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हमें एकभाषी देश बनने की आकांक्षा नहीं रखना चाहिये : अशोक वाजपेयी

ख्यात कवि, आलोचक अशोक वाजपेयी से रुखसाना मिर्जा की चर्चा

हमें एकभाषी देश बनने की आकांक्षा नहीं रखना चाहिये : अशोक वाजपेयी
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कोई एक दशक बाद अशोक वाजपेयी का इंदौर - उज्जैन आना हुआ, जहां उन्होंने कुछ कार्यक्रमों में शिरकत की। इस दौरान उनसे मुलाकात का मौका मिला। अशोक वाजपेयी कला और साहित्य जगत पर ही नहीं बल्कि समाज और संस्कृति में आ रहे बदलावों पर भी पैनी नज़र रखते हैं। पेश है उनसे हुई बातचीत -

प्रश्न: अवॉर्ड वापसी की को दस वर्ष हो गये। उसके बाद के परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं?

उत्तर : दस वर्षों में असहिष्णुता दस गुना बढ़ गई है। राजनीति में विरोधी को शत्रु माना जाने लगा है। खासतौर से हिन्दी अंचल में ज्ञान का अवमूल्यन सबसे ज़्यादा हो रहा है। इस अंचल में अज्ञान की प्रतिष्ठा, और अज्ञान का महिमामंडन हो रहा है। कोई भी ऐरा-गैरा नेता इतिहास जैसे जटिल विषयों पर वक्तव्य दे देता है, जिसका कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है। संस्कृति को तमाशा बना दिया गया है। इसी का परिणाम है कि हिन्दी अंचल में स्त्रियों, बच्चों, दलितों और अल्पसंख्यकों के प्रति अपराध ज़्यादा बढ़े हैं अपेक्षाकृत अन्य प्रदेशों से। हिन्दी अंचल देश का सबसे अधिक धर्मांध, सांप्रदायिक और जातिग्रस्त अंचल बन गया है।

प्रश्न : समाज में जो कुछ हो रहा है क्या उसकी अनुगूंज साहित्य में सुनाई पड़ रही है।

उत्तर - हां, हिन्दी में ऐसे लेखकों की तादाद कम नहीं है जो इस दौर की घटनाओं से व्यथित हैं, और साहित्यिक स्तर पर जो हो सकता है वह कर रहे हैं। यह वर्ग साहसिक है, पर लेखकों-कलाकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि $गलत हो रहा है पर अपने को सुरक्षित रखते हुए कुछ करने से डरता है और यह वर्ग का$फी बड़ा है। एक तीसरा वर्ग सत्ताभक्त है पर उसमें महत्वपूर्ण लोग नहीं हैं।

प्रश्न: क्या समाज में प्रश्नवाचकता खत्म हो रही है?

उत्तर- हां, प्रश्न वाचकता शिथिल हो रही है, जबकि ऐसा होना हमारी परंपरा से बेमेल है। हमारी परंपरा तो प्राचीनकाल से ही प्रश्नवाचक रही है।

प्रश्रवाचकता के कारण ही जैन और बौद्ध धर्म का उदय हुआ। विश्वविद्यालयों में शिक्षकों को विद्यार्थियों में प्रश्र पूछने की आदत डालना चाहिये। साहित्य का तो लक्ष्य ही प्रश्रवाचकता को उत्तेजित करना होना चाहिये पर ऐसा हो नहीं रहा।

प्रश्न : हिन्दी क्षेत्र में साहित्य और कला की सभी विधाओं के बीच अंतरसंबंध क्यों नजर नहीं आता?

उत्तर- हमारे यहां 19वीं सदी तक कलाओं के बीच गहरा अंतरसंबंध स्वाभाविक रूप से रहता था। औपनिवेशिक काल में पाश्चात्य आधुनिकता के अनुकरण के चलते यह संबंध ख़त्म हुआ जो आज़ादी के बाद भी कभी बन ही नहीं पाया। दिल्ली में साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी एक ही भवन में हैं पर तीनों में कोई संवाद नहीं होता। तीनों मिल कर कोई आयोजन भी नहीं करते। मैं जब ललित कला अकादमी में था तब एक आयोजन किया था जिसमें सभी विधाओं के कलाकार, साहित्यकार शामिल हुए पर उसके बाद फिर कुछ नहीं हुआ। भारत भवन के पीछे भी यही मूल विचार था पर अब तो वहां भजन होते हैं।

प्रश्न: आप हिन्दी के शिक्षकों के प्रति काफी कटु रहे हैं, क्या वजह है ?

उत्तर- मेरी किसी से कोई निजी खुन्नस नहीं है पर हिन्दी का जो अकादमिक जगत है उसमें अपवादों को छोड़ कर अधिकांश शिक्षक, विद्यार्थियों के बीच साहित्य को लेकर गहरी और स्थायी समझ विकसित पैदा नहीं कर पाए। हिन्दी को इतने यांत्रिक ढंग से पढ़ाया जाता है कि हर साल हिन्दी में एम.ए. करने वाले विद्यार्थियों में से 99 फीसदी फिर कभी साहित्य की ओर वापस नहीं लौटते। हिन्दी में पीएचडी करने वाले कई विद्यार्थी सा$फ-सुथरी हिन्दी बोल भी नहीं सकते।

प्रश्र : हिन्दी में क्या कुछ उल्लेखनीय हो रहा है ?

उत्तर: इस समय हिन्दी में जो अच्छा काम हो रहा है वह इतिहास और समाज विज्ञान में हो रहा है। कुछ युवा अध्येता हैं जो कायदे और प्रामाणिकता के साथ काम कर रहे हैं।

प्रश्न: पिछले दिनों दक्षिण के राज्यों ने हिन्दी थोपने का आरोप लगाया, इस पर आपका क्या कहना है?

उत्तर: एक समय ऐसा सोचा गया था पर जब विरोध हुआ तो उसे वहीं छोड़ दिया गया। अब हिन्दी को राजभाषा बनाने का कोई औचित्य नहीं है। यह हिन्दीभाषियों को एक झूठा अभिमान देने की कोशिश भर है। भाषा के मामले में हिन्दी भाषी राज्यों ने त्रिभाषा सूत्र का कभी पालन नहीं किया और इस फार्मूले का दुरुपयोग भी किया। हिन्दी अंग्रेज़ी के साथ किसी दक्षिणी भाषा को रखने के बजाय संस्कृत रख दी गई।


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