उनकी कविताओं का मूल स्वर आशावादी हैं
सुरेश गुप्ता अपने पहले कविता संग्रह के प्राक्कथन में लिखते हैं कि 'कवि होना मेरे बूते की बात नहीं' मगर उनके इस संग्रह - असमय का अंधेरा' की कविताएं पढ़कर लगा कि सुरेश ने जो कुछ भी और जिस परिप्रेक्ष्य में और जिस शैली में भी लिखा है वो कविता ही है और अच्छी कविताएं हैं

सुरेश गुप्ता अपने पहले कविता संग्रह के प्राक्कथन में लिखते हैं कि 'कवि होना मेरे बूते की बात नहीं' मगर उनके इस संग्रह - असमय का अंधेरा' की कविताएं पढ़कर लगा कि सुरेश ने जो कुछ भी और जिस परिप्रेक्ष्य में और जिस शैली में भी लिखा है वो कविता ही है और अच्छी कविताएं हैं । क्षमा करें सुरेश, आपका यह सोच सही नहीं है कि कविता आपके बूते की बात नहीं हैं, आपने अच्छी कविताएं लिखी है और इस लेखन कर्म को निरन्तर रखियेगा।मुझे लगता है कि सुरेश ने इस बात का उल्लेख भले ही न किया हो मगर सरकारी कामकाज की एकरसता से ऊबकर मन में अपने परिवेश और घटित-अघटित को लेकर जो एक भाव मन में उठता है उसकी अभिव्यक्ति के कई माध्यम हो सकते हैं उनमें संस्मरण और कविताएं अहम् हैं और सुरेश ने दूसरा विकल्प चुनकर उस भावभूमि पर अच्छी कविताएं लिखीं है और सभी कविताएं अपने समय और समाज का भाष्य करती है।
सुरेश के संग्रह की शीर्षक कविता - 'असमय का अंधेरा' में जो दिन में होने वाले अंधेरे के कचोटने वाली बात लिखी है, वो बात संग्रह की कई और कविताओं में भी इसी परिप्रेक्ष्य के साथ सामने आई हैं । जब वे कहते हैं-'कुछ पा लिया / कुछ छूट गया /जो छूटा / उसमें / वो रास्ता भी रहा / जो तुम तक / जाता था।' उस एक तुम तक रास्ते के न जा पाने की बात भी असमय अंधेरे के मानिंद ही तो है। उन्हें संस्कारों का अध:पतन भी कचोटता है तभी तो वे लिखते हैं - 'और तब बच्चे / बड़ों के पदचिह्नों पर / चलने के जगह / उन्हें मिटाकर आगे बढ़ना सीख लेंगे।' उन्हें संस्कारों का यह अध:पतन भीतर तक कचोटता है।
वे लिखते हैं 'किसी को हो न हो / मुझे पूरी आस है / किसी दिन - किसी एक पल में /कविता की एक पंक्ति के कलरव से / टूटेगी सन्नाटे की नीरवता।' सुरेश की तलाश सन्नाटे को तोड़ने वाली उसी कविता की एक पंक्ति तक सीमित नहीं है, वे कविता के जरिए बदलाव का संदेश भी देते हैं । उनकी कविता में प्रचलित मुहावरे भी है और एक कविता में जब वो बोलचाल में प्रचलित 'उखाड़ लेना' वाला मुहावरा लिखते हैं तो वह सर्वथा सहज लगता है जबकि यह एक निषिद्ध मुहावरा माना जाता है। कविता के माध्यम से यादों में उतरना और डूबना तथा अपने पैतृक कस्बे खिलचीपुर के बारे में लिखकर यादों के गलियारे में सब कुछ याद करना, अपनी जड़ों की ओर लौटना तथा बदलाव के प्रति अप्रसन्नता को शब्द देने में भी सुरेश ने अच्छे दृष्टांत गढ़े हैं ।
इस संग्रह में सुरेश द्वारा अपने दो दिवंगत मित्रों मनोज पाठक और महेन्द्र गगन के लिये लिखी गई कविताएं भी शामिल हैं। मनोज की
स्मृति में लिखी गई कविता - 'उसकी बात ही कुछ ओर थी' में वे एकदम दिल खोलकर लिखते हैं -
'साथ था तो हरदम / अपने होने की याद दिलाता था / और अब जब नहीं है वो तो /अपने नहीं होने की भी हरदम याद दिलाता है।' इन पंक्तियों में मनोज के प्रति उनकी संलग्नता और बेजोड़ लगाव
परिलक्षित होता है। ठीक इसी प्रकार महेन्द्र गगन की स्मृति को समर्पित कविता में भी उन्होंने लिखा कि - ''महेन्द्र का होना / मह$िफल का होना था' और इस कविता का चरम देखिए - 'मेरे लिये महेन्द्र का होना / नेक इन्सान होने का उत्सव होना था।'
सुरेश की कविता छन्दबद्ध नहीं है मगर विधा का अनुशासन उनमें है। सूक्ष्म, सरल और सुबोध भाषा , विधागत अनुशासन और? विषय की विविधता से सुरेश की कविताएं श्रेष्ठता की मुनादी करती लगती है ।
- राजा दुबे


