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'नदी के नाम पैगाम' में छलकता प्यासी नदियों का दर्द

नदियाँ सम्पूर्ण मानव -समाज और जीव -जगत की जीवन -रेखाएँ हैं

नदी के नाम पैगाम में छलकता प्यासी नदियों का दर्द
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  • स्वराज्य करुण

नदियाँ सम्पूर्ण मानव -समाज और जीव -जगत की जीवन -रेखाएँ हैं । जि़न्दगी जीने के लिए प्रकृति से जो अनमोल पानी हमें मुफ़्त मिलता है, उसका सबसे प्रमुख स्रोत होती हैं नदियाँ । यही कारण है कि सभ्यता के विकास क्रम में मनुष्य ने कुछ एक अपवादों को छोड़कर, नदियों के किनारे ही अपने कबीलों के साथ रहना -बसना शुरु किया। नदियाँ इंसानों के साथ -साथ संसार के सभी जीवों की प्यास बुझाती हैं। इन्हीं सब उपकारों की वजह से हमारी भारतीय संस्कृति में नदियों की पूजा की जाती है। हम उन्हें 'माता' कहकर बुलाते हैं।

हमारी वैदिक ऋचाओं में भी नदियों की महिमा का वर्णन किया गया है।हम सभी पर नदियों के असंख्य उपकार हैं. लेकिन इन उपकारों के बदले हम उन्हें दे क्या रहे हैं?

यह सवाल सुभाष पांडेय के कविता-संग्रह 'नदी के नाम पैगाम' की कविताओं में भी ध्वनित होता है, बशर्ते भावुक हृदय के पाठक इसे महसूस करें। उनके इस कविता -संग्रह में 30 कविताएँ हैं। इनमें से 16 कविताएँ नदियों को समर्पित हैं। बाकी 14 कविताएँ भी अपने परिवेश और आम जन -जीवन से जुड़ी हुई हैं।

छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख नदी इंद्रावती के किनारे बस्तर जिले के जगदलपुर में एक जुलाई 1947 को जन्मे और पले -बढ़े और वहीं निवासरत सुभाष पांडेय प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार हैं । नदियों की वर्तमान में हो रही दुर्दशा पर उनकी कविताएँ एक व्यथित और विचलित हृदय की अभिव्यक्ति है। इन कविताओं के माध्यम से कवि देश, दुनिया और समाज को यह संदेश देना चाहते हैं कि धरती पर मानवता को बचाने के लिए नदियों को बचाया जाए ।आज नदियाँ पीड़ित हैं। कवि ने प्रतीकों के जरिए उनकी पीड़ा को शब्द दिए हैं ।

संग्रह की अपनी पहली कविता में कवि लिखते हैं-

*नदी की कोख सूनी है,

इन दिनों गोद ले लिया है नदी ने

मृग-मरीचिका को तो फिर यह तय है,

हम देखेंगे रेतीले सपनों में

जल -प्लावन के भित्ति चित्र

सि$र्फ उनकी दूरबीन से

हम पढ़ेंगे नदी की स्लेट पर

'नदी का न ' और

लुप्त जल प्रपातों का संगीतमय इतिहास/

देखेंगे नदी की कुंडली में

नदी का अंतरिक्ष और नदी का

विस्मृत गमन पथ ।

इस कविता में नदी की कोख सूनी होना, नदी के द्वारा मृग-मरीचिका को गोद लेना, रेतीले सपनों में जल -प्लावन के भित्ति चित्र और नदी का अंतरिक्ष जैसे बिम्ब हमें चौंकाते हैं.

नदी पर सुभाष पांडेय की दूसरी रचना भी उनके कवि हृदय की बेचैन अभिव्यक्ति है. इस कविता का भी एक अंश देखिए -

* वे भी क्या दिन थे

जब हम नदी के साथ रहते थे,

नदी के साथ बहते थे,

आपस में सुनते -कहते थे नदी से

जलतरंग की धुन सुनते हुए

हमने नहीं की ऐसी जि़द

कभी उनकी तरह,

कि हम देखेंगे वर्षा ऋतु में

बलखाती, इठलाती

नदी का नागिन नृत्य

चंद सिक्के न्योछावर करते हुए ।

उनकी तर्ज पर हमने कभी

नहीं मांगा नदी से नदी होने

का वाटर प्रूफ सबूत

और नदी के खोए हुए

जल -वैभव का

प्रामाणिक दस्तावेज़

मान-पत्र की शक्ल में।

हमने जि़द नहीं की कभी,

कि हम देखेंगे

नदी के अंतस में विस्थापित

जलपरियों का क्रीडांगन। *

इस रचना में नदी से नदी होने का वाटर प्रूफ सबूत मांगना, खोए हुए जल -वैभव का प्रामाणिक दस्तावेज़ मांगना (वह भी मान पत्र की शक्ल में और विस्थापित जल-परियों का क्रीडांगन जैसे प्रयोग पाठकों को प्रभावित करते हैं ।

नदियों को समर्पित अपनी एक अन्य कविता में कवि का यह बयान हमें स्तब्ध कर देता है --

*मैं चाहता हूँ नदी का

दिवा स्वप्न सहगामी बनना

एक शर्त पर ।

नदी के आँसू नहीं पोछेंगे

वे लोग, जिनके हाथ सने हैं

नदी के ख़ून से,

जो कर चुके हैं दिवंगत नदी का

पिण्डदान,

आती है दुर्गन्ध जिनके श्रद्धांजलि-पुष्प

और शोक -संवेदनाओं से,

कि जिनके पैरों तले रौँदी गई थी

नदी की आत्मा। *

किसी एक कविता संग्रह में नदियों की वेदना पर केंद्रित अलग-अलग तरह की इतनी कविताओं का एक साथ होना एक अनोखी बात है। कवि ने इनमें से हर कविता में नदियों की चिन्ताजनक हालत को लेकर पूरी भावुकता के साथ अपनी बात रखी है। ये सभी कविताएँ एक से बढ़कर एक हैं। संग्रह की शेष 14 कविताओं में भी हमारे समय के समाज की अनेकानेक विसंगतियों पर कवि की भावनाएँ ख़ूब छलक रही हैं।

कवि 'उनका इंद्रधनुष' शीर्षक कविता में लिखते हैं -

*इंद्रधनुष देखे हुए

एक अर्सा बीत गया.

अब तो दिखाई देता नहीं,

प्रतिबंध लगा है शायद.

अब जबकि उनके आदेशानुसार

बादल छाते हैं, वर्षा होती है,

धूप निकलती है तो फिर

इंद्रधनुष की प्रत्यंचा भी

उनके नियंत्रण में होगी,

ताकि देख सकें वे

चाँदनी रात में भी इंद्रधनुष की छटा ।*

संग्रह के प्राक्कथन में जगदलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार हिमांशु शेखर झा के विचार भी बहुत मूल्यवान और महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने लिखा है - 'जीवन में तरलता का पर्याय होती है नदी । हमारी जीवन -रेखा है नदी। माँ ही तो है नदी।' हिमांशु जी अपने प्राक्कथन में आगे लिखते हैं -'इन कविताओं को पढ़ते हुए, पाठक इनके प्रतीकों, बिम्बों, लय-शैली की विशेषता, नदी की क्षिप्र गति को समाप्त करने वाले गंभीर अवरोध और विलोपन की अनुभूति को तीव्रता से महसूस करेंगे । कहा जाता है कि बस्तर की इंद्रावती नदी का अपहरण जोरा नाले ने कर लिया है ।इसके अलावा न जाने कितनी नदियाँ हैं, जिन्हें प्रदूषित करने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी है । यह कविता संग्रह इन सबकी बात कहता है ।'

पेशे से अधिवक्ता सुभाष पांडेय अपने गृह नगर जगदलपुर में तीन दशकों तक पत्रकार भी रह चुके हैं। वह एक अच्छे रंगकर्मी और चित्रकार भी हैं। उन्होंने 'नदी के नाम पैगाम' शीर्षक अपने संग्रह की कविताओं में स्वयं के हाथों बने कई रेखांकन भी दिए हैं। यह उनका स्वयं का प्रकाशन है । आवरण पृष्ठ को मिलाकर 100 रूपए मूल्य का यह संग्रह 64 पेज का है । सुभाष जी के इस कविता -संग्रह का आवरण चित्र संदीप राशिनकर ने बनाया है । अंतिम आवरण पृष्ठ पर सुभाष जी का परिचय दिया गया है। सुभाष पांडेय अनेक स्थानीय साहित्यिक -सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। उन्होंने आकाशवाणी, दूरदर्शन और रंगमंचों के लिए हिन्दी और बस्तर की प्रमुख लोकभाषा हल्बी में सौ से ज्यादा नाटकों का लेखन और निर्देशन करते हुए उनमें अभिनय भी किया है।

उनकी साहित्यिक -सांस्कृतिक उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त में 'नदी के नाम पैगाम' के शामिल होने की उन्हें हार्दिक बधाई ।


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