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नलों से पानी का टपकना रोककर आप जीवन में विपुल जल राशि बचा सकते हैं : आबिद सुरती

हमें पानी की अहमियत को समझना होगा। सूखते हुए जल स्रोतों को बचाना होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो एक भयावह भविष्य हमारा इंतजार कर रहा है

नलों से पानी का टपकना रोककर आप जीवन में विपुल जल राशि बचा सकते हैं : आबिद सुरती
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  • स्वप्निल तिवारी

हमें पानी की अहमियत को समझना होगा। सूखते हुए जल स्रोतों को बचाना होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो एक भयावह भविष्य हमारा इंतजार कर रहा है। अब सवाल उठता है कि हम क्या करें? जवाब बड़ा आसान है। हम जहां हैं वहीं, पानी की बर्बादी को रोकें। मसलन, नलों से हर सेकंड टपकते एक-एक बूंद पानी की रोकथाम करने से आप महीने भर में 1000 लीटर पानी बचा सकते हैं। यह कहना है पर्यावरण के लिए संघर्ष करने वाले चित्रकार, लेखक, और जाने-माने कार्टूनिस्ट आबिद सुरती का।

देशबंधु से विशेष बातचीत में उन्होंने बताया कि सरकार बार-बार गंगा नदी को बचाने की बात करती रही है। इसी से एक विचार उनके मन में कौंधा कि गंगा से दूर रहने वाला व्यक्ति उसे कैसे बचाएगा? वह क्या करे? और क्या सिर्फ एक नदी को बचाने से ही जल संकट से निपटा जा सकता है? फिर एक लेख मेरे सामने से गुजरा जिसमें यह बताया गया था कि घर के नलों से प्रति सेकंड एक बूंद टपकता पानी महीने भर में 1000 लीटर हो जाता है। इस हिसाब से साल और जिंदगी भर का गुणा-भाग किया जाए तो आप पाएंगे इस एक बूंद को टपकने से रोककर आपने अपने पूरे जीवन में विपुल जलराशि का संरक्षण कर दिया। यह मुझे एक पानी का स्रोत बचाने जैसा लगा। और इसे ही 'ड्रॉप डेड' अभियान की शुरुआत हुई।

श्री सुरती का कहना है कि पानी और उसके संरक्षण को लेकर उनके रुझान की एक वजह उनका बचपन भी रहा है। उन्होंने बताया कि उनका बचपन फुटपाथों पर बीता है और उन्होंने पानी के लिए अपनी मां को घंटों लाइन में लगे हुए देखा है। इससे वे पानी की अहमियत को भली भांति समझते हैं।

मुंबई जैसे शहर में राह नहीं थी आसान

उन्होंने बताया 'ड्रॉप डेड' जैसा अभियान चलाना मुंबई जैसे शहर में आसान नहीं था। लोगों ने पहले तो इसे शक की नज़र से देखा। थोड़ा बहुत प्रतिरोध भी किया लेकिन इसके भी हमने रास्ते निकले। अब हम लोग हर सोमवार को चिन्हित इलाके या अपार्टमेंट में जाकर वहां का प्रबंधन देख रहे लोगों से चर्चा करते हैं। उसके बाद हम अपने अभियान से संबंधित वहां पोस्टर लगाते हैं और हर शनिवार को जाकर उस इलाके के लोगों के घरों में टपकते हुए नलों को दुरुस्त करते हैं। आमतौर पर मध्य, निम्न मध्य और गरीब वर्ग के रिहायशी इलाके हमारे इस अभियान के केंद्र में होते हैं।

चित्रकारी के शौक ने लेखक बना

दिया और कार्टून ने शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया

80 से ज्यादा किताबें लिख चुके आबिद सुरती बताते हैं कि वे मूल रूप से एक चित्रकार हैं और चित्रकारी के शौक ने उन्हें लेखक बना दिया। उन्होंने बताया कि 'कैनवस' खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं होते थे इसलिए उन्होंने लेखन का काम शुरू किया और इससे जो उन्हें आमदनी होती थी उसे चित्रकारी में लगा देते थे। यहीं से उनके व्यंगात्मक और चुटीली शैली ने लोगों का ध्यान खींचा और वे कार्टूनिस्ट बन गए। 'ढब्बू जी' शीर्षक से बने कार्टून सीरीज ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया।

उन्होंने बताया कि सबसे पहले लेखन गुजराती में शुरू किया। उनके पहले कार्टून गुजराती पत्रिका 'चेत मछंदर' में छपते थे। उन कार्टूनों का मुख्य चरित्र 'बटुक भाई' था, जो हिंदी में 'ढब्बू जी' बन गया। उन्होंने इस किरदार का पहनावा अपने सूफी पिता से लिया। वहीं, मूंछ चार्ली चैपलिन से प्रभावित होकर ली। और शायद यही वजह रही कि राजनीति से ज़्यादा सामाजिक मुद्दों पर उन्होंने कार्टून बनाएं।

जब भारती जी ने अटल जी से कहा - आबिद ने 'धर्मयुग' को

मुसलमान बना दिया

श्री सुरती बताते हैं कि उनके कार्टूनों को अलबत्ता हर वर्ग में पसंद किया लेकिन 'ओशो' और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उनके सबसे बड़े प्रशंसकों में रहे। इसको लेकर वे एक किस्सा भी सुनाते हैं। उन्होंने बताया कि 80 के दशक की शुरुआत में 'धर्मयुग' के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती से अटल बिहारी वाजपेयी ने 'ढब्बू जी' से मिलने की इच्छा व्यक्त की। इस पर डॉ. भारती ने अपने घर पर एक पार्टी रखी और उसमें उन्हें भी बुलाया लेकिन अटल जी से मुलाकात को लेकर उन्होंने उन्हें कुछ भी नहीं बताया था।

आबिद सुरती कहते हैं कि उसे दौर में संचार के साधन इतने उन्नत नहीं थे। वह सोशल मीडिया का दौर भी नहीं था। इसलिए वे तो अटल जी को पहचानते थे लेकिन अटल जी उन्हें नहीं पहचानते थे। जब वे डॉ. भारती के घर पहुंचे अटल जी पहले से ही वहां मौजूद थे। उनके वहां पहुंचते ही डॉ. भारती ने वाजपेयी जी की ओर देखा और आंखों से इशारा करते हुए बुदबुदाया 'ढब्बू जी'। डॉ. भारती का इशारा पाते ही अटल जी तेजी से लपके और उनका हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया। काफी देर तक उन्होंने हाथ नहीं छोड़ा तो डॉ. भारती आए और वाजपेयी जी से कहा - 'अटल जी इन्होंने धर्मयुग को मुसलमान बना दिया।' इसके बाद अटल जी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में ठहाका लगाया और हाथ छोड़ दिया। दरअसल, धर्मयुग में कार्टून कोना ढब्बू जी एकदम आखिरी पन्ने पर आता था और पाठक वहीं से पत्रिका पढ़ना शुरू करते थे।

'ओशो' से न मिल पाने का पछतावा

उन्होंने बताया कि ओशो से उनकी कभी मुलाकात नहीं हुई लेकिन ओशो उनसे जरूर मिलना चाहते थे। कई संदेशों के बाद भी उन्होंने ओशो से मुलाकात नहीं की, लेकिन आज ओशो को पढ़ने के बाद उन्हें इसी बात का पछतावा है कि आखिर उन्होंने उनसे मिलना क्यों पसंद नहीं किया। श्री सुरती बताते हैं कि ओशो अपने प्रवचनों के बीच में हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहते थे, 'चलो देखते हैं इस सप्ताह ढब्बू जी क्या कहते हैं,' और धर्मयुग खोलकर कार्टून कोना ढब्बू जी पढ़ते थे। इतना ही नहीं इसके बाद वे उसके मायने अपने ही अंदाज़ में समझाते थे। बाद में आर्थिक तंगी के दौर में लोगों ने मुझे सलाह दी की ओशो पर कॉपीराइट के तहत मुकदमा करके रॉयल्टी मांगो। तब तक वे अमेरिका चले गए थे। आबिद सुरती के मुताबिक, उन्होंने मुकदमा करके रॉयल्टी तो नहीं मांगी, ओशो को चि_ी ज़रूर लिखी थी, जिसका कोई जवाब नहीं आया।

तीसरी किताब ने मुझे सच्चा

मुसलमान बना दिया

आबिद सुरती बताते हैं कि उनके पिता शिया मुसलमान थे और सूफी थे। वे भी पक्के मुसलमान थे लेकिन उन्होंने अपने दिमाग की खिड़की खुली रखी थी और जो कोई भी बातें आती थी उन्हें तार्किक अंदाज़ में स्वीकार करते थे। उन्होंने 30 बरस की उम्र में सबसे पहले एक शिया आलिम की मोहम्मद साहब पर लिखी किताब पढ़ी। उन्हें किताब तो अच्छी लगी लेकिन लगा कि यह किसी खास फिरके के नजरिए से लिखी हुई है। फिर उन्होंने एक सुन्नी आलिम की किताब पढ़ी और यहां भी वही बात उन्हें महसूस हुई। यानी कि सभी अपने-अपने फिरके को बेहतर बता रहे थे। फिर उनके हाथ एक रूसी लेखक की किताब 'मोहम्मद' लगी। उसे पढ़ने के बाद उन्हें लगा कि यह बहुत तार्किक ढंग से लिखी गई किताब है। बकौल आबिद सुरती इस किताब ने उन्हें 'सच्चा मुसलमान' बना दिया।

ऐसा नहीं है कि आबिद सुरती अपने को सच्चा मुसलमान ही कहते हैं। वे अपने को बुद्ध का सच्चा अनुयाई भी कहते हैं। उनके हिसाब से बुद्ध कोई धर्म का निर्माण नहीं करते। वे सच की राह दिखाते हैं। तर्कों के साथ आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

(लेखक देशबन्धु, भोपाल के मुख्य संवाददाता हैं।)


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