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उत्तरजीविता

आखिर जिस बात से गीता डर रही थी वही हो गया। वैसे तो वो कभी अपने पति निर्मल को समाज सेवा करने से रोकती नहीं थी

उत्तरजीविता
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  • मंगला रामचंद्रन

अब जब दोनों मां-बेटे कोरोना पाजि़टिव होकर अपने घर में कैद कर दिए गए हों तो बेटे ने जिस स्नेह और ममता से मां को संभाला वो सहजता से भुलाया नहीं जा सकता। भले ही 35 वर्षीय बेटा बाकी लोगों की संतानों की तरह कमाऊ नहीं है, पर इंसानियत और संवेदना की भावना की तो उसमें कमी नहीं है। गीता का उसके साथ जो 'इन्टरएक्शन' होता था, जो परस्पर क्रिया होती थी उसी के फलस्वरूप बेटे का ऐसा आचरण उसे देखने को मिल रहा है।

आखिर जिस बात से गीता डर रही थी वही हो गया। वैसे तो वो कभी अपने पति निर्मल को समाज सेवा करने से रोकती नहीं थी। वरन् वो भी साथ ही देती और उन्हें प्रोत्साहित ही किया करती थी। पर जब हालात ही इतने बदतर हो गये कि इंसान का दूसरे परिवार के इंसान से मिलने पर प्रतिबंध लग गया। यहॉं तक कि एक निश्चित दूरी भी बना कर रखनी पड़ रही थी तब तो नियमों का सख्त पालन, बेमन से ही सही, करना तो पड़ेगा। संक्रमण का हमला हो जाये उसके बाद डाक्टरों को भी, एक हद तक इलाज के बाद हाथ खड़े करने पड़ रहे हों तो उत्तम तो यही होगा कि संक्रमण से बचे रहें और इसलिए घर में ही सुरक्षित रहें। यही बात गीता निर्मल को बार-बार याद दिलाती रहती है।

'आप किसी की भी मदद फोन पर बातें करते हुए अथवा ऑनलाइन पैसे भेज कर करिये मैं कुछ नहीं कहूँगी। पर पचहत्तर वर्ष की उम्र में 'इन्फेक्शन' को मौका मत दीजिए कि आपको घेर ले वैसे भी आपको शुगर और बी.पी. है तो बहुत जल्दी संक्रमण की चपेट में आ सकते हैं।'

'मुझे कुछ नहीं होगा, भले ही मुझे डायबिटीज वगैरह है पर मैं ना कभी गंभीर बीमार पड़ा या अस्पताल में भर्ती हुआ । कभी जुकाम-खांसी तक तो नहीं हुआ, मेरे परिचित क्या कहते हैं पता है?'

गीता ने सिर्फ भौंह उठा कर मानो पूछा - 'क्या?'

'सब कहते हैं कि मुझे डायबिटीज या कोई भी बीमारी हो ही नहीं सकती, वरना इस उम्र में इतनी भाग-दौड़ करना और प्रसन्न रहना संभव ही नहीं है। तुम यूं ही परेशान होकर अपनी तबीयत खराब कर लोगी।

गीता जानती है कि बहस करने का कोई अर्थ है ही नहीं। निर्मल के अत्यंत प्रिय मित्र के बेटे को इस महामारी ने चपेट में ले लिया। साधारण दिन होते तो गीता भी उनके साथ अवश्य जाती। उस मित्र और उनकी पत्नी पर तो मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा था। जवान जहीन बेटा जिस पर उसके माता-पिता को अगाध स्नेह, गर्व था और भविष्य की आशाएं टिकी हुई थीं। गीता उनके गहन दुख की कल्पना करके ही सिहर जाती है। जिसका इकलौता बेटा कोरोना की भेंट चढ़ गया हो उसको दिलासा देना एक तरह से नामुमकिन कार्य है। पर उस दम्पति को अंत्येष्टि के समय मदद करने के लिए कम से कम कुछ लोगों की तो आवश्यकता होगी। जाते-जाते निर्मल जिस तरह द्रवित स्वरों में बोल गये - 'इस संकट की घड़ी में इस दम्पति का साथ न दूँ तो शायद स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊँगा। हो सकता है कल हमारे साथ ऐसा हो जाये।'

मानो उस समय निर्मल की जिह्वा पर सरस्वती विराजमान रही हो और परमेश्वर देवी के कथन को कैसे झुठलाते?

देर शाम को निस्तेज और बुझे चेहरे के साथ निर्मल ने घर में प्रवेश किया और सीधे बाथरूम में नहाने चले गये। साधारणतया उन्हें नहाने में दस मिनिट से अधिक नहीं लगते थे पर उस दिन आधे घंटे तक वो निकले ही नहीं। गीता कुछ संशय और डर से बाथरूम के दरवाजे पर खड़ी होकर आवाज़ देने लगी। 'बस आ गया', - कहते हुए बाहर निकले। उनके उस निस्तेज, भावनाहीन चेहरे को देखकर गीता ने ये कब सोचा होगा कि एक तरह से वो उस चेहरे को सांसे लेती आखिरी बार देख रही होगी। इस तरह की उनकी हालत पहले भी एक बार भुगत या देख चुकी थी। आज से बीस वर्षों पूर्व, जब उन दोनों की आंखों का तारा, राजदुलारा अविनाश स्कूल में खेलते हुए चोटिल हो गया था। निर्मल अपने दफ्तर से सीधे स्कूल पहुँच गये थे और गीता घर से। तब भी निर्मल अधिक घबराये हुए थे और गीता ने ही उन्हें ढाढस दिलाते हुए कहा था - 'बच्चों को खेलते में चोट तो लग ही जाती है, दो चार दिन में सब ठीक हो जायेगा।'

उस एक महीने में दोनों पति-पत्नी आशा-निराशा के मिश्रण से बने भाव-समुद्र में डूबे एक-दूसरे को सहारा और तसल्ली देते रहे। अविनाश को सिर के पिछले भाग पर चोट लगी थी और खून का थक्का अंदर ही जम गया था। अंदरूनी चोट ज़हर बुझे शब्दों की तरह कितना घातक प्रहार करती है, इसका ज्वलंत उदाहरण बन गया था अविनाश। न जाने कौन-सी नस दब गई थी और डॉक्टरों की अथक कोशिशों के बावजूद अविनाश मात्र शारीरिक रूप से बच गया। पंद्रह वर्ष की उम्र तक पढ़ाई-खेल-कूद और अन्य सभी क्रियाकलापों में सबसे आगे रहने वाला अविनाश मात्र कठपुतली की तरह किसी के डोरी खींचने की राह देखने लगा। निर्मल गीता को मात्र एक संतान प्राप्ति का ही योग था वो भी जब निर्मल सैंतीस वर्ष के थे। कितने प्रसन्न थे, खुशी में फूले नहीं समा रहे थे।

'गीता, हमारे बालक ने हम दोनों को एकदम जवां ही कर दिया, मानो एक नई जान शरीर में आ गई। इतनी स्फूर्ति, इतनी एनर्जी आ गई कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ।' - उस समय तो निर्मल बच्चों या किशोरों की तरह किलक रहे थे। गीता उनकी हरकतें देखकर अपनी हंसी नहीं रोक पा रही थी। बेटे का नाम भी निर्मल ने ही रखा 'अविनाश', और सदैव बेटे को पूरे नाम से पुकारते थे। गीता से भी कह दिया था कि लाड़-प्यार में उसके सुंदर से नाम को छोटा कर या बिगाड़ कर नहीं पुकारे। दफ्तर में इतनी मेहनत करते कि प्रिय होनहार बेटे को बढ़िया से बढ़िया शिक्षा दे सकें। पिता-पुत्र मिलकर जितनी मस्ती, जितना मजाक करते थे, उतना ही अविनाश की पढ़ाई पर भी ध्यान देते थे। गीता प्रतिदिन एक बार तो कम से कम मन में कहती - 'प्रभु हमारी खुशी इसी तरह बनी रहे, पिता-पुत्र का स्नेह यूं ही बना रहे।'

उस हादसे के बाद निर्मल-गीता और अविनाश के लिए जो वक्त रूक गया था उसी ने निर्मल की उम्र मानों बीस वर्ष अधिक कर दी। उनकी वो स्फूर्ति और जिन्दादिली मानों कहीं गिरवी में रख दी थी। बेटे को उन्होंने कभी न हारने के लिए हेनरी फोर्ड का कथन एक तरह से घुट्टी में पिला दिया था - 'जब सबकुछ आपके खिलाफ हो जाये तो याद रखिए कि हवाई जहाज भी हवा के विरुद्ध उड़ान भरता है, हवा के साथ नहीं।'

किसी प्रसिद्ध व्यक्ति का कथन पढ़ना, उससे प्रभावित होना और उदाहरण के रूप में बांटना अलग बात है। स्वयं को हताशा और निराशा के गर्त से निकालना इतना सरल नहीं होता। गीता किसी आशावादी की तरह, चमत्कार की हल्की रोशनी के इंतजार में बेटे की सखी, सहायक, रहनुमा बनी रही। निर्मल बेटे के पास जाकर उसे सहलाते, उसके मुस्कुराते, अबोध बालक की तरह निहारते चेहरे को देख अपने से चिपटा कर रो पड़ते।

'पापा, कहीं लग गई क्या, दुख रहा है क्या? आप आराम करो।' - अविनाश के शब्द सुनकर तो वो स्वयं को संभाल ही नहीं पाते। उसी समय से उनका समाजसेवा का दायरा बढ़ते गया, इतना बढ़ गया कि वे खुद नहीं जानते कि उन्होंने कितने दुखते दिलों पर मल्हम लेपने का कार्य किया है। कितनी ही बार किसी की मदद कर के उसके दुख से द्रवित होते हुए गीता ने उन्हें देखा और महसूस किया है। पर आज जिस तरह उनका बेरंग, फक्क और जीवनहीन या स्पंदनहीन चेहरा देखा उससे गीता कांप गई मानों कुछ अनहोनी होने को है। रात को खाना खाने से भी मना कर दिया। गीता ने ज़ोर देकर गर्म दूध में हल्दी मिलाकर पिला दिया कि थकान मिट जाये। थकान तो क्या मिटी होगी; रात दो बजे के बाद शरीर ऐसा तप रहा था कि मानों फौलाद पिघलाने की भट्टी हो। कोविद 19 के संक्रमण का हमला हो ही गया था।

तपते बुखार में निर्मल का प्रलाप रुक-रुक कर जारी था। 'अविनाश, बेटा अविनाश, पापा आपको कितना प्यार करते हैं, पता है!'

बीच में कुछ बेसिर पैर की बेतुकी बातें। आखिर उन्हें एम्बुलेन्स में ले गये और कोई चारा भी नहीं था और कोविद वार्ड में किसी को आने भी नहीं दिया जाता। गीता और अविनाश को घर में ही 'क्वारेन्टाईन' कर दिया गया, दोनों की रिपोर्ट पॉजिटिव निकली पर बहुत अधिक तकलीफ नहीं रही। गीता को सप्ताह भर बुखार और गले में तकलीफ रही और आश्चर्यजनक रूप से अविनाश ने ही उसे संभाला। निर्मल गीता से कहा करते थे कि 'अपना बेटा अपनी उम्र के बच्चों से कहीं अधिक समझदार है इसलिए देखना बुढ़ापे में हमें आराम ही मिलेगा।'

पिछले बीस वर्षों से उनके इस कथन का कोई मूल्य ही नहीं रह गया था। दोनों को यही चिंता सताती थी कि उनके बाद बेटे को कौन संभालेगा! अब जब निर्मल को घर से दूर अस्पताल में रख कर इलाज होने लगा तो गीता मिश्रित विचारों में डूबी ना जाने कैसे-कैसे ऊटपटांग ख्यालों में आवागमन कर रही थी। कहीं निर्मल को कुछ हो गया तो? ये विचार उसके लिए सबसे भयंकर होते हुए भी सबसे प्रमुख हो गया। निर्मल-गीता जो कि ना जाने किस जन्म के पाप का प्रायश्चित कर रहे थे, उनके लिए इससे बुरी स्थिति क्या होगी? 'पैंतीस वर्षीय अबोध पुत्र', - गीता स्वयं को कोसते हुए कह उठती है।

ऐसी विकट परिस्थिति में इंसान भले-बुरे का ज्ञान ही नहीं गवां देता, बहुत कुछ गलत करने को भी तैयार हो जाता है। 'निर्मल को कुछ हो गया तो' इस विचार ने गीता के मनोमस्तिष्क को मथ के रख दिया। स्वयं को दोष भी देते जाती कि पति के लिए उसका यूं सोचना कितना गलत है।

बार-बार विचार को परे करती पर तूफान इतना जबरदस्त था कि मस्तूल में बंधे पाल की तरह फिर विचार लहरा कर आ जाता। गीता को लगता है कि पूरा माहौल जिस तरह संशय और सम्भ्रम की स्थिति में है, उसमें इंसान तो क्या ईश्वर भी 'कनफ्यूज़' लग रहा है। आखिर उसका एकमात्र सहारा निर्मल ही तो है यदि उसे सुरक्षित रखने की एवज में बेटे की कुर्बानी का विचार आया तो, ऐसा बेटा जिसके भविष्य की चिंता उन दोनों को खाए जा रही थी।

निर्मल की हालात में जब सुधार के लक्षण का पता चल रहा था और गीता का मन भी शांत हो रहा था तभी अचानक उसके आखिरी सांस लेने की खबर ने गीता को सुन्न कर दिया। क्या करे, कैसे करे ये सोचने की शक्ति ही खत्म हो गई थी। इस सर्वथा नई परिस्थिति से सभी को स्वयं ही के बूते पर निबटना था। स्वचालित मशीन की तरह उसने स्वयं पीपी किट पहन, मास्क पहना और अविनाश को भी पहनाने में मदद करने को सोच रही थी। पर देखा कि वो तो गमगीन मुखमुद्रा में पहले ही चाक-चौबंद खड़ा है। शमशान भूमि में ढ़ेरों चिताएं जल रही थीं, ढेरों स्पंदनहीन शरीर अपनी बारी की प्रतीक्षा में रखे हुए थे। जो शरीर भाग्यशाली थे उनका कोई अपना उनके बारी की प्रतीक्षा में उनके साथ थे। उस हिसाब से निर्मल भाग्यशाली रहे। उनके क्रियाकर्म को निपटाने में गीता जितनी कठिनाई की कल्पना कर रही थी, बेटे ने पूरी शिद्दत से उसे जैसा कहा गया, करता गया। साथ ही मां को तसल्ली और धैर्य भी बंधाता रहा जिसे अनुभव करते हुए वो स्वयं को धिक्कार रही थी कि उसके मन में पल भर को भी बेटे के प्रति ऐसी विपरीत कामना कैसे उठी!

वहां से लौटने से पहले उन्होंने देखा एक जवान स्त्री अपनी चार वर्षीया बालिका के साथ बदहवास सी बैठी थी और उसके सामने उसके पति का शव रखा हुआ था। पता चला कि वो इतनी गरीब और अबला है कि कफन खरीदने के पैसे भी नहीं हैं। गीता का मन उस औरत की हालत से द्रवित हो रहा था, तभी अविनाश ने उससे कहा - 'मम्मी, आप उसकी कुछ मदद कर सकती हैं क्या? उसके साथ कोई भी नहीं है, छोटी सी बच्ची के साथ वो कैसे सब करेगी?'

अविनाश को अबोध मानने वाली गीता की आंखें भर आईं। अपने बेटे के मन के उजले पक्ष को साफ-साफ देख पा रही थी।

अब जब दोनों मां-बेटे कोरोना पाजि़टिव होकर अपने घर में कैद कर दिए गए हों तो बेटे ने जिस स्नेह और ममता से मां को संभाला वो सहजता से भुलाया नहीं जा सकता। भले ही 35 वर्षीय बेटा बाकी लोगों की संतानों की तरह कमाऊ नहीं है, पर इंसानियत और संवेदना की भावना की तो उसमें कमी नहीं है। गीता का उसके साथ जो 'इन्टरएक्शन' होता था, जो परस्पर क्रिया होती थी उसी के फलस्वरूप बेटे का ऐसा आचरण उसे देखने को मिल रहा है। निर्मल कितनी बार कहते थे - 'गीता तुम कितनी सहजता से अविनाश के साथ बातें कर लेती हो, खेल लेती हो! मैं तो उसे गले लगाकर रो पड़ता हूँ।'

गीता के व्यवहार के असर से अगर अविनाश की चेतना और संवेदना बनी रही तो इसका ये भी अर्थ होता है कि उसने पूरा प्रयास नहीं किया। अगर वो पूरा प्रयास करे तो अविनाश अवश्य ही इस लायक हो जाएगा कि वो स्वयं को पूरी तरह संभाल सके। गीता के मन में एक नया विश्वास, स्वयं के लिए और अविनाश के लिए भी पैदा हुआ। उसे महात्मा गांधी का कथन आज नए अर्थ के साथ समझ में आया। 'हम जो करते हैं और हम जो कर सकते हैं, उसके बीच का अंतर दुनिया की ज्यादातर समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त है।'

गीता को ओर अधिक प्रयास करना था, अब वही करेगी, अथक प्रयास करने से नहीं घबरायेगी। अविनाश और स्वयं के संयुक्त प्रयास से वो अवश्य ही बेटे की उत्तरजीविता के प्रयास को साकार रूप दे पायेगी। किसी ने सच कहा है 'महान उपलब्धियां आसानी से नहीं मिलतीं ओर आसानी से मिली उपलब्धियां महान नहीं हो सकतीं।'


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