके दो दिन बाद ही बीबीसी में दो बड़े इस्तीफे हो गए।

गौरतलब है कि बीबीसी पर हाल के वर्षों में निष्पक्ष समाचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखने में विफल रहने के, साथ ही धु्रवीकृत हो चुके राजनीतिक और सामाजिक माहौल में तालमेल न बिठा पाने के आरोप लगे हैं। हालांकि बीबीसी सीईओ डेबोरा टर्नेस ने कर्मचारियों को भेजे एक ईमेल में कहा कि हालांकि गलतियां हुई हैं, पर 'मैं बिल्कुल स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि बीबीसी न्यूज़ के संस्थागत रूप से पक्षपाती होने के हालिया आरोप गलत हैं।'

बीबीसी के इस पूरे प्रकरण को यहां उद्धृत करने का मकसद पाठक समझ ही चुके होंगे। मीडिया जगत में विश्वसनीयता केवल शब्द नहीं है, उसका प्राणतत्व है। भाषा में अशुद्धि हो सकती है, लिखने का तरीका अरुचिकर हो सकता है, तथ्यों का दोहराव हो सकता है। लेकिन खबर गलत और पक्षपातपूर्ण नहीं होनी चाहिए, यही पत्रकारिता की पहली और आखिरी शर्त है। मानवीय या तकनीकी त्रुटि से खबर गलत बन भी गई तो भूल सुधार कर पाठकों तक सही जानकारी पहुंचानी चाहिए। बीबीसी अभी इन बुनियादी शर्तों पर टिका नजर आ रहा है, लेकिन भारत के मीडिया के संदर्भ में क्या यही दावा किया जा सकता है, यह कठिन सवाल हमारे सामने है।

2007 में कनाडा के पत्रकार क्रेग सिल्वरमैन की एक किताब आई थी : रिग्रेट द एरर यानी त्रुटि के लिए खेद है। इस किताब में उन्होंने बताया है कि त्रुटि के लिए खेद है, यह वाक्य लगभग हर रोज हम अखबारों और पत्रिकाओं में देखते हैं। सिल्वरमैन ने बड़े रोचक तरीके से कभी हास्यास्पद, कभी चौंकाने वाली और कभी-कभी परेशान करने वाले पत्रकारिता की गलतियों और सुधारों का संग्रह इस किताब में दिया है। इसमें सभी प्रकार की अशुद्धियां हैं, एक जीवित और स्वस्थ व्यक्ति का मृत्युलेख छापने से लेकर पूर्ण और घोर नैतिक चूक तक सबका उल्लेख है। इस किताब में मीडिया की गलतियों के इतिहास के जरिए समकालीन पत्रकारिता में जनता के प्रति जवाबदेही की कमी की गंभीर प्रवृत्ति को उकेरा गया है। शायद इस समय भारतीय मीडिया के स्वघोषित धुरंधरों और खुद को फिल्मी कलाकारों या खिलाड़ियों की तरह सेलिब्रिटी मानने वाले पत्रकारों को इस किताब पर एक नजर दौड़ाने की जरूरत है। क्योंकि खबरों को सबसे पहले ब्रेक करने के फेर में बिना तथ्यों की जांच के खबर दे दी जाती है और अगर खबर गलत निकले तो डिलीट कर दी जाती है। न कोई भूल सुधार, न कोई खेद प्रकट। मानो अपनी गलती मान लेंगे तो ओहदा थोड़ा छोटा हो जाएगा। ये उथले पत्रकार इतना भी विचार नहीं करते कि आखिर इनका ये ओहदा बना कैसे, जनता इनके कहे-लिखे पर यकीन क्यों करती है।

दरअसल भारतीय पत्रकारिता के पुरखों ने जिन कष्टों के साथ जनता की आवाज को उठाने का काम किया है, उसी प्रताप की फसल आज के पत्रकार काट रहे हैं। आजादी के वक्त अंग्रेजी शासन की नाराजगी के खतरे मोल लेकर, कम साधनों के साथ पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होते थे, ताकि जनता में आजादी और बाकी अधिकारों के लिए जागरुकता लाई जाए। आजादी के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा, हालांकि पूंजीपतियों के हाथों में मीडिया की बागडोर जैसे-जैसे आती गई, प्रायोजित खबरों, इकतरफा विश्लेषण, सरकारी मदद की अपेक्षा में चापलूसी का सिलसिला बढ़ता गया। फिर भी जब तक प्रिंट मीडिया का जमाना था, आंखों का पानी बचा रहा, कि पाठक को भी जवाब भी तो देना है। प्रिंट मीडिया में पोस्ट और डिलीट जैसे त्वरित विकल्प नहीं रहते हैं। मगर इलेक्ट्रानिक मीडिया का चलन बढ़ने यानी टीवी पर निजी चैनलों की बाढ़ आने के बाद से तो जनता तक सही सूचनाएं पहुंचाने की जवाबदेही से चैनल मालिकों और उनके बंधुआ पत्रकारों ने बिल्कुल ही हाथ झटक दिया। अब जनता को टार्गेट (लक्ष्य) की तरह देखा जाता है कि इसे कैसे अपने चंगुल में फंसाया जाए। शुरुआत नाग-नागिन, भूतिया महल, चमत्कारी बाबा जैसे समाचारों से हुई, जनता को समाचारों के बीच इस तरह का मनोरंजन पसंद आ गया तो फिर समाचारों को पूरी तरह किनारे कर केवल मनोरंजन आगे कर दिया गया और अब नफरत ही समाचारों का प्रधानतत्व हो गई है। टीवी की बहसों के बीच मार-पीट, अपशब्दों का प्रयोग होने लगे तो जनता को समझ लेना चाहिए कि उसे किस कदर गिरा हुआ मानकर उसे खबरें परोसी जा रही हैं। यह पत्रकारिता के पेशे का अपमान तो है ही जनता का तिरस्कार भी है। अब अपना सम्मान अपने हाथों रहता है, तो जनता को ही इस पर सोचना होगा।

फिलहाल जिस भाजपा के दौर में पत्रकारिता में आए सबसे बड़े क्षरण को देखा गया है, बुधवार को उस पर भाजपा सांसद हेमा मालिनी तक परेशान दिखीं। दरअसल उनके पति और दिग्गज अभिनेता धर्मेंद्र को लगभग तीन हफ़्ते पहले सांस लेने में तकलीफ़ और निमोनिया होने के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया था और बुधवार की सुबह धर्मेंद्र को अस्पताल से घर ले जाया गया है। लेकिन मंगलवार को आज तक, इंडिया टुडे इन सबमें धर्मेन्द्र की मौत की खबर आ गई। इसके साथ ही धर्मेन्द्र का फिल्मी जीवन, निजी जीवन सब पर सामग्री भी दे दी गई। इंडिया टुडे ने तो बाकायदा पोस्ट में लिखा कि उनकी टीम ने इस खबर की पुष्टि की है। इसके बाद धर्मेन्द्र को सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलियां भी दी जाने लगीं। इससे नाराज होकर हेमा मालिनी ने लिखा कि 'जो हो रहा है उसे माफ़ नहीं किया जा सकता है! ज़िम्मेदार चैनल ऐसे व्यक्ति के बारे में झूठी ख़बर कैसे फै़ला सकते हैं जिस पर इलाज का असर दिख रहा है और वह ठीक हो रहा है? यह बेहद अपमानजनक और गैर ज़िम्मेदाराना है। कृपया परिवार और उसकी निजता का सम्मान करें।' धर्मेन्द्र की बेटी ईशा देओल और अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा ने भी मीडिया की आलोचना की है।

जब खुद पर बीतती है तो नाराजगी होती है। हेमा मालिनी समेत अब पूरी भाजपा को सोचना चाहिए कि जो भस्मासुर उन्होंने खड़ा किया है, वो कभी भी उनके सिर पर हाथ रख सकता है। किसान आंदोलन, शाहीन बाग, ऑपरेशन सिंदूर जैसे अनेक मौकों पर मीडिया में झूठी खबरें चलीं। सोशल मीडिया भी फर्जी खबरें धड़ल्ले से चलाता है। अभी दिल्ली के आतंकी हमले में गलत तस्वीरें दिखाई गईं, जो 2024 में लेबनान के बेरूत में हुए इजरायली एयरस्ट्राइक की तस्वीरें हैं। बिहार चुनाव में भी ऐसी झूठी खबरें खूब चलीं। सरकार ने लोगों से अपील की है कि किसी भी तस्वीर या वीडियो को साझा करने से पहले उसकी सत्यता की जांच करें। हालांकि पहले सरकार को सोचना चाहिए कि उससे कहां चूक हुई है, जो अब खबरों को भी परखने की नौबत आ गई। नकली उत्पाद से बचने के लिए जिस तरह नक्कालों से सावधान की चेतावनी बड़े अक्षरों में लगाई जाती है, ताकि ग्राहक झांसे में न आए। क्या अब नकली खबरों से बचने के लिए भी ऐसी ही सावधानी की जरूरत है। या कि समाचार चैनलों को अब खबरें देने से पहले डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) देना चाहिए कि दर्शक अपने खतरों पर हमारी खबरों पर यकीन करें।


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