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दहलीज

शहर की ऊँची इमारतों के बीच एक तंग गली थी और उसी गली में एक छोटी-सी किराने की दुकान थी

दहलीज
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  • महेन्द्र तिवारी

प्रकाश का दिल एक पल के लिए ज़ोर से धड़का। उसकी उम्मीदों को एक डोर मिल गई थी जैसे। फिर भी, उसे लगा जैसे उसके अंदर का बूढ़ा आदमी फुसफुसा रहा हो, अब क्यों कर रहा शादी? क्या फायदा? वो लड़की तेरी उम्र से काफी छोटी है। उसकी भी तो उम्मीदें होंगी, उसके बहुत सारे सपने होंगे, उन्हें पूरा कर पायेगा तू?

शहर की ऊँची इमारतों के बीच एक तंग गली थी और उसी गली में एक छोटी-सी किराने की दुकान थी। उसकी लकड़ी की दहलीज समय के साथ इतनी घिस चुकी थी कि अब चमकने लगी थी। ठीक वैसे ही जैसे उसके पैंतालीस वर्षीय मालिक प्रकाश की थकी हुई उम्मीदें जो सालों की जद्दोजहद में फीकी पड़ गई थी। उसकी ज़िंदगी सुबह दुकान खोलने से शुरू होती और रात को हिसाब-किताब लगाने के बाद खत्म होती। मेहनत उसकी पहचान थी, मगर उसके भीतर कहीं एक गहरी रिक्तता हर रोज़ उसे कचोटती रहती थी।

प्रकाश की माँ, जो अब इस दुनिया में नहीं थी, अक्सर कहती थीं, 'बेटा, शादी तो सबको एक दिन करनी ही पड़ती है, लेकिन समय पर हो जाए तो अच्छा लगता है।' प्रकाश मुस्कुरा कर टाल देता था। युवावस्था में उसके बहुत से सपने थे, महत्वाकांक्षाएँ थीं। वह अपनी दुकान को बड़ा करना चाहता था, एक नाम कमाना चाहता था। शादी का विचार हमेशा से उसकी प्राथमिकता सूची में नीचे ही रहा। जब तक उसे अहसास हुआ, 'सही उम्र' की ट्रेन पीछे छूट चुकी थी। उसके दोस्त जो कभी उसके साथ क्रिकेट खेलते थे, अब अपने बच्चों को कॉलेज भेजने की बात करते थे। उनकी पत्नियाँ कभी-कभार उसकी दुकान पर आतीं। राशन लेते समय सहानुभूति भरी नज़रों से देखतीं और यही बोलतीं कि 'प्रकाश भैया, अब आप भी शादी कर ही लो?' वह हमेशा की तरह एक ही जवाब देता, 'हाँ, बहन जी, जब भगवान की मज़ीर् होगी तो हो ही जाएगी।'

एक दिन, उसके दुकान पर एक नई लड़की आई काम करने। नाम रितु था और वह करीब पच्चीस साल की थी- चंचल और हंसमुख। उसके आने से दुकान में एक नई रौनक आ गई थी। रितु के सवाल सीधे और बिना लाग-लपेट के होते थे। उसने भी यही सवाल जड़ दिया 'प्रकाश भैया, आप शादी क्यों नहीं कर लेते?'

उसके सवाल ऐसे थे, जैसे रिश्ते सामने बिखरे पड़े हैं और मैं उन्हें उठाने में देरी कर दी हो। उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, 'कैसे कर लूँ, रितु? सामने कोई पार्टी हो तब तो?'

रितु ने पलट कर कहा, 'पार्टी यूँ ही नहीं आती भैया, कोशिश भी करते रहना चाहिए।'

उसकी बात ने प्रकाश को सोचने पर मजबूर कर दिया था। क्या सच में उसने कभी कोशिश की थी? या वह अपनी दुकान और अपनी दुनिया में ही खोया रहा अब तक?

उसने कभी किसी लड़की से खुलकर बातें नहीं की थी। कभी किसी से अपने दिल की बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। संकोच और समाज के डर ने उसे हमेशा पीछे धकेलता रहा था। उसे लगता था कि अब इस उम्र में उससे शादी कौन करेगा?

कुछ दिनों बाद, रितु एक प्रस्ताव लेकर आई। 'भैया, मेरी एक मौसी हैं। वह भी अकेली हैं और अच्छी पढ़ी-लिखी हैं। उम्र करीब चालीस होगी, क्या मैं उनकी बात चलाऊँ?'

प्रकाश का दिल एक पल के लिए ज़ोर से धड़का। उसकी उम्मीदों को एक डोर मिल गई थी जैसे। फिर भी, उसे लगा जैसे उसके अंदर का बूढ़ा आदमी फुसफुसा रहा हो, अब क्यों कर रहा शादी? क्या फायदा? वो लड़की तेरी उम्र से काफी छोटी है। उसकी भी तो उम्मीदें होंगी, उसके बहुत सारे सपने होंगे, उन्हें पूरा कर पायेगा तू?

'नहीं, रितु। रहने दो,' प्रकाश ने कहा, 'अब इस उम्र में मुझे यह सब शोभा नहीं देता।'

रितु ने हँसते हुए कहा, 'प्यार की कोई उम्र नहीं होती, भैया! और खुशी की भी नहीं।'

रितु हार मानने वालों में से कहाँ थी। उसने चुपके से अपनी मौसी की तस्वीर प्रकाश के फोन पर भेज दी। मौसी का नाम मीना था। उसने तुरंत तस्वीर देखी। सादगी लिबास में भी वह अव्वल लग रही थी। उसकी आँखों में एक आकर्षण था। प्रकाश ने वह तस्वीर बार-बार देखी। उसे लगा कि मीना की आँखों में भी शायद वही इंतज़ार था, जो आज उसकी आँखों में है।

एक दिन, दुकान बंद करने का समय हो चला था, तभी रितु ने प्रकाश को नजदीक बुलाया। रितु ने प्रकाश को धीरे से बताया कि उसने मीना मौसी को आपके बारे में सब कुछ बता दिया है और वह आपसे मिलना चाहती हैं। प्रकाश घबरा गया। उसकी हथेलियाँ पसीने से भीग गईं। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह आज कोई टीनएज लड़का हो जो पहली बार किसी लड़की से मिलने जा रहा हो।

अगले हफ्ते, रितु ने एक कॉफीशॉप में उनके मुलाकात का दिन तय कर दी थी। प्रकाश ने अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने, जो उसने सालों से किसी शादी में जाने के लिए बचा कर रखे थे। शीशे के सामने खड़ा होकर उसने खुद को देखा। उसके बाल कुछ कम हो गए थे, चेहरे पर झुर्रियाँ गहरी हो गई थीं और कनपट्टियों में उजालापन उग आया था। क्या वह सच में अब भी किसी को आकर्षित कर सकता है?

कॉफीशॉप में मीना समय से पहले ही पहुँच चुकी थी। उन्हें देखते ही प्रकाश की घबराहट थोड़ी और बढ़ गई। मीना वैसी ही थीं जैसी तस्वीर में दिख रही थीं - मासूम और शालीन।

शुरुआत में बातचीत थोड़ी अटपटी रही। दोनों ही अपनी ज़िंदगी के उस पड़ाव पर थे जहाँ उन्हें लगा था कि शादी की संभावना खत्म हो गई है। मीना एक स्कूल में टीचर थी। उसने भी जिंदगी में पहले अपने कैरियर पर ध्यान दिया था और कभी किसी 'सही' रिश्ते में नहीं बँध पाई थीं अब तक।

'मुझे लगा था कि अब शादी की मेरी 'एक्सपायरीडेट' निकल चुकी है,' मीना ने हल्की मुस्कान के साथ कहा।

प्रकाश को लगा जैसे मीना ने उसके दिल की बात कह दी हो। 'मुझे भी यही लगा था,' उसने धीरे से कहा। 'मुझे तो लगता था कि मैं अब अकेला ही बूढ़ा हो जाऊँगा।'

जैसे-जैसे वे बातें करते गए, उन्हें लगा कि उनके विचार, उनकी परेशानियाँ और उनकी उम्मीदें बहुत कुछ मिलती-जुलती थीं। दोनों ही ज़िंदगी के ऐसे पड़ाव पर एक साथी की तलाश में थे, एक ऐसे साथी की जो उन्हें समझे, उनकी आदतों को स्वीकार करे और उनके राह में साथ-साथ चले। उन्हें एहसास हुआ कि यह केवल प्यार नहीं था, बल्कि एक गहरी समझ वाले साथी की तलाश थी।

मीना ने बताया कि कैसे उनके कुछ दोस्त उनसे कहते थे कि 'मीना, तुम शादी क्यों कर रही हो? आज़ाद पंछी की तरह रहो बिंदास। लेकिन ऐसी आज़ादी का क्या फायदा जब बांटने के लिए कोई सामने ना हो?' मीना ने अपने विचार रखे।

प्रकाश ने सहमति में सिर हिलाई। उसने महसूस किया कि उसकी दुकान, उसके पैसे और उसकी एकांत ज़िंदगी अब उसे अधूरा लगने लगी थी।

उनकी मुलाकातें जारी रहीं। हर मुलाकात के साथ, प्रकाश और मीना के बीच एक अदृश्य बंधन बनता चला गया। उन्हें एक-दूसरे में वह सुकून मिला जिसकी उन्हें सालों से तलाश थी। उन्हें लगा कि उम्र सिर्फ एक संख्या है और 'सही समय' तब होता है जब दो लोग एक-दूसरे के लिए तैयार हों।

कुछ महीने बीत गए। एक दिन प्रकाश ने मीना के सामने अपनी शादी का प्रस्ताव रख ही दिया। यह कोई फिल्मी प्रस्ताव नहीं था, न घुटनों पर बैठना था। बस वह अपनी दुकान की दहलीज पर खड़ा था। मीना की आँखों में झाँकते हुए बोला, 'मीना, क्या तुम मेरी ज़िंदगी की बाकी की दुकानदारी में मेरा साथ दोगी?'

मीना की आँखों में आँसू थे, लेकिन उनके चेहरे पर एक गहरी शांति और खुशी थी। 'हाँ, प्रकाश। मैं तैयार हूँ।'

शहर की पुरानी गलियों में, जहाँ लोगों ने प्रकाश को सालों से अकेला देखा था, उसके जीवन में भी एक नई खुशी की लहर दौड़ गई थी। दुकान पर अब रितु के साथ मीना भी बैठने लगी थी। उसकी दुकान की पुरानी दहलीज पर अब एक नई मुस्कान थी।


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